कमला कृति

शनिवार, 30 मई 2015

डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' की कविताएं



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



कर्त्तव्य 



आओ पूछें
सितारों से उनका धर्म
वे प्रति क्षण कैसे लड़ते हैं
अँधेरे से
आदिकाल से
लड़ते लड़ते
लेश मात्र भी थके नहीं,
क्योंकि वे
अँधेरे से लड़ना
अपना धर्म मानते हैं,
दूर-दूर तक रौशनी बांटने में
वे अपना अस्तित्व
सकारते हैं
उन्होंने कभी भी  
अँधेरे से लड़ने में
या रौशनी बांटने में
मुख नहीं मोड़ा है;
उन्होंने रौशनी को
अस्तित्व-सम्बल मान
कैद किया है
किन्तु उसके
अविराम विस्तार पर
कण-मात्र भी
प्रतिबन्ध नहीं लगाया है।



विजय श्री 



अपार दुःख-सागर में
डूबते क्षण
आशाएं ले रही हों
अंतिम श्वास
स्वाह हो रहा हो
अस्तित्व अर्थ मिट रहा हो
जीवन का,
ऐसे में झटका दो
स्वयं को,
उगते हुए सूर्य की
कुंआरी किरणों का
एक टुकड़ा क़ब्ज़ा लो;
जीवन का हर कोना
सुनहरे सपनों से
नहला लो,
मिटता हुआ अस्तित्व
साकार हो उठेगा;
टूटती आशाएं
विजय-श्री बनकर
तुम्हारा वरण कर लेंगी
अभीष्ट की
सीमाओं से परे
तुम्हारा स्वागत होगा।



जीवन आशा 



आओ
प्रातः वेला
शुभ महूर्त में
बाँध लें
पूरब से उगती
नित्य जीवन-आशा,
फिर दिवस भर तो
खो जाना है
उहा-पोह के
अन्धे जंगल में।



संघर्ष



आओ
उन्हें
मीठे सपने उधार दें
जो अपनी ही आँखों में
गिर गए थे
बहुत दिन पहले ।

आओ उन्हें
मुक्त करायें
जो कुंठाओं में कैद
ग्रंथियों से घिरे
अपना अस्तित्व
खोने ही वाले हैं।

आओ
उन्हें
सुबह का स्वप्न दें
अदृश्य जिन्हें
अँधेरे में, जब वे
स्वप्निल लोक में खोए रहते
निगलना चाहता है।

   

साहस 



तुम्हें किसने कहा
सूरज कब्ज़ा लो,
जानते नहीं
ऐसा करने से
जल जाओगे।
यदि कर सकते हो तो इतना करो
धूप कब्ज़ा
लो एक टुकड़ा-भर धूप
काफ़ी है,
आलोकित कर लोगे
अपना जीवन।



डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' 


संपादक,
'अनहद कृति' त्रैमासिक ई-पत्रिका
(www.anhadkriti.com)
ईमेल:chaswalprempushp@gmail.com

सोमवार, 25 मई 2015

दिविक रमेश की कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


एक आश्रम अशान्त


एक शान्त जलधारा है
एक शान्त किनारा है
मंदिर में गूँज रहा
घंटा भी शान्त है
मंत्र उच्चार रहे
भक्त भी शान्त हैं
बोलते भी शान्त हैं
हँसते भी शान्त हैं
प्रश्न सब शान्त हैं
उत्तर सब शान्त हैं

शान्त हैं
धरती से जुड़ी तमाम वनस्पतियाँ
शान्त हैं
आकाश को ताकते तमाम वृक्ष
कलरव भी शान्त है
शान्त है आवाज भी
शान्त हर ओर है
शान्त सब शोर है
शान्त आसपास है
क्षितिजों तक
बस शान्त ही शान्त है
तो फिर
रहना अशान्त मेरा
क्या नहीं है अनुचित?
खोजता हूँ तो पाता हूँ
एक मरियल सी जिज्ञासा है
एक लकीर सी शंका
एक गर्दन उठाए स्वार्थ है
एक अनुभवहीन तर्क है
एक अहंकारी श्रद्धा है
एक चाटुकार विनय है
खोने में पाना है
देने में लेना है
शब्दों में शोर है
आवाज में भीड़ है
चिन्तन में चीर है
लालच के ढूँह पर
बैठा फकीर है।
शान्त को भीतर से
खाता हुआ अशान्त है।

चुप भी अशान्त है
सब कुछ अशान्त है।



कविते!


