कमला कृति

रविवार, 28 सितंबर 2014

कृष्णानंद चौबे की ग़ज़लें



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


अपने मुक़द्दर में नहीं..


मंदिरों में आप मन चाहे भजन गाया करें
मैकदा ये है यहाँ तहज़ीब से आया करें

रात की ये रौनकें अपने मुक़द्दर में नहीं
शाम होते ही हम अपने घर चले आया करें

साथ जब देता नहीं साया अँधेरे में कभी
रौशनी में ऐसी शय से क्यूँ न घबराया करें

बन्द रहते हैं जो अक्सर आम लोगो के लिये
अपने घर में ऐसे दरवाज़े न लगवाया करें

ये हिदायत एक दिन आयेगी हर स्कूल में
मुल्क की तस्वीर बच्चों को न दिखलाया करें

क्यूँ नहीं आता है इन तूफ़ानी लहरों को शऊर
कम से कम कागज़ की नावों से न टकराया करें


सफ़र डूब रहा है..


दुनिया की ले के खैर-ख़बर डूब रहा है
तय कर लिया सूरज ने सफ़र डूब रहा है

हम मंदिरों-मस्जिद को बचाने में लगे हैं
घर की है नहीं फ़िक्र के घर डूब रहा है

मँझधार में नेता जो दिखा, लोग ये बोले
अच्छा है अजी डूबे अगर डूब रहा है

उस डूबने वाले के मुक़द्दर को कहें क्या
तिनके का सहारा है मगर डूब रहा है

तस्वीर बनाते हैं जो कपड़ों के बिना ही
उन काँपते हाथों से हुनर डूब रहा है


ख़ुशी भी नहीं..


हनारे चेहरे पे ग़म भी नहीं ख़ुशी भी नहीं
अँधेरा पूरा नहीं पूरी रौशनी भी नहीं

है दुश्मनों से कोई ख़ास दुश्मनी भी नहीं
जो दोस्त अपने हैं उनसे कभी बनी भी नहीं

मैं कैसे तोड़ दूँ दुनिया से सारे रिश्तों को
अभी तो पूरी तरह उससे लौ लगी भी नहीं

अजीब रुख़ से वो बातों को मोड़ देता है
कि जैसे बात ग़लत भी नहीं, सही भी नहीं

तुम्हारे पास हक़ीक़त में इक समन्दर है
हमारे ख्व़ाब में छोटी-सी इक नदी भी नहीं

कोई बताये ख़ुशी किसके साथ रहती है
हमें तो एक ज़माने से वो दिखी भी नहीं

लो फिर से आ गये बस्ती को फूँकने के लिये
अभी तो पहले लगाई हुई बुझी भी नहीं

अजीब बात है दीपावली के अवसर पर
करोड़ो बच्चों के हाथों में फुलझड़ी भी नहीं


तुम्हारा नाम आया रात भर..


पूछिये मत क्यों नहीं आराम आया रात भर
उनके आने का ख़याले-ख़ाम आया रात भर

और लोगो की कहानी सुन के मैं करता भी क्या
मेरा अफ़साना ही मेरे काम आया रात भर

याद करने को ज़माने भर के ग़म भी कम न थे
भूलने को बस तुम्हारा नाम आया रात भर

मयकदे से तश्नालब लौटे थे शायद इसलिये
ख्व़ाब में रह-रह के ख़ाली जाम आया रात भर

देखना है अब कहाँ रह पायेगी तौबा मेरी
मेरे ख़्वाबों में उमरख़य्याम आया रात भर

वक़्त कम है काम काफ़ी दोस्तो कुछ तो करो
उम्र के ख़ेमे से ये पैग़ाम आया रात भर


ख़ुद पर तो एतबार आये..


