कमला कृति

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

दस्तक: छगन लाल गर्ग 'विज्ञ' की रचनाएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



चौपाई/ वात्सल्य


कथा भिखारिन हैं दुखदायी,कथन करूँ तो प्राण उबायी।।
मानव सी बस सूरत पायी,सब मिल शोषक करे हँसायी।।

बच्चे तन वसन नही मिलते,मात पिता विवश किसे कहते।।
दूध कहाँ वात्सल्य मिलता,सरल कुसुम सा सुख बहु खिलता।।

सर्दी वर्षा माँ तन मन छिपके,बालक ममता जीवन महके।।
भाग करम जग अंधा रसिया,देख दशा मन भीतर छलिया।।

फूल खिले नवरस तन महकत,कीचड़ लिपटी बालक हसरत।।
आँचल ढकी मनहरण ममता,कुसुम लता मिल सांसे भरता।।

दिव्य नही यह ममता भोली,साधनविहीन लगती बोली।।
कब भर चेतन माँ का आँचल,बाल दूध से होगा माँसल।।

मत हँसो विवश घनी ममता,नन्हा बाल कुपोषित मरता।।
शोषित माँ का दुख कब जाना,वात्सल्य रस भरा खजाना।।


चौपाई-निर्दयता/क्रूरता 


क्रूर भाव से मानव पातक,जीवन उसका दाहक घातक।।
निर्दयता मे ही रस पाता,मानव रूपी पशुता नाता।।

सूली जीसस को लटकाता,छल बल से सच्चे मरवाता ।।
हाथ पेर जब कटते सच के,समझो वह हैं निर्दय झटके।।

मंसूर जगे आत्मा सूली,पीडा भी प्रभु रस में भूली।।
मानव है अति दानव जानो,काम क्रोध लालच विष मानो।।
जब भी मतलब उठता मन में,मानव निर्दय बनता पल में।।


छप्पय छंद


मृदुल प्रकृति रस राग,लावण्य मोहक निखरे।
पवन बहे अनुराग, अलौकिक माया उभरे।

अनंत सौंदर्य राज, प्रभात लालित्य बिखरा।
भीतरी उन्माद भाव,विराट संग मिल निखरा।

खोया जीवन ताजगी में,दिव्य ज्योतिमय भावना।
सतगुरू चरण तन प्राण मे, असीम जागी साधना।।

जीवन बंधन जान,फसा मन मंझधार मे।
मोहिनी रूप जाल,बहा तेज दुख ताल मे।

बंधन बनता राग, वैभव सुख आशा भरी।
आखिर पाता दोष, तृष्णा फल झूठन भरी।

भावी मृत्यु भय फिर बंधे,कल्पित चिंतन दुख सहे।
मानव मन झूठ संग जुडे,राग भय बंध मे बहे।।


छगन लाल गर्ग 'विज्ञ' 


  • जन्मतिथि :13 अप्रैल 1954 
  • जन्म स्थान : गांव-जीरावल तहसील-रेवदर जिला-सिरोही (राजस्थान )। 
  • पिता : श्री विष्णु राम 
  • शिक्षा : स्नातकोतर  (हिन्दी साहित्य)। 
  • राजकीय सेवा : 1978 से 1990 वरिष्ठ अध्यापक । 1991 से  2008 प्राध्यापक  (हिन्दी साहित्य ) 2009 से 2014 प्रधानाचार्य। 30 अप्रैल  2014 को राजकीय सेवा से निवृत्त । 
  • प्रकाशित पुस्तके : "क्षण बोध " (काव्य संग्रह), "मदांध मन" (काव्य संग्रह),"रंजन रस" (काव्य संग्रह), "अंतिम पृष्ठ" (काव्य संग्रह)। 
  • प्रकाशन: अनेकानेक साहित्य पत्र-पत्रिकाओ व समाचार पत्रों में कविता व आलेख प्रकाशित। 
  • वर्तमान मे: बाल स्वास्थ्य  एवं निर्धन दलित बालिका शिक्षा मे सक्रिय सेवा कार्य। 
  • सम्मान : "हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान, तुलसी काव्य सम्मान, काव्य कलश सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान।
  • संपर्क : 2 डी 78 राजस्थान आवासन मंडल, आकरा भट्टा, आबूरोड, सिरोही (राजस्थान )। 
  • मोबाइल: 9461449620 
  • ईमेल : Chhaganlaljeerawal@gmail.com 

परिक्रमा: ब्रह्मोत्सव की स्मृतियाँ-ऋषभदेव शर्मा



     भगवान वेंकटेश्वर के वार्षिक ब्रह्मोत्सव-2017 की अविस्मरणीय झाँकी


पहला दिन-22 सितंबर, 2017: आज सुबह मैं तिरुपति पहुँचा। स्टेशन से लगे हुए विशाल भवन 'विष्णु निवासं' में ठहराया गया। शाम को सामान सहित कार से तिरुमला ले आया गया और एसपीटी कॉटेज में टिका दिया गया। यात्रा सुखमय रही। खाली पेट रहा और अवोमिन ले ली थी; यों उल्टी नहीं हुई - जिसके डर से कई साल से यहाँ आना टल रहा था। इस बार भगवान का बुलावा आया तो मैंने सोचा कि भविष्य का किसे पता है इसलिए चलता हूँ। फिर भी कल तक मन टालमटोल कर रहा था कि तबीयत बिगड़ जाए तो क्या होगा। पर भगवान की इच्छा और आज्ञा मानकर आ गया तथा हर प्रकार स्वस्थ रहा।

कहा जाता है कि तिरुपति (श्रीपति) भगवान कृष्ण जी का ऐश्वर्य रूप है और  विट्ठल बाल रूप। भगवान तिरुपति ने ब्रह्मा जी को आश्वासन दे रखा है कि कलियुग के अंत तक यहाँ निवास करेंगे। यह आश्वासन मिलने पर ब्रह्मा जी ने शारदीय नवरात्र में उत्सव मनाया था, इसीलिए इसे ब्रह्मोत्सव कहते हैं। इस पौराणिक मान्यता के अलावा, वैसे सन 977 ईस्वी से इस पर्व के यहाँ निरंतर मनाए जाने के प्रमाण शिलालेखों में मिलते हैं।