माना कि जोर बहुत है तुझमें
पर आज मुझे झोंकनी है ताकत
देखता हूँ कैसे रचवाती हो खुद को!

मृत घोषित होकर भी हो जीवित
पढ़ता ही कौन है तुम्हें
फँस चुकी हो पुरस्कार-फुरस्कार की दलदल में
पाठ्यक्रमों तक में सरेआम भोग लेती हो बलात्कार

कैसे रह लेती हो शान्त तब भी!

जानता हूँ बहुत जोर है तुझमें
और जिद्दी भी कम नहीं
और मूर्ख इतनी कि अकेला भी चलने को तैयार
फूँक फाँक, छोड़-छाड़ घर द्वार।

अशोक हो
हो पीपल सी
अध्यात्म भी, विज्ञान भी
कैसी हो तुम, पृथ्वी सी
रहस्य भी, अनिवार्य भी।

कितनी सहज हो तुम
दिखती न दिखती लहर सी।

पर बदमाश भी, थोड़ी चुलबुली
रचवा ही लिया न खुद को।



काश


काश कि मैं एक नागरिक न होता
दबा
सभ्य होने के बोझ से
तो न करता इन्तज़ार
किसी गवाही
किसी अदालत की।

उखाड़ फेंकता जहरीले वृक्षों को
कर डालता शिकार वर्जित क्षेत्र में भी
वहशी प्राणियों का
नहीं करता परवाह मंत्रालयों की,
विभागों की।

काश कि मैं पिशाचभक्षी हो पाता
तो खाता एक एक अंग
जिंदा ही भूनकर उनका
और अट्टहास करता
उनके गगनभेदी चीत्कारों पर।

देखता पूरी खिंची आँखों से।
नोचता उनकी स्मृतियों को।

कैसे चबाया होगा उन्होंने
मासूम बच्चों और महिलाओं के गोश्त को!
कैसे किया होगा उपेक्षित
उनकी आँखेां से टपकती मानवता को!

कैसे ?
काश !



खुशी


खुशी को मैंने
उँगलियों में पकड़ा
और सहलाया उसकी पंखुड़ियों को

पाया
खुशी शर्माते शर्माते
सकुचा गई थी

मैंने
थोड़ा खोला खुशी की पंखुड़ियों को

पाया
खुशी मेरी खुशी में
सम्मिलित हो गई थी

मैंने खोल दिया पूरा
और कर दिया अर्पित उसे
उस पूरी दुनिया पर
जहाँ नहीं थी वह

पाया
मैंने कभी नहीं देखा था खुशी को
इससे ज़्यादा खुश
पहले कभी

ताज्जुब
मेरी खुशी तक मना रही थी जश्न
जैसे मुक्त हो गई हो मेरी कैद से



डर


बस इतना ही मालूम था मुझे
कि एक डोर है यह
जिसका यह सिरा मेरे हाथ में है।

कहाँ है दूसरा सिरा
सब कुछ अदृश्य था
जितना भी खींच लूँ
हिला लूँ कितना भी
कहीं कोई तनाव नहीं था डोर में
हालाँकि
आ बसा था तनाव
पूरा
मेरी देह में

डर भी था कितना
और वह भी अजाना
कि नहीं छोड़ पा रहा था डोर को।

तभी किसी विचार की तरह
न जाने कैसे सूझा
और पाया
वह डोर, डोर थी ही नहीं
एक उँगली थी किसी दैत्य की

मेरा हिलना डुलना
यहाँ तक कि चलना भी
उसी उँगली के वश था

मैं स्वयं
जैसे उसी के वशीभूत था
उसकी अद्भुत आत्मीयता से

उसकी उँगलियों से ही
निरन्तर उतर रही थीं
उदासियाँ
मेरी देह में
कि तन रही थी जो निरन्तर

और मैं
कुर्बानी की हद तक
स्वीकार कर रहा था जिन्हें।

कितनी कठोर होती है सच की समझ
मैंने जाना था।

झटक दिया था
एक ही झटके में
मैंने उस दैत्य की उँगली को

आश्चर्य!
न डर था, न तनाव
मैं स्थिर था
मेरी उदासियाँ तक
कुर्बान हो चली थीं
खुद मुझ पर।



