कमला कृति

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

वीरेन्द्र खरे 'अकेला' की ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



(एक)


आत्मा आहत हुई तो शब्द बाग़ी हो गये
कहते कहते हम ग़ज़ल दुष्यंत त्यागी हो गये

 है सियासत कोठरी काजल की, रखना एहतियात
अच्छे-अच्छे लोग इसमें जा के दाग़ी हो गये

गेह-त्यागन और ये सन्यास धारण सब फ़रेब
ज़िन्दगी से हारने वाले विरागी हो गये

गालियाँ बकते रहे जिनको उन्हीं के सामने
क्या हुआ ऐसा कि श्रीमन् पायलागी हो गये

आप जिन कामों को करके हो गये पुण्यात्मा
हम उन्हीं को करके क्यों पापों के भागी हो गये


(दो)


वास्ता हर पल नई उलझन से है
फिर भी हमको प्यार इस जीवन से है

किस ग़लतफहमी में हो तुम राधिके
मेल मनमोहन का हर ग्वालन से है

दिल दिया मानो कि सब कुछ दे दिया
और क्या उम्मीद इस निर्धन से है

यार उसको भूलना मुमकिन नहीं
उसका रिश्ता दिल की हर धड़कन से है

माफ़ करना आप हैं जिस पर फ़िदा
सारी रौनक़ उसपे रंग रोगन से है

जो सही उसने दिखाया बस वही
क्यों शिकायत आपको दरपन से है

ये कहाँ मुमकिन कि लिखना छोड़ दूँ
शायरी का शौक़ तो बचपन से है

ऐ ‘अकेला’ मन में हैं जब सौ फ़साद
फ़ायदा फिर क्या भजन.पूजन से है


(तीन)


जो जैसा दिख रहा है उसको वैसा मत समझ लेना
खड़ी हो जायेगी वरना बड़ी दिक्कत समझ लेना

उसे तो बेसबब ही मुस्कुरा देने की आदत है
सो उसके मुस्कुराने को न तुम चाहत समझ लेना

कभी सोचा नहीं था तुम भी धोखेबाज़ निकलोगे
सरल होता नहीं इंसान की फ़ितरत समझ लेना

भरोसा ख़ुद पे कितना भी हो लेकिन जंग से पहले
ज़रूरी है ज़रा दुश्मन की भी ताक़त समझ लेना

अदावत  की डगर पे आखि़रश चल तो पड़े हैं हम
न होगी वापसी की कोई भी सूरत समझ लेना

तुम्हारी सात पुश्तें भी चुका पायें नहीं मुमकिन
लगाते हो मिरे ईमान की क़ीमत, समझ लेना

किसी की भी मदद को ‘ऐ अकेला’ दौड़ पड़ते हो
कहीं का भी नहीं छोड़ेगी ये आदत समझ लेना


(चार)


कुछ ऐसे ही तुम्हारे बिन ये दिल मेरा तरसता है
खिलौनों के लिए मुफ़लिस का ज्यों बच्चा तरसता है 

गए वो दिन कि जब ये तिश्नगी फ़रियाद करती थी
बुझाने को हमारी प्यास अब दरिया तरसता है 

नफ़ा-नुक़सान का झंझट तो होता है तिज़ारत में 
मुहब्बत हो तो पीतल के लिये सोना तरसता है

न जाने कब तलक होगी मेहरबानी घटाओं की
चमन के वास्ते कितना ये वीराना तरसता है

यही अंजाम अक्सर हमने देखा है मुहब्बत का
कहीं राधा तरसती है कहीं कान्हा तरसता है

पता कुछ भी नहीं हमको मगर हम सब समझते हैं
किसी बस्ती की खातिर क्यों वो बंजारा तरसता है 

कि आख़िर ऐ 'अकेला' सब्र भी रक्खे कहाँ तक दिल
बहुत कुछ बोलने को अब तो ये गूंगा तरसता है 


(पाँच)

जिसपे मरते हैं उस पे मरते हैं
क्या बुरा है जो इश्क़ करते हैं

दिल की धड़कन सम्हल नहीं पाती
तेरी गलियों  से जब गुज़रते हैं

हमको परवाह जान की भी नहीं
आप रूसवाईयों से डरते हैं

देते क्यों हैं उड़ान की तालीम
बाद में पर अगर कतरते हैं

बात उनसे जो हो तो हो कैसे
वो फ़लक से कहाँ उतरते हैं

ज़िन्दगी उनको सौंप दी हमने
जिनसे गेसू नहीं संवरते हैं

अब के कैसी बहार आई है
पत्ता पत्ता शजर बिखरते हैं

सब्र से काम लें ‘अकेला’ जी
वक़्त के साथ ज़ख़्म भरते हैं 


(छह)