आज इस वर्ष का ब्रह्मोत्सव आरंभ हुआ। मुझे इसके हिंदी में सजीव प्रसारण का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज भगवान के सेनापति विश्वक्सेन की शोभायात्रा निकली जो संपूर्ण व्यवस्था के निरीक्षण और समस्त जगत को आमंत्रित करने का प्रतीक है। इसके बाद यज्ञशाला में मिट्टी का संग्रह करके नवग्रहों के प्रतीक नौ प्रकार के धान्य (नवधान्य) का बीजारोपण किया गया जिसका प्रसारण नहीं किया जाता है। आज के इस पूरे विधिविधान को सेनाधिपति उत्सव और अंकुरारोपण (अंकुरार्पण) कहा जाता है।

उल्लेखनीय है कि 108 वैष्णव दिव्य क्षेत्रों में से केवल इस एक अर्थात श्रीवेंकटेश्वर मंदिर - तिरुमला- में ही वैखानस आगम के अनुसार अर्चना आदि का विधान है; जबकि अन्यत्र पंचरात्र आगम का पालन होता है। कल अर्थात दूसरे दिन 3 बजे ध्वजारोहण होगा। उसके सजीव प्रसारण में भी सम्मिलित रहने का सौभाग्य प्रभु ने प्रदान किया है। अगले दिन हैदराबाद प्रस्थान...! !!ॐ नमो वेंकटेशाय!!

""""""

दूसरा दिन-24 सितंबर, 2017: आज मैं हैदराबाद  लौट आया हूँ। कल अर्थात सितंबर, 2017 (शनिवार) को मुझे 3 बजे से श्री वेंकटेश्वर भक्ति चैनल के तिरुमला स्थित नियंत्रण कक्ष (कैंप) में उपस्थित रहना था - ब्रह्मोत्सव के दूसरे दिन के हिंदी में सजीव प्रसारण के वास्ते। ... और किस्सा यूँ हुआ कि मेरे आग्रह पर दोपहर 12 बजे वाले स्लॉट में मुझे भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन हेतु 'विशेषों' में पंक्तिबद्ध कर दिया गया; समय पर कैंप में आ उपस्थित होने के कठोर निर्देश के साथ। भारी भीड़ के बावजूद अच्छे से दर्शन हुए - 2.30 बजे। ...और मैं बगटुट दौड़ा। लड्डू प्रसाद भी नहीं ले सका। अभी तक अपराधबोध है; पर मुझे दिए गए समय का पालन करने की सदा से सनक रही है। भीड़ के रेले के साथ बहता हुआ बाहर आया तो जमकर वर्षा हो रही थी। कइयों के सतर्क करने पर भी मैं भीगता हुआ भाग लिया। ...अब सुनिए कि मुझे बचपन से ही रास्ते याद नहीं रहते। बहुत बार अपने गाँव और ननिहाल से लेकर पहाड़ पर, समुद्र किनारे और महानगर तक में खोया हूँ! सो, भागा तो दिशा भूल गया। जहाँ 5 मिनट में पहुँच सकता था, भटकता हुआ आधे घंटे में पहुँचा। पूरी तरह तरबतर। सराबोर। पर संतोष यह कि समय पर पहुँच गया। वर्षा के कारण प्रसारण में विलंब हुआ - वह अलग बात है। संस्कृत विद्यापीठ के युवा अध्यापक केशव मिश्र ने श्री वेंकटेश्वर के वार्षिक ब्रह्मोत्सव के दूसरे दिन के कार्यक्रम के सजीव प्रसारण के हिंदी में विवरण देना आरंभ किया और आगे मैंने सूत्र थाम लिया। बारी-बारी से दोनों अपनी बात कहते रहे। 

दूसरे दिन का पहला कार्यक्रम था - स्वर्ण तिरुच्ची उत्सव। यह कार्यक्रम ब्रह्मोत्सवम में 2015 से ही सम्मिलित हुआ है। इसके अंतर्गत श्री वेंकटेश्वर भगवान की उत्सव मूर्ति ( भगवान मलयप्पा) की दोनों देवियों (आह्लादिनी शक्ति श्रीदेवी तथा प्रकृति शक्ति भूदेवी) समेत जगमगाते सोने के रथ पर विराजित करके चारों वीथियों में भव्य शोभायात्रा का किया गया।  स्वर्ण रथ में 30 फुट की भव्य स्वर्णिम पीठ पर स्थापित भगवान की छवि सचमुच
नयनाभिराम ही नहीं, दृष्टि को धन्य करने वाली थी। इस सुदृढ रथ को अनेक भक्त अपने कंधों पर ढोकर जीवन की कृतार्थता पा रहे थे। साथ ही निरंतर चल रहा था - वैदिक ऋचाओं का उच्चार, भक्तिपूर्ण स्तोत्रों का वाचन और गोविंदा-गोविंदा का आनंदघोष। मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करता रथ जब अलग अलग वीथियों की अलग अलग दिशाओं में पहुँचता; तो सब ठहर जाते। अर्चकगण हर दिशा में विधिवत कलश से पवित्र जल छिड़कते हुए वैखानस आगम के अनुसार मंत्रों के साथ पूजा करते; और तब फिर रथ को आगे बढ़ाया जाता। लगभग 1 घंटे से अधिक यह स्वर्ण रथ उत्सव चला। वर्षा भी चलती रही। कभी रिमझिम तो कभी झमाझम। इसी बीच रथयात्रा सोत्साह संपन्न हुई। इसके बाद लगभग सवा पाँच बजे सायं से आरंभ हुआ ध्वजारोहण का सजीव प्रसारण।

