कमला कृति

सोमवार, 30 जून 2014

आशा पाण्डे ओझा की कविताएं



राजनीति



जिस देश की राजनीति
जनता की सिसकियों की थाप
अनसुनी कर
भोग-विलास संग
नाजायज सबंध बना
रंगरेलियाँ मना रही हो
जिस देश की राजनीति
उस सत्ता की कोख से
नाजायज अंधेरों का जन्मना
कैसे रोक सकता है भला कोई
विधवा के जीवन सा ठहर जाता है
उस देश का विकास
सम्पूर्ण पोषण के अभाव में
विकृत अपाहिज हो जाते हैं संस्कार
आंतक की औलाद
घूमने लगती है गली-गली
आवारा सांड सी बेलगाम
बीमार रहने लगता है अर्थशास्त्र
साहित्य का दम घुटने लगता है
चहुँ ओर काला धूंआं छोड़ती उस सदी में
तिल-तिल मरता है स्वर्णिम इतिहास
हत्या हो जाती है इंसानियत की
और बेवा सराफतें कर लेती हैं आत्महत्या
इस तरह क्षण-क्षण खंड-खंड
टूटता  बिखरता समाप्त हो जाता है
वो देश


जानते हो ना तुम


जानते हो ना तुम
करने को बेबस का भला
काटा जाता है बेबस का ही गला
भूले से जब कभी जीत जाता है
जो कोई बेबस
तो समझो दूसरी ओर
कोई बेबस ही हार कर
सिसक रहा होगा
पूंजीवादी चकाचौंध से नहीं आती
किरण भर भी रोशनी
कभी झुग्गियों के लिए
टिमटिमाते दीयों से ही ली जाती रही है
रौशनी सदैव अंधेरों के लिए
सूरज जब भी निकला
शफ़क़ के लिए निकला
कब किया उसने अंधेरों का भला


पुरुष गिद्द दृष्टि


ज़िन्दगी जीने की चाह
कुछ पाने की ख्वाहिश
आँखों के सुनहले सपने
इक नाम मुकाम की ज़िद्द
अटूट आत्मविश्वास
यही कुछ तो लेकर निकली थी
वो ख्वाहिशों के झोले में
किसी ने नहीं देखी
उसके सपने भरे आँखों की चमक
किसी को नज़र नहीं आया
उसका अटूट आत्मविश्वास
किसी ने नहीं नापी
उसकी लगन की अथाह गहराई
माने  भी नहीं किसी के लिए
उसकी भरसक मेहनत के
उसके चारों ओर फ़ैली हुई है
एक पुरुष गिद्द दृष्टि
जो मुक्त नहीं हो पा रही
आज भी उसकी देह के आकर्षण से
वो लड़ रही है लड़ाई
देह से मुक्त होने को