क्या ये मुमकिन नहीं भार आये
और आये तो बार-बार आये

आप पर एतबार कर तो लूँ
पहले ख़ुद पर तो एतबार आये

जिसने मुझको दिये थे ग़म ही ग़म
अपनी ख़ुशियाँ उसी पे वार आये

चार दिन की ये ज़िन्दगी का लिबास
कुछ ने पहना है, कुछ उतार आये

बेवफ़ा होंगे वो किसी के लिये
मुझसे मिलने तो बार-बार आये

ख्व़ाब को ख्व़ाब की तरह देखो
फूल आये ये उसमे ख़ार आये


बुधवार, 24 सितंबर 2014

डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' की दो कविताएं



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


एक गांव 



बिहड़ गांव है ये
रेल की पटड़ियां ले आई यहां मुझे,

बीहड़ घना जंगल फैला है आस-पास इसके
कितना हरा-भरा सम्मोहन
समृद्ध भरा पूरा जंगल
सम्पन्न गहराया जंगल
फला-फूला विशाल
बरगदी डालों,
चौड़े पत्तों घने पेड़ों से
हहराता जंगल
अन्ततः अपनी अन्तः गहराइयों तक
फैली बीहड़ता से जूझता जंगल,
हरियाली ने घनत्व फैलाते समो लिया था जाने कब
भय से भरा अन्तहीन दबा खजाना।
पाल लिए थे कितने
हिंस्र सुरक्षा-गार्ड
जो बनैले पशु बन घूम रहे हैं स्वच्छन्द
बिहरगांव की बीहड़ हरियाली में,
बने जा रहे अब
जन-अस्तित्व को ही ख़तरा इक,
अपनी दीर्घ यात्रा पर निकले बटोही
बिहरगांव से गुजर ले जाएगी
रेल तुझे अपनी मंजिल पर
कुछ पल इस हरे-भरे जंगली सम्मोहन से
छुड़ा के आँचल चलना होगा,
बीहड़ में बहती गहन-संवलाई नदी पार कर
अगली राह बढ़ना होगा
बिना रुके ही चलना होगा
उत्तर दिशा की ओर
फूटती है जहाँ अजस्र धारा
काट भूरे-मटमैले पहाड़
निर्मल बहती कल-कल करती।


सत्यं शिवं सुदरम् 


ऐ भुजंगधारी!
सुन नीलकण्ठ!!
शिवरूप सृष्टि तेरी निशि दिन
घूँट  ज़हर के पीने की मजबूरी में हैं
पड़ी यहाँ
कैसे बोलें, हैं रूंधे गले
कंकाल बने नर धरा पुत्र के
रोम रोम में फैले उसके विष को  
ऐ विषपायी, आकर पीले,
मुमकिन है तब
श्रम घिसता-पिसता पीड़ित जन
कुछ क्षण को तो अपना
नितान्त अपना जीवन जी ले।

ऐ महाकाल!
सुर-असुर समर के कर्णधार!
त्रिनेत्र खोल,
व्यापक दृग दृष्टि इधर डाल!
धरती पर पड़ी बड़ी दरारें पाट ज़रा
झपटा-झपटी की नीति में
ब्रह्मास्त्रों-से ये प्रक्षेपास्त्र
छूटें न कहीं
आघातों से टुकड़े-टुकड़े हो
बिखर न जाए विश्व कहीं,
यह ब्रह्म बना अदना मानव
चीन्दा-चीन्दा हो कर
विलीन हो जाएगा
ऐ महादेव!
सुन्दर स्वरूप, अखण्ड पुरूष,
तब खण्ड-खण्ड हो जाएगा।
करूणा स्वरूप!
तू जाग आज
समाधि त्याग कर देख ज़रा,
धरती पर पड़ी बड़ी दरारें पाट ज़रा!

हे विश्वेश्वर, नटराज!
आज के पर्यावरण की सुन चीखें,
जीवनधारा कल-कल नदियां
कलुषित होती,
वन-थली लुटी
मरूथल बन तपती मूक धरा
द्रोपदी-सी विवश खड़ी अचला
क्षत-विक्षत आँचल पसार
मांगे गंगाजल की शुचिता,
ताण्डव कर भस्म करो
अब तो भस्मासुर को,
जो शिव स्वरूप इस सृष्टि को
अपने स्वार्थ हित छलता है
अपने सुख स्वर्ग बनाने को जो
यहाँ रौरव नरक बनाता है।