ब्रह्मोत्सव के अंतर्गत प्रतिदिन भगवान बालाजी अलग-अलग वाहन पर आरूढ़ होकर तिरुमला की वीथियों में
भ्रमण करते हैं। इसके पूर्व इस उत्सव के विधिवत श्रीगणेश के एक और विधान के रूप में गरुड़-ध्वजा फहराई जाती है। गरुड़ भगवान के वाहन तो हैं ही, उनकी पताका पर भी विराजते हैं। निश्चित मुहूर्त में एक शुद्ध वस्त्र को हल्दी में डुबाकर रँगा जाता है। इस पीत वस्त्र को धूप में सुखाकर इस पर गरुड़ और भगवान कृष्ण की आकृतियाँ रेखांकित की जाती हैं। ऋचाओं, सूक्तों और स्तोत्रों के पाठ के साथ अर्चक इस ध्वजा को पुष्पमालाओं के साथ लपेटकर ध्वजस्तंभ पर फहराते हैं। इस अवसर पर आठों दिशाओं के देवताओं सहित समस्त ब्रह्मांड को ब्रह्मोत्सव के दुर्लभ आयोजन में आमंत्रित किया जाता है और संपूर्ण सृष्टि की मंगलकामना की जाती है। यह समस्त उत्सव अत्यंत अनुशासनपूर्वक  समग्र तन्मयता के बीच संपन्न हुआ।  कमेंटेटर के रूप में इस आनंदोत्सव का साक्षी बनकर धन्यता और प्रभुकृपा की अनुभूति हुई। !!ॐ नमो वेंकटेशाय!!


प्रो. ऋषभदेव शर्मा 


(पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद)
208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर– 500013 
मोबाइल - 08121435033
ईमेल – rishabhadeosharma@yahoo.com

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

नदी​ एवं अन्य कविताएं-वंदना सहाय


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


नदी


नहीं याद है 
नदी को अपना जन्म 
या कब से उसने बहना शुरू किया था

वह कोई बर्फीली चट्टान थी 
जिसने पिघल कर उसे जन्म दिया

फिर वह उतर आई 
उस ऊँची चट्टान को छोड़ 
नीचे मैदानों में

और बहना शुरू किया 
दो किनारों के बीच, निरन्तर
अब बहना ही उसका जीवन था 
चट्टान का वात्सल्य पिघल 
उसे बनता रहा एक सशक्त नदी 
और वह अविरल प्रवहमान होती रही 

अपने तेज वेग के कारण 
कभी ठीक से देख न पाई वह 
उस ममतामयी चेहरे को 

वह बहती रही बरसों 
और जीती रही दूसरों के लिए 
कर उपकार उन पर 

बरसों बहने के बाद वह सिमट गई 
और हो गई वेगहीन तथा कृशकाय 

उसकी थकी पलकें जब खुली, तो उसने देखा-
हिममण्डित वह चट्टान खंडित हो 
मिट्टी में मिल चुकी थी

और लोग धरती का चीर सीना 
मिट्टी में बीज बो रहे थे


समय की थपकियाँ


मोतियाबिंद से हो आईं हैं आँखें धुंधली
उसे याद आने लगती हैं वे थपकियाँ-
जो समय दिया करता था उसकी पीठ पर 
अपने कोमल हाथों से उसे सुलाने के लिए 
जब वह छोटी थी 
उन थपकियों से वह सो जाया करती थी 
तुरंत ही, चुपचाप गहरी नींद में

उसके बड़े होते ही कठोर-से लगने लगे वे हाथ
अब उन थपकियों से नहीं आती नींद 
उसे घेरने लगतीं हैं अनन्त चिंताएँ
जैसे बिन बुलाए भी दे जाता है डाकिया 
कोई दुःख भरी पाती

वह पढ़ने लगी है माँ की यादों में जाकर 
उसके चेहरे पर पड़ी आशंकाओं की लकीरों को 
समझने लगी है
जागती आँखों और दुखते घुटनों का युगल-बंधन 
पहचानने लगी है 
माँ की फीकी मुस्कान और उसके चिर थकान को

वह रोज़ थोड़ा-सा दौड़ लेती है 
समय के साथ 

पर एक दिन जब वह 
खड़ी हो आइने के सामने 
केश सुलझाने बैठी 
तो आइने में उसने अपनी माँ को 
रजत केश फैलाए देखा 


मौन कलरव


सुना है 
छोड़ दिया है चिड़ियों ने
बेफ़िक्र हो चहचहाना 
गाँवों के पेड़ों की शाखों पर भी
यहाँ पहले इन चिड़ियों की चहचहाहट को 
पहचानते थे ये लोग

लेकिन अब पहचानने लगीं हैं चिड़ियाँ-
लोगों की आवाज़ें, उनकी बोलियाँ 
कब उनका रुख बदलता है 
कब बदलते हैं उनके इरादे 
और, कब भोंकेंगे वे पीठ में छुरा

वे चुपचाप सुनतीं है, उनकी ग़ुफ़्तगू 
गाँवों को शहरों में बदलने का कुप्रयास 
मीत पेड़ों के काटे जाने का षड़्यंत्र

और पेड़ों के काटे जाने पर 
निकल आती है, आह 
जो कर देता है 
उनके कलरव को 
मौन


इंतज़ार- सुबह के उजाले का


नहीं हुआ है 
इस छोटे-से क़सबे में 
कोई आंतकवादी हमला

और ना ही है यहाँ कोई शीत-युद्ध 
गोरों और कालों के बीच

न्यूक्लियर हमले का भी कोई डर नहीं

पर, फिर भी वह डरती है 
अपने पति के स्वर्गवासी 
और बेटे के प्रवासी होने के बाद 

रात का सन्नाटा उसे डराता है 
लगते हैं आवारागर्द कुत्ते, उसे दहशतगर्द

मौन पड़ी, टूटी पीली पत्तियों की चरमराहट 
जब तोड़ ख़ामोशियों को 
जन्म देतीं है, सरगोशियों को 
तो उसका मन भर उठता है आशंकाओं से

पेड़ों की हिलती परछाइयाँ भी 
धर लेती हैं आदमवेश
उसे लगता है- जैसे कोई कर रहा हो 
उसके क़त्ल की साजिश

नीरवता और हवा के थपेड़ों से जूझता 
छोटा-सा एक बल्ब 
बन जाता है उसका रहनुमा 
और बंद दरवाज़ा उसका प्रहरी