आशा पाण्डे ओझा 



  • जन्म स्थान ओसियां( जोधपुर )
  • पिता : श्री शिवचंद ओझा
  • माता :श्रीमति राम प्यारी ओझा
  • शिक्षा :एम .ए (हिंदी साहित्य ) एल एल .बी।
  • जय नारायण व्यास विश्व विद्यालया ,जोधपुर (राज .)
  • 'हिंदी कथा आलोचना में नवल किशोरे का योगदान में शोधरत
  • प्रकाशित कृतियां
  • 1. दो बूंद समुद्र के नाम 2. एक कोशिश रोशनी की ओर (काव्य )
  • 3. त्रिसुगंधि (सम्पादन ) "ज़र्रे -ज़र्रे में वो है " कविता संग्रह
  • शीघ्र प्रकाश्य
  • 1. वजूद की तलाश (संपादन ) 2. वक्त की शाख से ( काव्य ) 3. पांखी (हाइकु संग्रह )
  • देश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं व इ पत्रिकाओं में कविताएं ,मुक्तक ,ग़ज़ल ,क़तआत ,दोहा,हाइकु,कहानी , व्यंग समीक्षा ,आलेख ,निंबंध ,शोधपत्र निरंतर प्रकाशित
  • सम्मान -पुरस्कार
  • कवि तेज पुरस्कार जैसलमेर ,राजकुमारी रत्नावती पुरस्कार जैसलमेर ,महाराजा कृष्णचन्द्र जैन स्मृति सम्मान एवं पुरस्कार पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग (मेघालय ) साहित्य साधना समिति पाली एवं राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा अभिनंदन ,वीर दुर्गादास राठौड़ साहित्य सम्मान जोधपुर ,पांचवे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन ताशकंद में सहभागिता एवं सृजन श्री सम्मान ,प्रेस मित्र क्लब बीकानेर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,मारवाड़ी युवा मंच श्रीगंगानगर राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,साहित्य श्री सम्मान संत कवि सुंदरदास राष्ट्रीय सम्मान समारोह समिति भीलवाड़ा राजस्थान ,सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग मेघालय ,अंतराष्ट्रीय साहित्यकला मंच मुरादाबाद के सत्ताईसवें अंतराष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन काठमांडू नेपाल में सहभागिता एवं हरिशंकर पाण्डेय साहित्य भूषण सम्मान ,राजस्थान साहित्यकार परिषद कांकरोली राजस्थान द्वारा अभिनंदन ,श्री नर्मदेश्वर सन्यास आश्रम परमार्थ ट्रस्ट एवं सर्व धर्म मैत्री संघ अजमेर राजस्थान के संयुक्त तत्वावधान में अभी अभिनंदन ,राष्ट्रीय साहित्य कला एवं संस्कृति परिषद् हल्दीघाटी द्वारा काव्य शिरोमणि सम्मान ,राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर एवं साहित्य साधना समिति पाली राजस्थान द्वारा पुन: सितम्बर २०१३ में अभिनंदन
  • रूचि :लेखन,पठन,फोटोग्राफी,पेंटिंग,प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुवे घूमना-फिरना
  • संपर्क : 09772288424 /07597199995 /09414495867
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  • ब्लॉग ashapandeyojha.blogspot.com
  • पृष्ठ _आशा का आंगन एवं Asha pandey ojha _ sahityakar

रविवार, 29 जून 2014

कमलेश व्दिवेदी की ग़ज़लें



हमेशा रहता है..

मुस्कानों के साथ हमेशा रहता है।
दीवानों के साथ हमेशा रहता है।।

जिसके दिल में सिर्फ मुहब्बत रहती है।
अफसानों के साथ हमेशा रहता है।।

जो भी शमा सा लहराता-बलखाता है।
परवानों के साथ हमेशा रहता है।।

जिसको मस्ती रास हमेशा आती है।
मस्तानों के साथ हमेशा रहता है।।

दिलवालों संग कुछ दिन रहकर देख ज़रा।
धनवानों के साथ हमेशा रहता है।।


सच्चाई सच्चाई है..

आज मुकाबिल भाई है।
तब गीता याद आई है।।

अपनों से लड़ना होगा।
अपने हक़ की लड़ाई है।।

सच को सच वो माना नहीं।
मैंने क़सम भी खाई है।।

उसके संग सब लोग मगर।
मेरे साथ खुदाई है।।

जंग ये मैं ही जीतूंगा।
सच्चाई सच्चाई है।।

अखबार की समस्या..

है जीत की समस्या या हार की समस्या।
हमको न अब बताओ बेकार की समस्या।।

ये मान लो कि तुमसे कुछ भी नहीं मैं कहता।
होती अगर जो केवल दो-चार की समस्या।।

कछुआ भी रेस जीते जब वो चले निरन्तर।
हो लाख संग उसके रफ़्तार की समस्या।।

चुटकी में हल किये हैं मुश्किल सवाल उसने।
पर कैसे हल करे वो परिवार की समस्या।।

बीमार की दवाई में सब लगे हैं लेकिन।
कोई नहीं समझता बीमार की समस्या।।

हमसे हैं लाख बेहतर दरिया-हवा-परिंदे।
सरहद,न हद,न कोई दीवार की समस्या।।

हमको जो सच लगा है हमने वही लिखा है।
छापे-न छापे ये है अखबार की समस्या।।

मुहब्बत..