दिविक रमेश



  • दिविक रमेश (वास्तविक नाम - रमेश शर्मा)
  • जन्म :  १९४६, गाँव किराड़ी, दिल्ली।
  • शिक्षा :  एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
  • संप्रति :  प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
  • पुरस्कार/सम्मान : गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, १९९७
  • सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, १९८४
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, १९८३
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान २००३-२००४
  • एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८९
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८७
  • भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान १९९१
  • बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड १९९२
  • इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान १९९५
  • कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र २००१बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान १९७६ में।
  • प्रकाशित कृतियाँ :कविताः 'रास्ते के बीच', 'खुली आंखों में आकाश', 'हल्दी-चावल और अन्य कविताएं', 'छोटा-सा हस्तक्षेप', 'फूल तब भी खिला होता' (कविता-संग्रह)। 'खण्ड-खण्ड अग्नि' (काव्य-नाटक)। 'फेदर' (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। 'से दल अइ ग्योल होन' (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। 'अष्टावक्र' (मराठी में अनूदित कविताएं)। 'गेहूँ घर आया है' (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।
  • आलोचना एवं शोधः  नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’। ‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पडाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफिक्स), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।
  •  ‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।
  • बाल-साहित्यः ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग ३ और ४’, ‘अगर पेड भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे जोर-जोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बडा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’।
  • ‘और पेड गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।
  • अन्यः ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)। 
  • ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
  • अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।
  • विशेष : २०वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता-संग्रह ’रास्ते के बीच‘ से चर्चित हो जाने वाले आज के सुप्रतिष्ठित हिन्दी-कवि बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। ३८ वर्ष की आयु में ही ’रास्ते के बीच‘ और ’खुली आंखों में आकाश‘ जैसी अपनी मौलिक साहित्यिक कृतियों पर सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड जैसा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ये पहले कवि हैं। १७-१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया। १९९४ से १९९७ में भारत सरकार की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए जहाँ इन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कितने ही कीर्तिमान स्थापित किए। वहाँ के जन-जीवन और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहरा परिचय लेने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप ऐतिहासिक रूप में, कोरियाई भाषा में अनूदित-प्रकाशत हिन्दी कविता के पहले संग्रह के रूप में इनकी अपनी कविताओं का संग्रह ’से दल अइ ग्योल हान‘ अर्थात् चिड़िया का ब्याह है। इसी प्रकार साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित इनके द्वारा चयनित और हिन्दी में अनूदित कोरियाई प्राचीन और आधुनिक कविताओं का संग्रह ’कोरियाई कविता-यात्रा‘ भी ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा में अपने ढंग का पहला संग्रह है। साथ ही इन्हीं के द्वारा तैयार किए गए कोरियाई बाल कविताओं और कोरियाई लोक कथाओं के संग्रह भी ऐतिहासिक दृष्टि से पहले हैं।
  • दिविक रमेश की अनेक कविताओं पर कलाकारों ने चित्र, कोलाज और ग्राफिक्स आदि बनाए हैं। उनकी प्रदर्शनियाँ भी हुई हैं। इनकी बाल-कविताओं को संगीतबद्ध किया गया है। जहाँ इनका काव्य-नाटक ’खण्ड-खण्ड अग्नि‘ बंगलौर विश्वविद्यालय की एम.ए. कक्षा के पाठ्यक्रम में निर्धारित है वहाँ इनकी बाल-रचनाएँ पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र बोर्ड तथा दिल्ली सहित विभिन्न स्कूलों की विभिन्न कक्षाओं में पढ़ायी जा रही हैं। इनकी कविताओं पर पी-एच.डी के उपाधि के लिए शोध भी हो चुके हैं।
  • इनकी कविताओं को देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित संग्रहों में स्थान मिला है। इनमें से कुछ अत्यंत उल्लेखनीय इस प्रकार हैं १. इंडिया पोयट्री टुडे (आई.सी.सी.आर.), १९८५, २. न्यू लैटर (यू.एस.ए.) स्प्रिंग/समर, १९८२, ३. लोटस (एफ्रो-एशियन राइटिंग्ज, ट्युनिस श्ज्नदपेश् द्धए वॉल्यूमः५६, १९८५, ४. इंडियन लिटरेचर ;(Special number of Indian Poetry Today) साहित्य अकादमी, जनवरी/अप्रैल, १९८०, ५. Natural Modernism (peace through poetry world congress of poets) (१९९७) कोरिया, ६. हिन्दी के श्रेष्ठ बाल-गीत (संपादकः श्री जयप्रकाश भारती), १९८७, ७. आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं (संपादकः हरिवंशराय बच्चन)।
  • दिविक रमेश अनेक देशों जैसे जापान, कोरिया, बैंकाक, हांगकांग, सिंगापोर, इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, जर्मनी, पोर्ट ऑफ स्पेन आदि की यात्राएं कर चुके हैं।
  • सम्पर्क : divik_ramesh@yahoo.com