वह तकिए के नीचे रखे टॉर्च को छूकर
भींच लेती है हाथों में विष्णुसहस्त्रनामावली

फिर आँखों में क़ैद कर लेती है 
भवसागर पार कराने वाले की तस्वीर 
और इंतज़ार करने लगती है-
सुबह के उजाले का


बिना टैग का


नहीं है कोई सज़ा
इस समाज में 
उनके लिए 
जब कोई इन्हें कहता है 'किन्नर '

या फिर, 'अरे वही, औरत और मर्द के बीच का'
या फिर 'थर्ड जेंडर'
सही है,
कहने वाला नहीं करता है कोई चोरी 
या फिर किसी की हत्या 
या बलात्कार

पर, ऐसा कहने वाला शायद ही कभी सोचता है 
कि उनका ऐसा कहना 
कर जाता है चोरी, इनके स्वाभिमान की 
हत्या, इनके अरमानों की और 
बलात्कार इनके व्यक्तित्व का
और इनकी गूँगी फरियाद
एक बार फिर ऊपर वाले से पूछती है- 
क्यों भूल गए लगाना टैग 
हमें औरत या मर्द होने का? 



वंदना सहाय



  • जन्म: 29 नवंबर
  • शिक्षा: बी. एस. सी (प्राणी-शास्त्र - ऑनर्स ), एम. एस. सी (प्राणी-शास्त्र)
  • सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन
  • विधाएं-कविताएँ, लघुकथाएँ, हाइकू, कहानियाँ, क्षणिकाएँ, ग़ज़लें, बाल साहित्य, व्यंग्य आदि का अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन, हिंदी के साथ अंग्रेज़ी में भी लेखन
  • संपर्क: 613, सुंदरम–2C,रहेजा काम्प्लेक्स, टाइम्स ऑफ़ इंडिया बिल्डिंग के निकट, मलाड (ईस्ट),मुंबई-400097 (महाराष्ट्र)
  • दूरभाष-022-28403178/09325887111,09325263178 

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

संजीव वर्मा 'सलिल' के नवगीत और दोहे


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मेघ बजे..


नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे

दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी

तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे

पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई

जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे

टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?

डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे


नहा रहे हैं बरसातों में..


नहा रहे हैं
बरसातों में 
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़

सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़

बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़

कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़


कुछ दोहे बरसात के..


गरज नहीं बादल रहे, झलक दिखाकर मौन
बरस नहीं बादल रहे, क्यों? बतलाये कौन??

उमस-पसीने से हुआ, है जनगण हैरान
जल्द न देते जल तनिक, आफत में है जान

जो गरजे बरसे नहीं, हुई कहावत सत्य
बिन गरजे बरसे नहीं, पल में हुई असत्य

आँख और पानी सदृश, नभ-पानी अनुबंध
बन बरसे तड़पे जिया, बरसे छाये धुंध

पानी-पानी हैं सलिल, पानी खो घनश्याम
पानी-पानी हो रहे, दही चुरा घनश्याम

बरसे तो बरपा दिया, कहर न बाकी शांति
बरसे बिन बरपा दिया, कहर न बाकी कांति

धन-वितरण सम विषम क्यों, जल वितरण जगदीश?
कहीं बाढ़ सूखा कहीं,  पूछे क्षुब्ध गिरीश

अधिक बरस तांडव किया, जन-जीवन संत्रस्त
बिन बरसे तांडव किया, जन-जीवन अभिशप्त

महाकाल से माँगते, जल बरसे वरदान
वर देकर डूबे विवश, महाकाल हैरान


हाइकु


(एक)
भोर सुहानी
फूँक रही बेमोल
जान में जान। .


(दो)
जान में जान
आ गयी, झूमी-नाची 
बूँदों के साथ।


(तीन)
बूँदों के साथ
जी लिया बचपन
आज फिर से। 

(चार)
आज फिर से
मचेगा हुडदंग
संसद सत्र।

(पाँच)
संसद सत्र
दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध
फैलाओ इत्र।

(छह)
हाइकू लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।

(सात)
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।

(आठ)
दादुर कूदा
पोखर में झट से

छप - छपाक।

(नौ)
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने

(दस)
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर


संजीव वर्मा 'सलिल'


204, विजय अपार्टमेंट, 
नेपियर टाउन, जबलपुर-482001
मोबाइल: 9425183244 
ई-मेल: salil.sanjiv@gmail.com

मंजुल भटनागर की रचनाएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

उम्मीदों के फूटे गुलाब..


उम्मीदों के फूटे गुलाब  
आओं चहचहायें 
बारिश है महताब 
आओ कुछ गुनगुनाएँ।   

झींगुरों के छिड़े वाद्य 
बिजुरी चमकी आकाश
रिमझिम सी है बरसात 
आओ मेघ गायें।  

अधरों ने कही बात 
गीत मिलन के गायें
मन  की है कोई  बात 
बारिश में भीगे और भिगो आएं।  

आँख बोल रही कुछ बात 
स्पर्श का हो राग 
चलों मुस्कराएं 
दो दिलों का है समास 
चलों भीग  भीग जाएँ।  


मेघा कब बरसोगे..


नदी व्याकुल सी
झील मंद सी मौन
खेत ,आँगन ,मोर नभ निहारे
कब भरेंगे सुखन मनस सारे
कब मन हर्षोगे
मेघा तुम कब बरसोगे?

नागार्जुन के प्रिय
देखा तुम्हें बरसते
विंध्याचल के द्वारों पर
देखा दूर हिमालय पर
मलयानिल झोंको से मेरा आंगन
तुम कब सरसोगे
मेघा तुम कब बरसोगे?