ऐ समदर्शी त्रिनेत्रधारी!
अपने त्रिनेत्र की ज्वाला को
जन-जन में प्रज्जवलित कर दो
जो भस्म करें उस वहशी को,
फैला दो क्रोधाग्नि प्रचण्ड
ताण्डव पद-तल में रौंद-रौंद
भस्मासुर भस्मीभूत करो।

ऐ निर्निमेष महेश प्रभु!
जग में फैले विष-कण्टक को
त्रिशूलधारी चुन-चुन बेंधो!
ऐ आशुतोष, गंगाधारी!
खोलो अब जटाजूट खोलो
जन-जन में हर हर हर बोलो
मन-मानस में अमृत घोलो
शिवशक्ति से सत्य स्थापित हो
कण-कण में सौन्दर्य भर दो।


शनिवार, 20 सितंबर 2014

दो कविताएं-पुष्पराज चसवाल



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

जीवन-ज्योति 


आओ
हम उन्हें
एक और ज़िन्दगी की
राह दिखाएँ
उन्हें
जो जीने के रास्ते
भूल चुके हैं या
बंद समझ चुके हैं,
आओ
हम उन्हें
बताने की कोशिश करें
जीवन-ज्योति
क्रिश्चन कैलेंडर में
या
विक्रमी संवत में
क़ैद, मापदंड नहीं
जीवन-ज्योति
अखंड ज्योति है
सहस्र सूर्यों से परे
क्षितिज की सभी
सीमाओं के पार
अलौकिक नृत्य में
मगन, पार
मानवीय पकड़ के।


दिशा-ज्ञान 


ओ धरा के जीव,
युगों से बनकर व्योम-पक्षी
व्योम-फूल से बातें करते -
थके नहीं हो क्या?

आदिकाल से
अंतकाल तक
विचरते
एक छोर से
सहस्र छोर तक भटकते
है कौन
चिरंतन सत्य
या विलक्षण सत्ता
तुमने जाना?

खो जाने में,
जो मिलता है -
देख चुके हो!
पा जाने में,
क्या मिलता है-
कैसे जानो?

मानव हो तुम,
मानवी है धरा।
लिए कर में -
अमृत-कलश,
कब से तुम्हें पुकारती
अंतरंग निहारती,
पालकी सजी-सजी,
आ रही पहचान-सी,
भ्रम को छोड़ो!
लौट भी आओ
इस धरती से
नाता जोड़ो।
युगों से जिसको
ढूंढ रहे हो,
पा जाओगे
क्षण भर में ही,
वह अमरत्व -
वह दुर्लभ जीवन रस।


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

दो कविताएं-शशि पुरवार



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


अंतर्मन


अंतर्मन एक ऐसा बंद  घर
जिसके अन्दर रहती है
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक
घुटन भरी साँसे
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल ।
झरोखे की झिरी से आती हुई
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है
इन दबी हुई सिसकती
बेड़ियों  के बंधन को ,
सुलगती हुई तड़प
लावा बनकर फूटना चाहती है
बदलना चाहती है,उस
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की
सूखती नदी है
वहाँ हर बार वह रोप देती है
आशा के कुछ बिरबे ,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो  बंद  दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा
और अंतर्मन के घर में होंगी
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियां
नए शब्दों की महकती व्यंजना
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना .


सुलग रहे थे ख्वाब


सुलग रहे थे ख्वाब
वक़्त की
दहलीज पर
और
लम्हा लम्हा
बीत रहा था पल
काले धुएं के
बादल में।
सीली सी यादें
नदी बन बह गयी ,
छोड़ गयी
दरख्तों को
राह में
निपट अकेला।
फिर
कभी तो चलेगी
पुरवाई
बजेगा
निर्झर संगीत
इसी चाहत में
बीत जाती है सदियाँ
और
रह जाते है निशान
अतीत के पन्नो में।
क्यूँ
सिमटे हुए पल
मचलते है
जीवंत होने की
चाह में।
न कोई  ठोर
न ठिकाना

न तारतम्य
आने वाले कल से।
फिर भी
दबी है चिंगारी
बुझी हुई राख में।
अंततः
बदल जाते है
आवरण,
पर

