चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
रेत के घर हो गये हैं हम..
रेत के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस क्षण हमें ढहना पड़े
सब्र के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कितने युगों दहना पड़े
मोम होकर
पीर पिघली है
या कि सांसें हो गई ठंडी
रात की आवाज़
कातिल है
जागती है जबकि पगडंडी
नीर के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस छोर तक बहना पड़े
बंद आँखों में
शहर वीरान
दीप की लौ क्या करे बोलो
हो गये झूठे
सभी अनुमान
सूर्यवंशी मुट्ठियाँ खोलो
भूख के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब क्या हमें सहना पड़े
इं दिनों तूफान को ओढ़े
बाँसुरी का गीत पागल है
हर पहर चिंगारियां
छोड़े
क्या यही हर बात का हाल है
धूप के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब आग में रहना पड़े
शाम-सुबह महकी हुई..
शाम-सुबह महकी हुई
देह बहुत बहकी हुई
ऐसा रूप कि
बंजर-सा मन
चन्दन-चन्दन हो गया
रोम-रोम सपना संवरा
पोर-पोर जीवन निखरा
अधरों की तृष्णा धोने
बूँद-बूँद जलधर बिखरा
परिमल पल होने लगे
प्राण कहीं खोने लगे
ऐसा रूप कि
पतझर-सा मन
सावन-सावन हो गया
दूर हुई तनहाइयाँ
गमक उठी अमराइयां
घाटी में झरने उतरे
गले मिली परछाइयाँ
फूलों-सा खिलता हुआ
लहरों-सा हिलता हुआ
ऐसा रूप कि
खण्डहर सा मन
मधुवन–मधुवन हो गया
डूबें भी, उतरायें भी
खिलें और कुम्हलायें भी
घुलें-मिलें तो कभी-कभी
मिलने में शरमायें भी
नील वरन गहराइयाँ
साँसों में शहनाईयां
ऐसा रूप कि
सरवर-सा मन
दर्पण-दर्पण हो गया
नदी के तीर पर..
नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती
हवा को हो गया क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं
घरों में गूजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं
धुएं के शीर्ष पर
ठहरे
धुएं के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती
नकाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती
कहाँ मन्दिर, कहाँ गिरजा
कहाँ चैतन्य की आभा
कहाँ नानक, कहाँ कबिरा
कहाँ खोया हुआ काबा
अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुजरे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती
गीत हम गाते नहीं तो..
गीत
हम गाते नहीं तो
कौन गाता?
ये पटरियाँ
ये धुआँ
उस पर अंधेरे रास्ते
तुम चले आओ
यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते
गीत!
हम आते नहीं तो
कौन आता?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से
गीत
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?
प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्योहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी
गीत
हम पाते नहीं तो
कौन पाता?
हमारी देह का तपना..
हमारी देह का तपना
तुम्हारी धूप क्या जाने
बहुत गहरे नहीं सम्बन्ध होते
रंक राजा के
न रौंदें गाँव की मिट्टी
किसी के बूट आ-जा के
हमारे गाँव का सपना
तुम्हारा भूप क्या जाने
नशें में है बहुत ज्यादा
अमीरी आपकी कमसिन
गरीबी मौन है फिर भी
उजाड़ी जा रही दिन-दिन
तुम्हारी प्यास का बढ़ना
तुम्हारा कूप क्या जाने
हमारे दर्द गूगे हैं
तुम्हारे कान बहरे हैं
तुम्हारा हास्य सतही है
हम्रारे घाव गहरे हैं
हमारी भूख का उठना
तुम्हारा सूप क्या जाने
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विनोद श्रीवास्तव
- जन्म-2 जनवरी, 1955 (कानपुर)
- पिता-श्री शिव कुमार श्रीवास्तव
- माता-श्रीमती शांती देवी श्रीवास्तव
- शिक्षा-एम.ए. अर्थशास्त्र/ हिन्दी साहित्य।
- प्रकाशित कृतियाँ-भीड़ में बांसुरी और अक्षरों की कोख (गीत संग्रह)।
- प्रकाशन-देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में गीतों का प्रकाशन। अनेक गीत संचयनों में सहभागिता। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से काव्य-पाठ।
- सम्प्रति-उत्तर प्रदेश राज्य कताई कंपनी, कानपुर से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के दैनिक जागरण के साहित्यिक पृष्ठ और अर्द्धवार्षिक पत्रिका 'पुनर्नवा' से संबद्ध एवं जागरण समूह की लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी, कानपुर में प्रबंधक।
परिक्रमा-भाषा : राष्ट्रीयता, समन्वय और समरसता’ पर व्याख्यान संपन्न
ये विचार प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने कर्नाटक विश्वविद्यालय में विभिन्न भाषा-साहित्य और कला विषयों के प्राध्यापकों को संबोधित करते हुए प्रकट किए। वे विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केंद्र (धारवाड़) में संपन्न पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के तहत “भाषा : राष्ट्रीयता, समन्वय और समरसता” विषय पर दो-सत्रीय व्याख्यानमाला में बोल रहे थे। कार्यक्रम में कर्नाटक के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए 65 प्राध्यापकों ने भाग लिया। डॉ. साहिबहुसैन जहगीरदार के धन्यवाद के साथ व्याख्यानमाला का समापन हुआ।
प्रस्तुति: डॉ गुर्रामकोंडा नीरजा
सह संपादक 'स्रवंति'
असिस्टेंट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद - 500004
असिस्टेंट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद - 500004
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छत्तीसगढ़ी उपन्यास ‘मोर दुलरुआ’ और बड़का दाई’ लोकार्पित
केंद्रीय हिंदी संस्थान (मैसूर) के व्याख्यान कक्ष में संपन्न क्षेत्रीय निदेशक डॉ. राम निवास साहू के सेवा निवृत्ति समारोह के अवसर पर उनकी दो छत्तीसगढ़ी पुस्तकों 'मोर दुलरुआ' (जीवनीपरक उपन्यास) और 'बड़का दाई' (अनुवाद : डॉ. गीता शर्मा) का लोकार्पण किया गया। अध्यक्षता मैसूर विश्वविद्यालय की प्रो. प्रतिभा मुदलियार ने की। बतौर मुख्य अतिथि लोकार्पण प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने किया। एनसीईआरटी के डॉ. सर्वेश मौर्य और केंद्रीय हिंदी संस्थान के डॉ. परमान सिंह ने लोकार्पित पुस्तकों की समीक्षा प्रस्तुत की। वल्लभविद्यानगर से पधारे डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र तथा हैदराबाद से पधारे चंद्रप्रताप सिंह ने शुभाशंसा व्यक्त की। इस अवसर पर आशा रानी साहू, शशिकांत साहू, श्रीकांत साहू और श्रीदेवी साहू ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। नराकास-मैसूर के प्रतिनिधियों के अलावा डॉ साहू के गृहनगर कोरबी-छत्तीसगढ़ से आए समूह के सदस्यों ने भी उत्साहपूर्वक भागीदारी निबाही।
विनोद जी, आपकी ये कविताएं आपके संवेदनशील चिंतनशील मन व ह्रदय का आईना है। बहुत सुन्दर रचनाएं।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद रवींद्र जी पोस्ट पर उपस्थिति और सुंदर प्रतिक्रिया के लिए!
हटाएंबहुत ही सुन्दर आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक धन्यवाद अनिता जी..
हटाएंहार्दिक आभार मयंक जी..
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