कालिदास के मेघ दूत
विरह सिक्त पावक प्रतीक्षा रत
नभ गवाक्ष से झांक रहे तुम
ले अगणित जल संपदा
गुजर रहे सजल तुम द्वारिका से
मेरे द्वार कब छलकोगे
मेघा तुम कब बरसोगे।

दया निधि बन जाओ
कृषक  प्रतीक्षारत
बरसा जाओ नभ कंचन
महकेगा खेत प्रागंन
आह्लादित होगा धरणी का तन मन।


नदी 


नदी का जल
बादल की बूंद बन
बहता है घने जंगल की
डालियों पर
मुग्ध होता है वह
एकाकार हो
जंगल झाँकने लगता है उसमे

साफ़ परिदृश्य
पाखी ,तितली ,हिरण और
अनछुई बदली
छू लेती है
नदी का अंतर्मन। 

जब नदी बर्फ हो
बूंद बूंद बन उड़ रही थी
तो भी नदी का रंग
श्वेत ही था
उडती भाप सा

नदी हमेशा से पाक
पवित्र थी,
जब गाँव गाँव भटकी
जब शहर घूमी
जब समुद्र से मिली
या फिर बादल बन ढली

बचा सको तो नदी का रंग
बदरंग होने से
तो नदी बनना होगा
तर्पण करना होगा

अपने आँख की
बहती अश्रु धारा बचानी होगी
जहाँ से फूटते हैं सभी
आत्मीय स्त्रोत।


यादें


दस्तक दे दरवाजे पर
जब सूनी यादें बहती  हैं
पंख पसारे धुँधली-सी छवि
सन्मुख आकर बैठी है।

बारिश बदली संग लिये वो
रहती दिल के कोने में
रोज सहेली बन बैठी जब
रोती हूँ में कोने में

इन्द्रधनुष जब सज जाते हैं
बादल कोई गाता है
जुगलबंदी संग जैसे कोई
पास मुझे बुलाता हो

आकारों के महल बने हैं
दिन, पल के साज
गीत उभर आता है मन में
जब मिलने की हो आस।


कैसा रूप धरा..


जलमग्न धरा
देखा नही सूरज
मिलती नहीं किरने
बादल ने ली अंगडाई है
धरा ने यह कैसा रूप धरा।

बरसता मेह अविरल
हवाओं को साथ लिए
पातो पर बांसुरी बज रही
बुँदे टिप टिप
घनघोर टपकारे
पंछी कहाँ जाएँ बेचारे।

आम पत्र झूम रहे
ले सुगन्ध डोल रहे
खोज रहे कोयलिया
नहीं सुनाती गीत आज
न जाने कहाँ छिपी हो ले साज। 

बादल घनघोर हैं
नहीं मिल रहा छोर आज
मंद मंद पछुआ हवा
बदली का दुकूल लिए
बह रही तरंगित आज। 


मंजुल भटनागर


0/503, तीसरी मंजिल, Tarapor टावर्स
नई लिंक रोड, ओशिवारा
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शैलेन्द्र शर्मा के दो गीत


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


यादों में शेष रहे..


यादों में शेष रहे 
सावन के झूले 

गाँव- गाँव फैल गई 
शहरों की धूल 
छुई-मुई पुरवा पर 
हँसते बबूल 

रह-रह के सूरज 
तरेरता है आँखें 
बाहों में भरने को 
दौड़ते बगूले 

मक्का के खेत पर 
सूने मचान 
उच्छ्वासें लेते हैं 
पियराये थान 

सूनी पगडण्डियाँ 
सूने हैं बाग 
कोयल-पपीहे के 
कण्ठ गीत भूले 

मुखिया की बेटा 
लिये चार शोहदे 
क्या पता, कब कहाँ 
फसाद कोई बो दे 

डरती आशंका से 
झूले की पेंग 
कहो भला कब-कैसे 
अम्बर को छूले 


रो रही बरखा दिवानी..


रात के पहले प्रहर से 
रो रही बरखा दिवानी 
हो गई है भोर लेकिन 
आँख का थमता न पानी 

आ गई फिर याद निष्ठुर 
चुभ गये पिन ढ़ेर सारे 
है किसे फुर्सत कि बैठे 
घाव सहलाये-संवारे 

मन सुनाता स्वत: मन को 
आप बीती मुँह-जबानी 

नियति की सौगात थी 
कुछ दिन रहे मेंहदी-महावर 
किन्तु झोंका एक आया 
और सपने हुए बे-घर 

डाल से बिछुड़ी अभागिन 
हुयी गुमसुम रातरानी 

कौंधतीं हैं बिजलियाँ फिर 
और बढ़ जाता अँधेरा 
उठ रहा है शोर फिर से 
बाढ़ ने है गाँव घेरा 

लग रहा फिर पंचनामा 
गढ़ेगा कोई कहानी 


शैलेन्द्र शर्मा 


248/12, शास्त्री नगर, कानपुर-208005
मोबा: 07753920677
ईमेल: shailendrasharma643@gmail.com

सुशीला शिवराण की चार कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


जानती हैं बारिशें​


किसको क्या देना है
जानती हैं बारिशें
बचपन को कागज़ की नाव
ढेर सा हुड़दंग
कैशोर्य को मस्ती
खूब उल्लास
यौवन को प्रेम
बहकने का वरदान
प्रौढ़ को आलस की चादर
छान की, खेतों की फ़िक्र
बूढ़ों को सेहत का लिहाफ़
चुस्की-दर-चुस्की चाय

बड़े ही अदब से
आती हैं बारिशें
उम्र के तकाज़े के साथ
सौंप जाती हैं 
हर एक पड़ाव को
मनमाफ़िक सौगात


ए बारिश !  

 
ए बारिश !
इतना भी न बरस
कि भीतर तक भीग चुके 
गीले तटबंध
भरभरा कर ढह जाएँ

लबालब नदी का उफ़ान
कहीं तोड़ न दे तटबंध
बहा ले जाए मर्यादाएँ
छोड़ जाए
टूटे-फूटे घर
अविरल अश्रु धार​
टुकड़े-टुकड़े दिल
ए बारिश !
इतना भी न बरस


बारिश का दर्द   


कल शाम
बेकल-सी
अनमनी-सी बारिश 
उतरी अंबर से
लाई साथ
कुछ उलाहने 
कुछ इल्ज़ाम 
बोली कलम थाम 
चाहती हूँ रिहाई 
इन पुर्ज़ों की कैद से 
  
मत बाँधो मेरे हुस्‍न को
जुल्फ़ों पर गिरी बूँदों में 
नहाई-झूमती फ़सलों 
नम फूलों-कलियों की 
पाकीज़ा खूबसूरती हूँ मैं 

सौंधी मिट्‍टी की महक में
मोर की थिरकन में
नंग-धड़ंग बच्‍चों के हुड़दंग में 
मैं तो उमंग हूँ 
बेहिसाब मतवाली !