नहीं बदलते
कर्मठ ख्वाब,
कभी तो होगा
जीर्ण युग का अंत
और एक
नया आगाज।


शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

बृजेश नीरज की दो कविताएं



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


तीन शब्द


जरूरत है
कुछ नए शब्दों की

ढूँढ़ रहा हूँ
लेकिन बाज़ार बंद हैं
कुछ अधखुले पल्लों से/ झाँकती
आँखें घूरती हैं
दुकानों की मरम्मत चल रही है

लिजलिजाती देह की गंध
फिर-फिरकर मुझ तक आती है
नथुने भर गए हैं

आँखें दूर तक टटोलती हैं
आसमान चुप है
हवा खामोश
हर तरफ सन्नाटा
सूरज की तपती किरणों में
पिघलती सड़क
कुछ दूर जाती है
फिर लौट आती है
मुझ तक

मैं निरीह देख रहा हूँ
इन अट्टालिकाओं को मुस्कुराते

मैंने नदी से माँगे नए शब्द
पर नदी तो बेबस थी
बाँध से टकराकर लहरें टूट गईं
मैंने पेड़ से चाहा
पर वह तो बसंत के पहले से
ठूँठ होता खड़ा है
खेत से माँगी
सावन के बाद नई फसल
लेकिन बादल घुमड़कर लौट गए

घूम-फिरकर वही-वही शब्द

आँखें बंद कर लूँ तो
प्रतिध्वनियाँ गूँजती हैं
निरुपाय सा उन्हीं शब्दों को
उनकी ध्वनियों, प्रतिध्वनियों को
काँधे पर लादे बढ़ रहा हूँ
क्षितिज की ओर
लेकिन वह भी
इन शब्दों की गंध से
बचने की कोशिश में
खिसकता जाता है
दूर और दूर

वो तीन शब्द
आदमी, पेट, भूख
जाने कब तक लदे रहेंगे
मेरे कंधे पर


गंध


दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का भी योगदान है

गंध भी होती है पसीने में

हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर

धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी

सोमवार, 8 सितंबर 2014

धीरज श्रीवास्तव के दो गीत



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



सारा है उल्लास तुम्ही से..



मन का है विश्वास तुम्हीँ से!
मेरी जीवित आस तुम्ही से!

मुझ पर हो उपकार सरीखी
अम्मा के व्यवहार सरीखी
दीप तुम्ही हो दीवाली की
होली के त्यौहार सरीखी
सारा है उल्लास तुम्ही से!

फूलोँ के आकार सरीखी
लगती हो गुलनार सरीखी
उपवन की सब खुश्बू तुममेँ
तुम जूही कचनार सरीखी
सारा है मधुमास तुम्ही से!

सब यारोँ के यार सरीखी
तुम ताजे अखबार सरीखी
शीतल मंद हवाओँ सी तुम
सावन की बौछार सरीखी
मिटती है हर प्यास तुम्हीँ से!

सीता के परिहार सरीखी
गीता के उद्गार सरीखी
निर्भर मेरी दुनिया तुम पर
दिल की हो आधार सरीखी
होठोँ का है हास तुम्ही से!

ईश्वर के उपहार सरीखी
नइया की पतवार सरीखी
प्रेरक हो इन प्राणोँ की तुम
जीवन का हो सार सरीखी
मेरी हर इक साँस तुम्हीँ से!



वक्त गया सब लील..


रामपाल अब नहीँ लगाता
है कुर्ते मेँ नील!
उसकी खुशियाँ उसके सपने
वक्त गया सब लील!

बिन पानी के मछली जैसे
तड़प रहा वह आज!
बिटिया अपनी व्याहे कैसे
और बचाये लाज!
संघर्षो मेँ सूख चली है
आँखोँ की भी झील।

शहर दिखाये ले जाकर तो
दो हजार होँ पास!
संगी साथी कौन दे रहा
नहीँ किसी से आस!
ठोक रही बीमारी माँ की
छाती मेँ बस कील।

कर्म भाग्य का नही संतुलन
बनी गरीबी गाज!
देखे जो लाचारी इसकी
ताक लगाये बाज!
व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर
खाँस खाँस कर चील।