भोली सी नादान मुहब्बत।
पर ले सकती जान मुहब्बत।।

ताजमहल देखो तो लगता-
कितनी आलीशान मुहब्बत।।

कोई सोच नहीं सकता है-
क्या कर दे कुर्बान मुहब्बत।।

हर मजहब कहता-इन्सां का-
दीन-धरम-ईमान मुहब्बत।।

जो भी चाहे कर सकता है।
कितनी है आसान मुहब्बत।।

कल तक थी पहचान किसी से।
आज बनी पहचान मुहब्बत।।

थोड़े दिन भी साथ रहे तो।
समझो है मेहमान मुहब्बत।।

गम-खुशियाँ दो पालों में हैं।
दोनों के दरम्यान मुहब्बत।।

दुनिया से लड़ने का जज़्बा।
कितनी है बलवान मुहब्बत।।

सच पूछो तो इस धरती पर।
ईश्वर का वरदान मुहब्बत।।

चौपाइयों के साथ..

कोई रहे ज्यों भीड़ में तन्हाइयों के साथ।
रहता हूँ यों ही मैं भी मेरे भाइयों के साथ।।

ऊंचाइयों पे कितनी कहाँ आ गए हैं हम।
एहसास इसका होता है गहराइयों के साथ।।

उसकी हर एक बात पे हमको यकीन है।
वो बोलता है झूठ भी सच्चाइयों के साथ।।

गम की करो न फिक्र हैं खुशियां भी साथ ही।
जैसे मिलें पहाड़ हमें खाइयों के साथ।।

मैं लाख सोचूं फिर भी समझ पाता हूँ नहीं।
जीता है कैसे कोई भी परछाइयों के साथ।।

वो दोस्त है तो है भले ही चाहे जैसा हो।
मंज़ूर है अच्छाइयों-बुराइयों के साथ।।

दंगा कराया किसने पता ये नहीं मगर।
कुछ दिख रहे थे अपने भी दंगाइयों के साथ।।

अच्छी लगे जो बात तो मज़हब का फर्क क्या।
पढता है वो कुरान भी चौपाइयों के साथ।।

डॉ.कमलेश द्विवेदी

संपर्क:119/427 दर्शन पुरवा,कानपुर-208012 (उ.प्र.)
मो.09415474674,08081967020



  • संक्षिप्त परिचय

  • नाम: डॉ.कमलेश व्दिवेदी
  • जन्म तिथि:25 अगस्त 1960
  • साहित्य यात्रा:1984 से
  • सृजन:मुख्यतः हास्य-व्यंग्य रचनाएँ साथ ही गीत-ग़ज़ल एवं बालगीत भी
  • प्रकाशन:50 से अधिक स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन
  • प्रसारण:अखिल भारतीय कविसम्मेलनों-मुशायरों,दूरदर्शन,आकाशवाणी तथा निजी चैनलों से प्रसारण
  • विशेष:हिदी ग़ज़ल में विशिष्ट योगदान के लिए विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ (बिहार) से पी.एच.डी.की उपाधि
  • सम्मान:जिगर एकडेमी,चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट,भारतीय बाल कल्याण संस्थान,सुभाष चिल्ड्रेन सोसायटी,अखिल भारतीय मंचीय कवि परिषद,मानस संगम,रोटरी क्लब,लायंस क्लब,विकासिका सहित 50 से अधिक संस्थाओं  द्वारा सम्मानित
  • सम्प्रति:एडवोकेट
  • संपर्क:119/427 दर्शन पुरवा,कानपुर-208012 (उ.प्र.)
  • मो.09415474674,08081967020

शुक्रवार, 27 जून 2014

ज्योतिर्मई पन्त के चार हाइकु


(एक)


सूर्य व्यापारी
धरा से लेता वाष्प
लौटाता वर्षा .

 (दो)


ग्रीष्म का ताप
पिघलता है सोना
अमलतास .

