कमला कृति

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

नदी​ एवं अन्य कविताएं-वंदना सहाय


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


नदी


नहीं याद है 
नदी को अपना जन्म 
या कब से उसने बहना शुरू किया था

वह कोई बर्फीली चट्टान थी 
जिसने पिघल कर उसे जन्म दिया

फिर वह उतर आई 
उस ऊँची चट्टान को छोड़ 
नीचे मैदानों में

और बहना शुरू किया 
दो किनारों के बीच, निरन्तर
अब बहना ही उसका जीवन था 
चट्टान का वात्सल्य पिघल 
उसे बनता रहा एक सशक्त नदी 
और वह अविरल प्रवहमान होती रही 

अपने तेज वेग के कारण 
कभी ठीक से देख न पाई वह 
उस ममतामयी चेहरे को 

वह बहती रही बरसों 
और जीती रही दूसरों के लिए 
कर उपकार उन पर 

बरसों बहने के बाद वह सिमट गई 
और हो गई वेगहीन तथा कृशकाय 

उसकी थकी पलकें जब खुली, तो उसने देखा-
हिममण्डित वह चट्टान खंडित हो 
मिट्टी में मिल चुकी थी

और लोग धरती का चीर सीना 
मिट्टी में बीज बो रहे थे


समय की थपकियाँ


मोतियाबिंद से हो आईं हैं आँखें धुंधली
उसे याद आने लगती हैं वे थपकियाँ-
जो समय दिया करता था उसकी पीठ पर 
अपने कोमल हाथों से उसे सुलाने के लिए 
जब वह छोटी थी 
उन थपकियों से वह सो जाया करती थी 
तुरंत ही, चुपचाप गहरी नींद में

उसके बड़े होते ही कठोर-से लगने लगे वे हाथ
अब उन थपकियों से नहीं आती नींद 
उसे घेरने लगतीं हैं अनन्त चिंताएँ
जैसे बिन बुलाए भी दे जाता है डाकिया 
कोई दुःख भरी पाती

वह पढ़ने लगी है माँ की यादों में जाकर 
उसके चेहरे पर पड़ी आशंकाओं की लकीरों को 
समझने लगी है
जागती आँखों और दुखते घुटनों का युगल-बंधन 
पहचानने लगी है 
माँ की फीकी मुस्कान और उसके चिर थकान को

वह रोज़ थोड़ा-सा दौड़ लेती है 
समय के साथ 

पर एक दिन जब वह 
खड़ी हो आइने के सामने 
केश सुलझाने बैठी 
तो आइने में उसने अपनी माँ को 
रजत केश फैलाए देखा 


मौन कलरव


सुना है 
छोड़ दिया है चिड़ियों ने
बेफ़िक्र हो चहचहाना 
गाँवों के पेड़ों की शाखों पर भी
यहाँ पहले इन चिड़ियों की चहचहाहट को 
पहचानते थे ये लोग

लेकिन अब पहचानने लगीं हैं चिड़ियाँ-
लोगों की आवाज़ें, उनकी बोलियाँ 
कब उनका रुख बदलता है 
कब बदलते हैं उनके इरादे 
और, कब भोंकेंगे वे पीठ में छुरा

वे चुपचाप सुनतीं है, उनकी ग़ुफ़्तगू 
गाँवों को शहरों में बदलने का कुप्रयास 
मीत पेड़ों के काटे जाने का षड़्यंत्र

और पेड़ों के काटे जाने पर 
निकल आती है, आह 
जो कर देता है 
उनके कलरव को 
मौन


इंतज़ार- सुबह के उजाले का


नहीं हुआ है 
इस छोटे-से क़सबे में 
कोई आंतकवादी हमला

और ना ही है यहाँ कोई शीत-युद्ध 
गोरों और कालों के बीच

न्यूक्लियर हमले का भी कोई डर नहीं

पर, फिर भी वह डरती है 
अपने पति के स्वर्गवासी 
और बेटे के प्रवासी होने के बाद 

रात का सन्नाटा उसे डराता है 
लगते हैं आवारागर्द कुत्ते, उसे दहशतगर्द

मौन पड़ी, टूटी पीली पत्तियों की चरमराहट 
जब तोड़ ख़ामोशियों को 
जन्म देतीं है, सरगोशियों को 
तो उसका मन भर उठता है आशंकाओं से

पेड़ों की हिलती परछाइयाँ भी 
धर लेती हैं आदमवेश
उसे लगता है- जैसे कोई कर रहा हो 
उसके क़त्ल की साजिश

नीरवता और हवा के थपेड़ों से जूझता 
छोटा-सा एक बल्ब 
बन जाता है उसका रहनुमा 
और बंद दरवाज़ा उसका प्रहरी

वह तकिए के नीचे रखे टॉर्च को छूकर
भींच लेती है हाथों में विष्णुसहस्त्रनामावली

फिर आँखों में क़ैद कर लेती है 
भवसागर पार कराने वाले की तस्वीर 
और इंतज़ार करने लगती है-
सुबह के उजाले का


बिना टैग का


नहीं है कोई सज़ा
इस समाज में 
उनके लिए 
जब कोई इन्हें कहता है 'किन्नर '

या फिर, 'अरे वही, औरत और मर्द के बीच का'
या फिर 'थर्ड जेंडर'
सही है,
कहने वाला नहीं करता है कोई चोरी 
या फिर किसी की हत्या 
या बलात्कार

पर, ऐसा कहने वाला शायद ही कभी सोचता है 
कि उनका ऐसा कहना 
कर जाता है चोरी, इनके स्वाभिमान की 
हत्या, इनके अरमानों की और 
बलात्कार इनके व्यक्तित्व का
और इनकी गूँगी फरियाद
एक बार फिर ऊपर वाले से पूछती है- 
क्यों भूल गए लगाना टैग 
हमें औरत या मर्द होने का? 



वंदना सहाय



  • जन्म: 29 नवंबर
  • शिक्षा: बी. एस. सी (प्राणी-शास्त्र - ऑनर्स ), एम. एस. सी (प्राणी-शास्त्र)
  • सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन
  • विधाएं-कविताएँ, लघुकथाएँ, हाइकू, कहानियाँ, क्षणिकाएँ, ग़ज़लें, बाल साहित्य, व्यंग्य आदि का अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन, हिंदी के साथ अंग्रेज़ी में भी लेखन
  • संपर्क: 613, सुंदरम–2C,रहेजा काम्प्लेक्स, टाइम्स ऑफ़ इंडिया बिल्डिंग के निकट, मलाड (ईस्ट),मुंबई-400097 (महाराष्ट्र)
  • दूरभाष-022-28403178/09325887111,09325263178