फिर भी हिम्मत क्योँ हारे वो
जीना है हर हाल!
पटरी पर ला देगा गाड़ी
आते आते साल!
रोज रोज आशाएँ दौड़ेँ
जाने कितने मील।

संपर्क-

ए-259 संचार विहार कालोनी,
आई.टी.आई मनकापुर, गोण्डा (उ.प्र)
पिन - 271308
फोन -08858001681


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

कल्पना मिश्रा बाजपेई की दो कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


तुम्हारा पहला प्यार


सरिता के दोनों तटों को सहलाता कल-कल करता –
अबाध गति सा बह रहा था हमारा प्यार।
वसंती हवा की मदिर सुगंध लिए उन्मुक्त-
सी थी हमारी मुस्कान,
धुले उजले बादलों में छुपती-छुपाती –
इंद्र्धनुष जैसी थी हमारी उड़ान ।
हवा के झौंके ने सरकाया था दुपट्टा मुख से-
तुम अपलक निहारते रहते,
बस तुम ही हो मेरा पहला प्यार-
धीरे से मधुर शब्दों में कहते ।
आखिर वो सलौना सा दिन आ ही गया,
जिस का हम दोनों को था वर्षों से इंतजार ।
चाँद तारे साक्ष्य बन कर आए थे बारात,
ढ़ोल मंजीरे सहनाई ले कर आई-
फेरों वाली मनभावन सुंदर रात ।
अब मैं धड़कती थी तुम्हारी साँसों में,
सांसें लेती थी सुगंध बन कर-
तुम्हारी ही साँसों में।
तुम मुझ को लगते स्वच्छ नीला आकाश-
उसमें अठखेलियाँ करती मैं पूनम का चाँद।
जब मैं चमकती मोती बन तुम्हारी-
सिप्पी जैसी आँखों में,
तुम कहते, अब तुम बन गई हो-
मेरी सुंदर पहचान।
ढेरों कसौटियों पर तुम ने कसा था,
पूर्ण आश्वस्त हो खरा सोना कहा था ।
फिर न जाने एक घटना घाटी,
मेरा प्रतीक्षा करना तुम्हारी ऊब बन गई ,
खोखली लागने लगी मेरी मनुहार और –
अमावस्या की रात सा मेरा एक निष्ठ प्यार।
कौए के घौसले में कोयल के बच्चे सी-
सहमी मेरी अपनी एकाकी पीड़ा
हृदय पर किया हो किसी ने –
गहरा आघात,
कैसे पूँछूं उनसे, उनके दिल की बात।
पर पूछना चाहती हूँ मैं बार-बार,
कहो न साथी, मितवा,
यही था तुम्हारा पहला प्यार



जिंदगी 


ज़िंदगी कसौटियों पर कस कर
निखरती सी गई
जितनी ये तबाह हुई
उतनी संभरती सी गई
आदमियत और गद्दारी में आकर
घुलती सी गई
कभी ये राम,रहीम ,नानक
में बँटती सी गई
कभी ये सुरमई शामों में वीणाकी तरह
बजती सी गई
कभी बेगानों की तरह
कटती सी गई
कभी वादे कभी शोषण में
फँसती सी गई
कभी ये सारे बंधन तोड़ कर
बेदाग सी लगी
कभी ये अंगारों पर चल कर
दहकती सी लगी
कभी ये डगमगाते दीपक
जैसे बुझती सी लगी
कभी ये सुनहरे तारों से बने
पिंजड़े सी लगी
कभी उसमें फंसा पाखी
जैसी बेबस सी लगी
ये ज़िंदगी तेरी एक -एक कठिनाई
मुझे कोहनूर सी लगी
जड़ाया जब उसे अंगूठी में
तो नगीने जैसी लगी
ये ज़िंदगी तू  पात -पात हर डाल-डाल
पर लिखी सी लगी
खग ,विहग,पखेरू के
कंठ में गीत सी लगी
कभी तू महकती चमेली
के फूलों सी लगी
कभी -कभी ये ज़िंदगी
बेरंग गंधहीन सी लगी
जितना कहूँ तेरे लिए
वो कम है क्योंकि
तू हर एक पल
पहेली सी लगी ।