(तीन)


मुँडेर कागा
अतिथि आगमन
गृहिणी चिंता .

(चार)


मेघ उमड़े
देख धरा की पीर
नीर छलके .
..

गुरुवार, 26 जून 2014

पुस्तक चर्चा: अवधेश सिंह का कविता संग्रह ‘छूना बस मन’



दुर्लभ होते प्रेम को सम्भव करते हुए प्रेम कविताओं का संग्रह

–दिविक रमेश

अवधेश सिंह ने जब जल्दी ही प्रकाशित होने जा रहे अपने कविता- संग्रह ’छूना बस मन’ की कविताएं देते हुए जब कहा कि ये प्रेम कविताएं हॆं तो मॆं थोड़ा चॊंका। उत्सुकता हुई कि देखूं कि इस भयावह, क्रूर ऒर अत्यधिक उठा-पटक वाले राजनीतिक परिवेश में कॆसे प्रेम बचा रह गया ऒर कॆसे इस कवि ने अपनी कविताओं में प्रेम को बचाना सम्भव किया।
ऎसा नहीं कि समकालीन कवियों में कविता में प्रेम बचाने की चिन्ता एक्दम गायब हो। अशोक वाजपेयी तो इसके लिए लगातार पॆरवी भी करते रहते हॆं। कुछ वर्षों पहले कवि अजित कुमार ने अच्छी प्रेम कविताएं दी थीं। लेकिन कोई युवा कवि आज के माहॊल में अपने पहला संग्रह प्रेम कविताओं का लेकर आए तो दोहरी प्रतिक्रियाएं एक साथ हो सकती हॆं।एक तो यह कि क्या यह कवि आज के जलते हुए परिवेश से अपरिचित हॆ ऒर दूसरी यह कि क्या यह कवि परिचित होने के बावजूद प्रेम की खोज को ही अपनी राह बनाना चाहता हॆ।
पाठक इस संग्रह में जहां कवि की प्रेम कविताएं पढ़ेंगे वहां प्रेम के संबंध में उनके विचारों को भी जान पाएंगे। कवि ने लिखा हॆ, “क्या प्रेम सॆक्स हॆ, कुछ पलों के लिए आत्मिक भूख को मिटाने जॆसा हॆ। कदाचित नहीं।
मॆं समझता हूं कि इन कविताओं की ताकत उनके सीधे-सच्चेपन में हॆं। न ये कृत्रिम हॆं ऒर न ही सजावटी।इतनी पकी भी नहीं हे कि उनमें से कच्चेपन की एकदम ताजा खुशबू गायब हो। प्यार की मासूमियत ऒर ललक यहां बरबर हिलोरे लेती हॆ:”तुम्हें देख लगा/ गजलों/ की मॆंने देखी/पहली किताब।” कवि की आस्था एक ऎसे प्यार में हॆ जो किसी भी स्थिति में शिकायत के दायरे में नहीं आता। सबूत के लिए ’स्वभाव’ कविता देखी जा सकती हॆ जिसमें प्रेमिका के द्वारा प्रेम को शब्दों न बांधने का कारण उसका नारी स्वभाव खोज लिया जाता हॆ।
अच्छा यह भी हॆ कि कवि की निगाह ने प्रेम को उसके एकांगी नहीं बल्कि विविध रूपों में पकड़ा हॆ। इसीलिए प्रेम में शर्त, शंका आदि की उपस्थिति को स्वीकार करते हुए नकारा गया हॆ।प्यार को अपनेपन या अपने की खोज का पर्याय माना हॆ।अत: असफल प्रेम कांटों का जंगल दिखता हॆ। सच तो यह हॆ कि यहां टूट कर प्यार करने की विविध अभिव्यक्तियां हॆं, ऒर उस प्यार के सपने भी हॆं। यहां कुछ कविताएं ऎसी भी हॆं जो प्रेम को उसके विस्तृत रूप में भी दिखाती हॆं।
प्रेम जब जिंदगी बन जाता हॆ तो जिंदगी का रहस्य भी खुद ब खुद खुलने लगा ता हॆ। कवि के हाथ तब ये पंक्तियां लगती हॆं:”तू ही तो हॆ/ कभी ना मिटने वाली प्यास/ तू बुद्ध हॆ, तू कबीर हॆ/ तू तुलसी हॆ, नानक हॆ,/पर तू हॆ/कोने में मुंह छिपाए बॆठा/एक बच्चा उदास/हां:जिसकी मुस्कुराहट में/मिलता हॆ तेरा एहसास।” ये पंक्तियां ’जिंदगी तेरा एहसास’ कविता से हॆं। प्रेम खत भी कवि की विशिष्ट कविता कही जा सकती हॆ ऒर विश्वाअस हॆ कि पाठक इसे सराहना के योग्य पाएंगे। कवि के पास सहज ऒर सक्षम भाषा हॆ।
लयात्मक्ता की पहचान हॆ। इस संग्रह में ’तुम चांद नहीं’, ’प्यार की अनुभूतियां’,अनुबंध’,प्रेम खत ऒर जिंदगी तेरा एहसास’,’बात’,’दरख्तों का दर्द’ जॆसी अनेक कविताएं हॆं जो कवि के उज्ज्वल भविष्य की अनुगूंज कही जा सकती हॆं। मेरी शुभकामनाएं।