टिन की छत पर 
बजती हूँ जलतरंग-सी
धड़कते दिलों को 
मदहोश करता है 
मेरा मादक संगीत
भीगती अमराइयों में
कोयल की कुहक में
पपीहे की टेर में
सावन के गीतों में
कजरी-मल्हार में
रूह से उठती तान हूँ 
कभी सुनो तो सही
  
नाउम्मीद किसान की 
पथराई आँखों में 
उम्मीद हूँ ज़िंदगी की 
मिट्टी में पड़े बीजों से 
उगाती हूँ खुशियाँ 
जो गाती हैं 
सब से मीठे गीत !

फ़लक पर
बादलों के साथ
तमाम दुनिया के ख्व़ाब 
कर देती हूँ इन्द्रधनुषी 
मेरी बूँदों से भीग उठती है धरा 
जो बन जाती है दुआ 
ज़िंदगी के लिए 
  
ख़ुदा का नूर हूँ 
कागज़ पर नहीं 
कायनात में हूँ 
लफ़्ज़ों में नहीं 
एहसासात में हूँ
इस सुरूर में 
कभी बहो तो सही 
  
बोलती रही बारिश
भीगती रहीं आँखें 
बारिश के साथ 
बारिश के दर्द में 
इन बारिशों को 
कभी पढो़ तो सही । 


अर्थाना स्वयं को

     
प्रेम की सुहानी पुरवा संग
संवेदना के मेघों की 
अमृत-सी बरखा लेकर
आओ न बीज !
प्यासी धरा
आकुल है
आतुर है
हरियाने को
स्वयं को अर्थाने को
  
सुनो बीज !
तुम्हीं तो अर्थाते हो 
उसका होना
तुम्हें अंकुरित होते देख
नर्तन करता है
धरा का पोर-पोर
नव-पल्लव का
मुस्काना
लहलहाना ही
बंजर होती धूसर धरा का
जी उठना है
  
सुनो बीज !
तुम्हीं से तो है
धरा का वसंत
फूलों की बहार
ख़ुश्बुआता
रूप-शृंगार
  
मौसमों की मार
प्रचंड धूप
ठिठुरती शीत से
ठूंठ होती धरा का
तुम्हीं हो वसंत
तुम हो तो
धरा, धरा है
उगना-खिलना-महकना-चहकना
जीवन के सब उपक्रम
तुम्हीं से तो हैं

यही सत्य है
तुम से ही है
धरा का धरा होना
तुम्हारा समर्पण
तुम्हारा अर्थाना
अर्थाता है धरा को

यही शाश्वत क्रम है
यही शाश्वत सत्य
तुम्हें अपने अंक में समेट
धरा अर्थाती है स्वयं को
इस सृष्टि को

संपूर्ण जगती को

धरा और बीज का
एक होना ही
नवसृजन है
नवजीवन है
युगों-युगों से
  
सुनो बीज !
अर्थाओ
स्वयं का होना
ताकि धरा 
अर्था सके
अपना होना
जन्म-जन्मांतर 


सुशीला शिवराण


बदरीनाथ–813,
जलवायु टॉवर्स सेक्टर-56,
गुड़गाँव–122011
दूरभाष–09650208745
ईमेल-sushilashivran@gmail.com

ज्योतिर्मयी पंत की रचनाएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


वर्षा रानी (गीतिका)


जल बूँदें संजीवन बिखरे
तुम आती तो जीवन निखरे। 

बूँदें नाच भिगाती अंचल
रूप धरा का सिंचन निखरे। 

रोमांचित तब हरित दूब हो
फल फूलों में जीवन निख्ररे। 

तुम नाराज़ कभी मत होना
आस कृषक की जीवन ठहरे। 

तीज पर्व तुम बिन नहिं सोहे
कमी तुम्हारी निशदिन अखरे। 


आया सावन .....


लो फिर आया सावन
है सबका मनभावन। 

तपन घटी हिय हरसे
झूले पड़े झुलावन। 

रिमझिम बूँदें झरती
तीज पर्व की आवन। 

चूड़ी मेंहदी रचे
सखियाँ कजरी गावन। 

शिव पूजा अर्चन से
प्राप्त पुण्यअति पावन। 

 

कुछ हाइकु


(एक)

आया सावन
तीज मन भावन
सखी मिलन। 


(दो)

पूरी उम्मीदें
वर्षा रिमझिम बूँदें
आई खुशियाँ। 


(तीन)

बूँद बौछार
गायें गीत मल्हार
सावन प्यार। 


(चार)

वर्षा ले आई
सूखें में हरियाली
आस जगाई। 


(पांच)

वर्षा की बूँदें
क्षणिक बुलबुले दें
जीवन सीख। 


(छह)

भीगता तन
विरही तप्त मन
लाये सावन। 


(सात)

बूँदों की लड़ी
सजते पेड़ पौधे
रंगत बढ़ी। 

दो पावस गीत-जयराम जय


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


तेरे गॉव का बादल.. 