बुधवार, 20 मई 2015

मोहन सिंह कुशवाहा की रचनाएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



लड़की : चार चित्र


(एक)


निबिया के पेड़ तले
धूल भरे हाथ- पांव
घुरहू, गोबर्धन, जनार्दन के घेरे में
गर्दन पर हाथ धर
पूछे बन रानी
बोल मेरे गुइयाँ कित्ता पानी !



( दो )


दबे पांव भाग गया
झंझट में पाग गया
आंगन में खीच गया बंदिश की रेखा
खोई- खोई आँखों से
दर्पण का प्रतिविम्ब
बार- बार मुनियाँ से
पूछे पहेली-
बैरी था बचपन या
है ये जवानी
बोल मेरे गुइयाँ कित्ता पानी !



( तीन)


घर की रसोई में
आटा सने हुए हाथ
धुन्धुआता चूल्हा ओंर
अम्मा की सीख -डांट
यौवन की देहरी पर
जैसे ही पांव धरी
गुड्डा और गुडिया की भूली कहानी
बोल मेरे गुइयाँ कित्ता पानी !



( चार)


अम्मा और बापू की
छाती की बोझ हुई
भाग - दौड़ / दौड़ - धूप
कर्जा- दहेज हुई
नये - नये रिश्तों से
नया - नया दर्द मिला
सास कभी नन्द कभी देवर की बोली
कच्ची उमरिया
बुजुर्गों सी बानी
बोल मेरे गुइयाँ कित्ता पानी !



यह मेरा हिंदुस्तान नहीं (गीत)


यहाँ नाचती मौत सडक पर,
राम, कृष्ण,रहमान नहीं है ।
नहीं-नहीं यह मेरा हिंदुस्तान नहीं है ।।

यहाँ चंद सिक्कों पर ही
सच्चाई बेचीं जाती है।
द्वेष- दम्भ के बांटों से
अच्छाई नापी जाती है ।
गिरवी मर्यादा है

दौलत के पीछे इमान नही है ।
नही-नही--------है।।1।।


यहाँ नही एकलव्य अंगूठा
काट दक्षिणा देने वाला ।
द्रोणाचार्य बहुत हैं
शंकर नही गरल पी लेने वाला।


पत्थर को भी नारी
कर देने वाला भगवान नही है।
नही-नही--------है।।2।।


रोटी के पीछे बाजारों में
इज्जत बिकते देखा,
जिन्दों  की क्या बात कहें
मुर्दों को भी रोते देखा,


कफ़न बेच खाने वाले
कैसे कह दें शैतान नहीं हैं।
नहीं-नहीं--------है।।3।।


मंत्रोच्चारण शंख नहीं
गुंजते है अब देवालय में,
यहां पाप संगीत गूंजता है
मस्जिद शिवालय में,


मुर्झा गए फूल आस्था के
पत्थर में भगवान नहीं है
नहीं-नहीं--------है।।4।।


एक डाल पर बैठ के
आपस में तोता मैना लड़ते,
मंजिल एक मगर विपरीत
दिशा में राही हैं बढ़ते,
रिस्ते कच्चे धागे हैं

कब टूट गए यह ध्यान नहीं है।
नहीं-नहीं--------है।।5।।


बनी आज अनुभूति
वेदना अनदेखी राहें सारी,
संयम, संस्कार अब तो
रह गया कल्पना ही न्यारी,
वशीभूत दानवता के,