रविवार, 22 जून 2014

अवधेश सिंह की कविताएँ..


प्रेम कविता


मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो



1.
दरअसल कविता शब्द दर शब्द अनुभूति का प्रवाह है
जिसे मैं कागज पर लिखता हूँ बस
कविता बनाना वैसा ही है जैसे मन को बनाना
बिना मन को तैयार किए कविता चल नहीं सकती
कलम कोरे कागज पर फिसल नहीं सकती
बेमन लिखी हुई कविता लंगड़ी –लूली अपंग हो
रचना मेरी बिना रूप रंग हो
यह तुम सह नहीं पाती हो
अर्धांगनी होने का रिश्ता निभाती हो
तुम ही तो मेरा मन बनाती हो
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।

2.
उम्र की आधी सदी के पार
लफ्जों से नहीं बल्कि इशारों में उमड़ता है प्यार
किचन के लिए मेरी पसंद - जरूरतों की फेहरिस्त बनाते हुए
मेरा सुझाव और सहयोग न पाकर
पावर के चश्मे से मुझे देखते हुए
जब तुम मुझ पर तनिक झुंझलाती हो
कागजों के छोटे टुकड़ों की छांट बीन में मुझको डूबा देख
होले से मुस्कराती हो और मेरा तनाव हल्का करने
आधा कप चाय का , मेरी टेबल पर रख जाती हो
तब तुम मेरे लिए बिना शब्दों की
गाढ़े प्यार की कविता बनाती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।

3.

दफ्तर जाते समय , जल्दी की हड़बड़ी में
मेरी कमीज की टूटी बटन टाँकने में
बेशक अब तुम्हारी अनुभवी उँगलियों को सुई न चुभती हो
लेकिन मेरे सीने को स्पर्श करती
तुम्हारी उँगलियाँ मीठा दर्द जगाती हैं
सुई तो पहले चुभ जाया करती थी
अब तो तुम्हारी उँगलियाँ ही चुभ जाती हैं
तुम बटन टाँकने में प्यार का पुराना एहसास जगाती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।

4.

उम्र के तीसरे पड़ाव पर
कदाचित शरीर में पहले जैसा कसाव न हो
बिंदास प्रेम का वह पहले वाला दिखाव न हो
फिर भी कश्मकश से दूर , चश्मेबद्दूर लगाव तो है
हमारे बीच ढीला न होने वाला
सदाबहार निभाने की प्रतिज्ञा के
आलिंगन से जकड़ा गंभीर कसाव तो है
रातों की शीतल चाँदनी ,
सुबह की सुनहली धूप
फूलों की महकती क्यारी, लान की नरम हरी भरी दूब
हमको आज भी लगती है सुहावनी – अनूप
प्रकृति से निरंतरता की अपनी आवाजाही
सभी को देती है
हमारे बीच पल रहे प्यार की गवाही
उनकी माने तो प्यार की मालिका सी
अब भी नजर आती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।

- अवधेश सिंह 

गुरुवार, 19 जून 2014

अंसार क़म्बरी की ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
















ज़िन्दा रहे तो हमको..