तेरे  गॉव  का  बादल 
मेरे जब  गॉव  आता  है
बड़ी अठखेलिया करता हुआ मुझको रिझाता है

कभी वह प्यार करता है

कभी टकरार करता है 
कभी काली घटा बनकर
सरस रसधार करता है
अकारण ही नहीं बरसात का मौसम सुहाता है

कभी पायल की रुनझुन से 

कभी कंगन की खनकन से
लहर  की  चूड़ियाॅ बजती 
लगें कानों को शुभ धुन से
कभी लहराके ऑचल ये बिजली भी गिराता है

चमकता रूप का सागर

छलकता रूप का गागर
विनत होकर निखरता है
बहकता रूप का आगर
कभीबाहोंमेंलेकर फिर वही झूला झुलाता है

कभी वह छेड़खानी कर 

ग़ज़ब आनन्द देता है
बहकते पॉव यदि मेरे 
तो उनको छन्द देता है
वही स्वच्छन्द होकरके मिलन के गीत गाता है

तनिक में धैर्य खोता है 

नेह में फिर  डुबोता है
गहराई में समुन्दर की
लगाता  खूब गोता है
हवा के साथ मिलकर वो बड़ी पेगें बढाता  है


झमाझम फिर बरसता है

गरजने में न थकता है
हृदय को तृप्त करके ही
वहॉ से जब निकलता है
तभी नवगीत बनकरके सरसमन गुनगुनाता है

तेरे गॉव का बादल  

मेरे जब गॉव आता है
बड़ी अठखेलियॉ करता हुआ मुझको रिझाता है


सघन घन फिर-फिर घिर आये..


सघन घन
फिर- फिर घिर आये
असरस पथ में
सरस पथिक से बरस बरस छाये

मोंह निशा
काली काली में
जीवन की
इस अंधियाली में
शुभ्र चमकती
हैं   रेखायें
भावुक की
नीली थाली में
उमड़ -घुमड़ कर
गरज गरज कर कितने मन भाये

कोकिल का
अनिद्य स्वर सुन-सुन
विरहाकुल की
पीड़ा गुन-गुन
जाने किस परिधि के
जब नव निर्मित
मोती चुन - चुन
नीरद घन वे
आज अतन -तन
स्मृति कण बिखराये

आप्लावित कर
अखिल भुवन-वन
मृदु पादप
माला में छन-छन
सीपी के चातक के स्वर में
स्वाति बूॅद बन
स्वाति बूॅद बन
नव लतिका के
नवल अंक में
रह-रहकर छिटकाये

सघन घन
फिर-फिर फिर-फिर घिर आये


             

जयराम जय 


पर्णिका 11/1 कृष्ण विहार आवास विकास,
कल्याणपुर, कानपर-208017 (उ०प्र०)
फोन नं० 05122572721/ 9415429104

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

हम पत्थर एवं अन्य कविताएं-सुरेन्द्र भसीन


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


हम पत्थर


हम पत्थर
चुपके से
चिपक कर पहाड़
सटे रहते हैं
एक दूसरे से अपनत्व में।
और इंसान कहलाते हम
जब मर्जी पहुंच जाते हैं,
अपनी जरुरतों के मारे
उन्हें सताने को
काट खाने को
अपनी सँस्कृति, अपनी सभ्यता बढ़ाने को।
क्या कभी
पहाड़ भी आए हैं
हमें सताने को ?


बहते-बिखरते


जीवन में 
बिखरने से बहना ही अच्छा होता है सदा 
ढलाव पर बहना और 
निष्चित गंतव्य तक पहुँच जाना,
चाह, प्यास, व गड्ढे भरते चले जाना अनजानी राह के। 
शुरू से अंत तक -
एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत 
और फिर एकत्रित हो जाना सहमति में। 
मगर, बिखरने से कुछ नहीं सजता,
तनाव ही हाथ आता है जीवन भर का। 
निरुद्देश्य, बेवजह टूट-टूट कर गिरना,
बिल्कुल भी न संभलना न समझना हालातों को
और फट ही जाना 
कभी न जुड़ने के लिये।  


कर्मों उपासना


जैसे ही 
मैं उठता हूँ सुबह, 
हाथ जोड़कर ईश्वर से लेना चाहता हूँ, 
उसके संकेत, दिशा-निर्देश दिन भर के लिये। 
ताकि मैं कर सकूँ आत्मप्रण  से 
पूरा अनुसरण उनके प्रेषित संकेतों का 
और मेरा दिन,शांति,सफलता,उपकार में बीते,
लगे मेरा कण-कण, श्रण-श्रण उसी की कर्मों उपासना में। 
और यों दिन-दिन करके ही 
जीवन बन जायेगा निर्मल-निष्पाप,
बूंद-बूंद से घड़ा भर जायेगा - 
और इस घट का जल ही कभी भवसागर में मिल जायेगा 
उसी की एक पतली सुनहरी लहर बनकर याकि 
नभ में लहरायेगा, सूर्य में मिल जायेगा 
रोशनी की एक लकीर बनकर।  


प्रकृति प्रेम-मिलन


निशा गुजर जाती है, 
सलमा सितारों टंकी काली रेशमी चादर लिये-लिये
छम-छम करती.... 
और दिवाकर भी बहता जाता है 
रात की चाह में, इंतजार में हमेशा … 
दोनों ही आते-जाते मिलते- देखते समय संधि पर 
एक दूसरे को - प्यास लिये,चाह लिये। 
महीनों रहते एक दूसरे के वियोग में,विछोह में, 
और भारी होता जाता तन-मन। 
महीनों का विछोह-वियोग फिर जब टूटता है 
तो रात चढ़ जाती है दिन के ऊपर पूरे जोश से,
ढक-काला कर लेती है अपने उत्तेजित शरीर से और 
तब रात के जिस्मों गरूर में दिन कहाँ सफेद होता है। 
तब कड़कती है बिजलियाँ,
बरसने लगता है निर्मल जलधार रूपी प्रकृति का प्यार
बहता -उतरता है शिवत्व अपने चमत्कार में, 
और धरती पर हो जाता -
सब नवल-धवल, खिला-धुला, धुला-खिला। 
पनपति वनस्पति भी उसके बाद ही,
और पृथ्वी भी हल्की-ताजी हो,
कुछ अधिक चमकती तेज, फुर्तीली हो,
घूमने लगती है अपनी धुरी पर।    
   