मोहन को गीता ज्ञान नहीं है।
नहीं-नहीं--------है।।6।।



मोहन सिंह कुशवाहा


  • जन्म- 30 सितम्बर 1955, 
  • ग्राम पोस्ट-पकड़ी जनपद- गाजीपुर ( उ.प्र.)
  • शिक्षा -एम्. ए. ( हिंदी)
  • उपलब्धियां - हिंदी कवि -सम्मेलनों में ओज-गीत का प्रतिष्ठ कवि, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से कविता पाठ। देश के प्रतिनिधि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लेख तथा बाल -कथा प्रकाशित। "कानपुर के कवि" तथा "बारूद के ढेर पर मुस्कराते फूल" आदि काव्य संग्रहों में सहयोगी कवि। विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
  • प्रकाशन-"कलम उठाने दो" (प्रेस में) ।
  • सम्प्रति -आयुध निर्माणी कानपुर में क.का.प्रबन्धक पद पर कार्यरत।
  • संपर्क-FT -173 अर्मापुर,कानपुर ( उ.प्र.)-208009
  • मो. 09452527858
  • ईमेल- mohansinghkushwaha999@gmail.co

शुक्रवार, 15 मई 2015

निदा फ़ाज़ली के दोहे



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


जीवन का विस्तार



युग-युग से हर बाग का, ये ही एक उसूल
जिसको हँसना आ गया वो ही मट्टी फूल

पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार

चिड़ियों को चहकाकर दे, गीतों को दे बोल
सूरज बिन आकाश है, गोरी घूँघट खोल

चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात
कटकर भी मरते नहीं, पेड़ों में दिन-रात

सीधा सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान

सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना, खोना, खोजना, सांसों का इतिहास

सुना है अपने गाँव में, रहा न अब वह नीम
जिसके आगे मांद थे, सारे वैद्य-हकीम

छोटा कर के देखिए जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाँहों भर संसार

मैं क्या जानूँ तू बता, तू है मेरा कौन
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन

रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल

ऊपर से गुड़िया हँसे, अंदर पोलमपोल
गुड़िया से है प्यार तो, टाँकों को मत खोल

मैं भी तू भी यात्री, आती-जाती रेल
अपने-अपने गाँव तक, सबका सब से मेल।

दर्पण में आँखें बनीं, दीवारों में कान
चूड़ी में बजने लगी, अधरों की मुस्कान

यों ही होता है सदा, हर चूनर के संग
पंछी बनकर धूप में, उड़ जाते हैं रंग

बूढ़ा पीपल घाट का, बतियाए दिन-रात
जो भी गुज़रे पास से, सिर पे रख दे हाथ

घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव



निदा फ़ाज़ली



  • जन्म: 12 अक्तूबर 1938
  • जन्म स्थान: दिल्ली (भारत)
  • कुछ प्रमुख कृतियाँ : आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं, खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी
  • सम्मान : 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

रविवार, 10 मई 2015

पांच कविताएं-विनोद पासी 'हंसकमल'



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



मेरी राह



न में इधर हूँ,  न में उधर हूँ
न मैं  तेरा, न मैं उसका
न  मैं  इस गुट का,
न उस  गुट का
मुझे न किसी से बैर,
न किसी से लगाव
न मैं मानू  इस मठ को,
न मैं मानू उस दरगाह को
न मैं मानू इस रब को,
न मैं मानू किसी और रब को
मैं सबमे रह कर भी हूँ सबसे अकेला
न मैं  हिन्दू, न मैं मुसलमान
न मैं ईसाई, न मैं सिख
मैं तो हूँ बस एक इंसान और
मानता हूँ इंसानियत को
किसी के आंसू पोंछ पायु
किसी के लब पर ख़ुशी ला पाऊ
यही मेरा मकसद, यही मेरी मंजिल
यही मेरा रस्ता यही मेरी रह
चल पायो तो साथ चालों
वर्ना मैं हूँ  खुद ही राही
अपनी मंजिल का



कैसा ये प्यार है 



एक उम्र गुज़र गयी है
संग रहते रहते
फिर भी न तुम समझ
सके न हम
तुम जानते हो क्या है
मेरा नजरिया
में भी जानता हूँ
तुम्हारा दृष्टिकोण
जानते है दोनों ही
क़ि कही ठीक है हमसफ़र
पर ज़िद है अपनी अपनी  की
सरकते नहीं है अपनी ज़मीन से
साथ रह कर परेशानियाँ भी झेलते है
और रह भी नहीं पाते
एक दूसरे के बगैर
कैसा अजब ये रिश्ता है,
कैसा ये प्यार है