ज़िन्दा रहे तो हमको क़लन्दर कहा गया
सूली पे चढ़ गये तो पयम्बर कहा गया

ऐसा हमारे दौर में अक्सर कहा गया
पत्थर को मोम, मोम को पत्थर कहा गया

खुद अपनी पीठ ठोंक ली कुछ मिल गया अगर
जब कुछ नहीं मिला तो मुक़द्दर कहा गया

वैसे तो ये भी आम मकानों की तरह था
तुम साथ हो लिये तो इसे घर कहा गया

जिस रोज़ तेरी आँख ज़रा डबडबा गयी
क़तरे को उसी दिन से समन्दर कहा गया

जो रात छोड़ दिन में भी करता है रहज़नी
ऐसे सफेद पोश को रहबर कहा गया


तेरा आँचल जो..


तेरा आँचल जो ढल गया होता
रुख़ हवा का बदल गया होता

देख लेता जो तेरी एक झलक
चाँद का दम निकल गया होता

छू न पायी तेरा बदन वरना
धूप का हाथ जल गया होता

झील पर ख़ुद ही आ गए वरना
तुझको लेने कमल गया होता

मैं जो पीता शराब आँखों से
गिरते-गिरते सँभल गया होता

माँगते क्यूँ वो आईना मुझसे
मैं जो लेकर ग़ज़ल गया होता



हम कहाँ आ गये..


हम कहाँ आ गये आशियाँ छोड़कर
खिलखिलाती हुई बस्तियां छोड़कर

उम्र की एक मंजिल में हम रुक गये
बचपना बढ़ गया उँगलियाँ छोड़कर

नाख़ुदा ख़ुद ही आपस में लड़ने लगे
लोग जायें कहाँ कश्तियाँ छोड़कर

आज अख़बार में फिर पढ़ोगे वही
कल जो सूरज गया सुर्ख़ियाँ छोड़कर

लाख रोका गया पर चला ही गया
वक़्त यादों की परछाईयाँ छोड़कर


बह रही है जहाँ पर नदी..


बह रही है जहाँ पर नदी आजकल
जाने क्यूँ है वहीं तश्नगी आजकल

अपने काँधे पे अपनी सलीबे लिये
फिर रहा है हर एक आदमी आजकल

बोझ काँधों पे है, ख़ार राहों में हैं
आदमी की ये है ज़िन्दगी आजकल

पाँव दिन में जलें, रात में दिल जले
घूप से तेज़ है  चाँदनी आजकल

एक तुम ही नहीं हो मेरे पास बस
और कोई नहीं है कमी आजकल

अपना चेहरा दिखाये किसे ‘क़म्बरी’
आईना भी लगे अजनबी आजकल


कोई खिलता गुलाब क्या जाने..


कोई खिलता गुलाब क्या जाने
आ गया कब शबाब क्या जाने

गर्मिये-हुस्न की लताफ़त को
तेरे रुख़ का नक़ाब क्या जाने

इस क़दर मैं नशे में डूबा हूँ
जामो-मीना शराब क्या जाने

लोग जीते हैं कैसे बस्ती में
इस शहर का  नवाब क्या जाने

ए.सी. कमरों में बैठने वाले
गर्मिए-आफ़ताब क्या जाने

नींद में ख़्वाब देखने वाले
जागी आँखों के ख़्वाब क्या जाने

जिसको अल्लाह पर यकीन नहीं
वो सवाबो-अज़ाब क्या जाने

अंसार क़म्बरी

-‘ज़फ़र मंजिल’ ११/११६,
ग्वालटोली, कानपूर–२०८००१
मो - ९४५०९३८६२९