पेड़ का महत्व


हवा फुसफुसाती 
पेड़ के कानों में कुछ,
पेड़, हँसने-झूमने लग जाते हैं मस्ती में 
अपनी जिज्ञासा में जलता-सोचता मैं..... 
हवा से पेड़ का जो नाता है,
हमसे क्यों नहीं बन पाता है ?
क्योंकि इन्सान दूषित करता हवा को 
पेड़ प्रदूषण मिटाता है इसलिये 
इन्सान से ज्यादा 
पेड़ महत्व का हो जाता है। 


सुरेन्द्र भसीन 



  • जन्म तिथि: 17 जून/1964 (नई दिल्ली)। 
  • कार्य क्षेत्र: विभिन्न प्राइवेट कम्पनीज में एकाउंट्स के क्षेत्र में सेवा।                 
  • निवास: के -1/19 ए, न्यू पालम विहार गुड़गांव, हरियाणा में पिछले 15 वर्षों से निवास।  
  • ब्लॉग - surinderbhasin.blogspot.in
  • सम्पर्क: मो-9899034323 
  • ईमेल - surinderb2007@hotmail.com    

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

चार गीत: कल्पना मनोरमा


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


रजनीगंधा स्वाँस-स्वाँस मॆं...


रजनीगंधा स्वाँस-स्वाँस मॆं 
याद पुरानी भर छलकाते 
वे वसंत के मौसम फ़िर-फ़िर 
किसलय-किसलय वन मुस्काते ।

दर्पण से नैना जब मिलते 
सुधियों के मृदु बंधन खुलते
दुलराती जब पकल पुतलियां
पुलकित हो दृग बिंदु मचलते 

वे दिन-रात रुपहले तारे 
फ़िर-फ़िर गीत पुराने गाते

मन अनुगामित राहें चलता 
दीप नेह  का दिप-दिप जलता 
समय सजाता स्वर्ण-मुकुट जब 
राग- विराग हृदय से मिटता 

वे फागुन के रँग चटकीले 
फ़िर-फ़िर रँग नया दे जाते

परिधि गगन आँगन-सी लगती 
नूपुर  रुनझुन-रुनझुन बजती 
सिंदूरी अलसित आभा मॆं 
प्रीत किसी की रह-रह छलती 

वे अनबोले स्वप्न सजीले 
फ़िर-फ़िर दंग हमें कर जाते ।


विश्वास जगा कर रखना है...


दीपक को तम मॆं अपना 
आभास बचा कर रखना है 
भले दिशाएं हों भ्रामक 
विश्वास जगा कर रखना है ॥

मन से मन मिलने की तो 
अब बात न करना 
आना घर संध्या से पहले 
रात न करना

जीवन के मधु छंदों से 
इतिहास सजा कर रखना है ॥

समय खेलता खेल समय पर 
तुम मत डरना 
दुविधाओं के नयनों मॆं 
तुम अभिमत भरना

वय सर के पंकिल तट पर 
उल्लास उगा कर रखना है ॥

चटकीले रंगों मॆं खोये 
उत्सव के रंग 
बाज़ारों मॆं थिरक रहे 
घर के सूखे अंग

वैदिक परम्परा वाले 
अभ्यास जमा कर रखना है ॥


दंश सहते हैं...


दंश सहते हैं 
मगर उत्साह को साधे हुए हैं 
सरहदों के बीच मॆं 
आकाश को साधे हुए हैं

जा रहे रणबांकुरे निज 
छोड़कर घरबार जो 
होश मॆं लेकर उमंगें 
हृदय मॆं परिवार को

ज़हर पीते है 
मगर अभ्यास कर साधे हुए हैं 
दुश्मनों के बीच मॆं 
उल्लास को साधे हुए हैं ॥

चाँदनी रातें सुनाती 
प्रेम की जब चिट्ठियां 
तैर जातीं सामने वो 
मद भरी-सी कनखियां

बहक जाते हैं 
मगर विश्वास को साधे हुए हैं 
हसरतों के बीच मॆं 
निश्वास को साधे हुए हैं॥

ब्याह ली तलवार तोपों 
को बना ली संगनी
युद्ध के मैदान मॆं है 
जीत बनती रंगनी

जान देते हैं 
मगर इतिहास को साधे हुए हैं 
पतझरों के बीच मॆं 
मधुमास को साधे हुए हैं 


मन ही मन सकुचाई धूप,,.


अगहन,पूस,माघ से मिलकर 
मन ही मन सकुचाई धूप॥

बदन सुखाये भोर 
शबनमी 
कली -कली मुस्काये 
गेँदे के कुर्ते मॆं उपवन 
लहर -लहर लहराये
चुनरी अटकी जा फुनगी पर 
जिसको देख लजाई धूप ॥

आँगन सिमटे कोने-कोने 
महकी चाय पतीली 

जली अँगीठी बतरस वाली 
सर्दी हुई रँगीली
प्रात गोद मॆं ठिठुरा सूरज 
लगती गंग नहाई धूप ॥

कोहरे की चादर मॆं लपटे
तारे जब घर आयें 
दुलराएं माँएं  छौंनों को 
पंछी नीड़  सजायें
आई शीत पालकी ज्यों ही 
देखो  हुई  पराई  धूप॥


कल्पना मनोरमा


  • जन्मतिथि- 04 जून, 1972
  • जन्मस्थान-ग्राम अटा, जनपद औरैया (उ०प्र०)
  • पिता-श्री प्रकाश नारायण मिश्रा
  • माता-स्व.श्रीमती मनोरमा मिश्रा
  • शिक्षा-एम॰ए॰ हिन्दी (बी॰एड)
  • लेखन-स्वतंत्र लेखन 
  • पुरस्कार-दोहा शिरोमणि सम्मान, लघुकथा-लहरी-सम्मान, मुक्तक गौरव, 
  • कुन्डलनी भूषण सम्मान।
  • प्रकाशित कृतियाँ- पहला गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन ।
  • संप्रति-स्नातकोत्तर शिक्षिका।
  • संपर्क-सी-5, डब्ल्यूएसी एसएमक्यू, एयरफोर्स स्टेशन, सुब्रोतो पार्क, नई दिल्ली -110010
  • मोबाइल-8953654363/ 9455878280
  • ई-मेल-kalpna2510@gmail.com