इलेक्ट्रोनिक मीडिया



मैं एक अनचाहा मेहमान,
घुसा तुम्हारी ज़िन्दगी में
कमरे के एक कोने में,
कपडा डाल  रख  दिया गया
पर मुझमे कुछ आकर्षण था,
की घडी  की नोक पर
सारा परिवार साथ बैठ
मुझे निहारता था और मेरे द्वारा
अपना मनोरंजन समझता था

मेरी पेठ गहरी थी  और मैं बैठक से धीरे
धीरे तुम्हारे शयन कक्ष पहुँच गया
जब तक तुम कुछ समझ पाते
मैं  पूंजीवादियों के हाथों
उनकी कठपुतली बन चुका था

अब  तुम सब मेरे २४ घंटों के प्रोग्रामो  में
इतना ज़कड़ चुके हो, की चाह कर भी इस
चंगुल से निकल नहीं सकते.  मैंने तुम्हे
नशे के घूँट पिला दिए है, और तुम हर
बात जानने के लिए मुझ पर ही निर्भर हो

मैं ही खेल , मैं ही   खबरे,
मैं ही मनोरंजन,
मैं ही फैशन, मैं ही सिनेमा,
मैं ही संगीत, मैं ही समाज,
मैं ही व्यभिचार, मैं ही संस्कार,
मैं ही  बन गया हूँ सबकुछ
सोच समझ, पढाई लिखाई से
दूर कर,  जोड़ लिया
मुझसे नाता, और सर्जनात्मकता का
कर दिया अंत

मैं ही मीडिया ट्रायल करता, मैं ही जज, मैं ही प्रार्थी
मैं डिबेट  के नाम पर बहस कराऊ भोंडे  इल्जाम लगवाऊँ
मैं ही चरित्र हनन करूँ और मैं ही लगाऊ मलहम
कोई मुझ पर ऊँगली न  उठाए, चाहे मैं हूँ कितना भ्रष्ट

तुम अब एक दूसरे के बिना तो जी सकते हो
पर मेरे बिना नहीं, मैंने  है कई घर उजाड़े,
कई दम्पतियों के संबंधों  में दूरियां बना दी
मुझमे है अब  इतना आकर्षण  क़ि मिट न
पाए चाहे आपसी दूरिया,
मेरी हस्ती है की मिटती नहीं




ऐसे में कविता क्यों न हो



जहाँ गगनचुम्बी देवदार और ताड़ के पेड़  हो
जहाँ हर और प्रहरी हिमालय की  चोटिया हो
जहाँ हरे भरे पेड़  स्नान किये  मग्न   हो
जहाँ वादियाँ कोहरे की  चादर ओढे  हो
जहाँ घुमावदार ऊपर नीचे आती सड़के हो
जहाँ हर और शांति का आलम हो
जहाँ पक्षियों की  चहक ही संगीत हो
जहाँ सुबह  सबेरे दिनकर  प्रकाशमान हो
जहाँ हर और घनघोर हरियाली हो
जहाँ पावों से  पतों की चरमराहट सुनती  हो
जहाँ हलकी गर्मी में वरुण मेहरबान  हो
जहाँ प्रक्रति  पूर्णता शबाब पर   हो
ऐसे में  कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो

जहाँ  विभिन्य  फूलों  की  प्रजातियाँ खिलती हो
जहाँ जानवर भी चैन  से भ्रमण करते हो
जहाँ झरनों में  स्वच्छ पानी बहता हो
जहाँ हर शिखर पे देवो  का वास  हो
जहाँ पहुँच अपनी अपने से  पहचान  हो
जहाँ हवा पानी में प्रदुषण न हो
ऐसे में  कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो

जहाँ रुक रुक बादल बरसते हो
जहाँ दिन में शाम हो जाती हो
और हर शाम शांति की चादर ओढ़े  हो
जहाँ हर पल  कुदरत रंग बदलती हो
जहाँ इन्द्र-धनुष  भी दिखते हो
जहाँ छन छन के धूप बिखरती हो
जहाँ सतरंगी से बादल हो
और बादलों का ही ' कैनवस ' हो
जहाँ पूरी कायनात सांस लेती हो
जहाँ मानसिक असंतुलन न हो
ऐसे में  कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो


जहाँ अंधी दौड़ के तनाव न हो
जहाँ चेहरों  पे नेसर्गिक आभा हो
जहाँ पहुँच चेहरों  पे खुशियाँ आती  हो
जहाँ हर और कुदरत  की हसीन पेंटिंग्स हो
ऐसे में  कविता क्यों न हो,
ऐसे में कविता क्यों न हो

जहाँ बर्फ से ढके पहाड़ हो,
जहाँ  पर्वत श्रंखलाये श्वेत वस्त्र धारी  हो
जहाँ मुहँ से गर्म धुयाँ निकलता हो
जहाँ नल-कूपो में पानी जम जाए
जहाँ पेड़ों से बर्फ लटकती हो
जहाँ सांह सांह बहती  हवाए हो
जहाँ प्रकति की गोद के सिवा कुछ न हो
ऐसे में कविता क्यों न  हो
ऐसे में कविता क्यों न हो

जहाँ लोग निश्छल और सीधे साधे हो
जहाँ कम में  गुज़ारा होता हो
जहाँ शोर शराबा और भग्दढ़ न हो
जहाँ अफरा-तफरी, मार काट  कुछ न हो
जहाँ सादगी ही जीवन हो
ऐसे में कविता क्यों न हो
ऐसे में कविता क्यों न हो



सब अकेले 



गैरों की भीड़ में तो सब अकेले होते है
हम अपनों के बीच रह कर भी अकेले है
जुड़े है कितनो से यह हमें मालूम नहीं
पर हम से कब जुड़ा कोई हमें याद नहीं
हर रिश्ता जुड़ता है केवल स्वार्थ से
हर वो रिश्ता कसता है बन्धनों में
मन की सच्चाई से जी भी न सके
यूँ तो कहने को हमें पूरी आज़ादी है
सारी उम्र हम दूसरो को समझते रहे
समझा है हमको भी क्या कभी किसी ने
आज इसी गुत्थी को सुलझाने में
हम हैरान और परेशां तन्हा बेठे है !



विनोद पासी 'हंसकमल'


Attache (चीन)
पूर्व एशिया प्रभाग,
कमरा नं 255 ए,
साउथ ब्लॉक, नई दिल्ली
फ़ोन-011-23014900
ईमेल-vinodpassy@gmail.com

सोमवार, 4 मई 2015

छौना तृण व अन्य कवितायें-मंजुल भटनागर


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


छौना तृण



उड़ पाखी
लिए हाथ में
लघु आस का छौना तृण.

उषा जाग गयी प्राची से
किरण नवेली जगा रही
सब जड़ चेतन

करतल पात ,शोर करें तो
हो न खिन्न
शक्ति पुंज ले गति जीवन

लिए चाह सृजन
तू हरपल व्याकुल
विपदाओं से लड़ता
मन तेरा चिर यौवन




दोस्ती



पक्षी चरवाहे हैं
बादल हैं
खान बदोश से हैं
मन मौजी
बहती हुई सुगंध बांचते डोलते हैं.

उनके पंखों में सिमटती मिटटी
भाप और घास
उन्हें छू भर के
अपना  देश ,अपनी ज़मीं
याद आ जाती है..

एक देश का पानी
दो मुल्को की बानी
दोस्ती को रंग लेती  है
दोस्ती मुल्को सरहदों की
मोहताज़ नहीं होती है .



बसंत



बसंत ओड़ दुशाला
झुरमुटों का
पीत वसन छिटका रही
दूर तलक .

सरसों बीच
छिपी चांदनी
सिमिट गयी .

किरण दिनमान के
पंख लगाये
उतरी है धरा पर
शुभ्र निश्चल.

मंगल हलद पीत
वीणा के तार झंकृत करती
मन प्रागंण में
निशब्द मौन .



जीवन चलता रहा



घर गाँव छूटा
रिश्ता बूटा
बढ़ा  शहर
न जाने किस ओर

छूटी हवा
छूटी पहचान
देखती  रही
ऊंचीं दूकान

गाँठ भरी दोपहरिया
भटकती रही
छूट रही ठौर

ढल गयी शाम
पगडंडियां सरकी
सूना पन छलता रहा

सागर का शोर
बाट जोहता कौन
लहरों सा
जीवन चलता रहा .



मंजुल भटनागर


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