बंदा तो हुजूर आपके काम आया बहुत है
ये भी है बजा आपने ठुकराया बहुत है

उल्फ़त है कि है दिल्लगी मुझको नहीं मालूम
फिर चाँद मुझे देख के मुस्काया बहुत है

दुनिया मुझे सूली पे चढ़ा दे, तो चढ़ा दे
उल्फ़त का सबक़ मैंने भी दोहराया बहुत है

ये बात बजा, की है मदद, शुक्रिया साहिब
अहसान मगर आपने जतलाया बहुत है

गुमसुम सा कई रोज़ से दिखता है वो ज़ालिम
शायद मेरा दिल तोड़ के पछताया बहुत है

खु़द की भी कभी शक्ल ज़रा देख लें साहिब
आईना मुझे आपने दिखलाया बहुत है

अब अक्ल का दुश्मन जो न समझे, तो न समझे
मैंने दिले-नादान को समझाया बहुत है

अफ़सोस नहीं क़त्ल का मुझको मेरे क़ातिल
ग़म है यही तूने मुझे तड़पाया बहुत है

ईमानो-धरम ताक पे देखो तो ‘अकेला’
पैसे के लिए आदमी पगलाया बहुत है 


(सात)


सच्ची अगर लगन है सफल हो ही जायेगी
मतला हुआ है पूरी  ग़ज़ल हो ही जायेगी


माना कि पूर्णिमा की खिली चाँदनी है वो
शरमा गई तो नीलकमल हो ही जायेगी

यूँ ही बनी रही जो इनायत ये आपकी
ये ज़िन्दगानी रंग महल हो ही जायेगी

उम्मीद है रिज़ल्ट तो अच्छा ही आयेगा
सख्ती हो चाहे जितनी नक़ल हो ही जायेगी

छिड़ ही गया है बज़्म में जब उसका ज़िक्र तो
लाज़िम है आँख मेरी सजल हो ही जायेगी

माना कि प्रॉब्लम है बड़ी फिर भी क्या हुआ
हिम्मत से काम लोगे तो हल हो ही जायेगी

घबराइए न, चार क़दम चल के देखिए 
बेहद कठिन ये राह सरल हो ही जायेगी

माना 'अकेला' आज है रूठी सी ज़िन्दगी
हम पर भी मेहरबान ये कल हो ही जायेगी



वीरेन्द्र खरे 'अकेला'     


  • जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) 
  • पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
  • माता : श्रीमती कमला देवी खरे
  • शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
  • लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख ।
  • प्रकाशित कृतियाँ : शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह), [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली],सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता), [सार्थक एवं अयन प्रकाशन, नई दिल्ली],अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह) [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली] 
  • उपलब्धियाँ : वागर्थ, कथादेश,वसुधा सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन । लगभग 25 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण । आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित । ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण । मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.] द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान। अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान ।
  • सम्प्रति :अध्यापन
  • सम्पर्क : छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड, छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001
  • मोबाइल-09981585

पुस्तक समीक्षा : दफ़न हुए शिलालेख



            
            यूँ तो इन्द्रधनुष सात रंगों का होता है, पर किसी भी ज़िंदगी में सिर्फ इतने ही रंग नहीं होते…। जीवन के अलग अलग रंगों को अपनी तेरह कहानियों में पिरो कर श्री हरभजन सिंह मेहरोत्रा ने ‘दफ़न हुए शिलालेख’ शीर्षक अपने कथा-संग्रह में पाठकों के सम्मुख रखा है । इस संग्रह की हर कहानी अपने एक नए कथानक, नए कलेवर में जब सामने आती है तो पाठकों को कुछ इस कदर बाँध लेती है कि अगली कहानी पढने की इच्छा खुद-ब-खुद जाग जाती है । चाहे वो ‘आज एक भेड़िया मारेंगे’ में एक इंसान के अन्दर विपरीत परिस्थितियों में भी बची इंसानियत हो, या फिर ‘जवाबदेह’ कहानी में मानसिक रूप से अक्षम माँ और एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की परेशानियों में घिरे बेटे के बीच के रिश्ते की कहानी है। कहानी में नायक का सोचना- इससे अच्छा कि माँ मर जाए-किसी भी संवेदनशील इंसान को अन्दर तक झकझोर देता है ।

            मेरी दृष्टि में इस संग्रह की सबसे अनूठी कहानी बिलकुल आखिर में दी गई ‘माँ को क्या हो गया है’ शीर्षक कहानी है । किसी लेखक को इंसान के नज़रिए से रिश्तों को परखते-समझते तो हमने बहुत बार देखा है, पर इस कहानी को पढ़ने के बाद हरभजन जी की कल्पनाशीलता और अपने आसपास के परिवेश का सूक्ष्म विश्लेषण कर पाने की क्षमता की दाद देनी पड़ती है । एक नन्हा चितकबरा पिल्ला किस प्रकार अपनी माँ द्वारा पहले के मुकाबले कम प्यार किये जाने से न केवल आहत और दुविधाग्रस्त महसूस करता है, बल्कि सामने के घर में रहने वाली लाल कपड़ों वाली लड़की से उसके जुड़ाव को भी लेखक ने एक पिल्ले के मनोभावों के माध्यम से ही बड़ी खूबसूरती से दर्शाया है ।
             इन कहानियों के अलावा अपने अनोखे कथानक और परिवेश के कारण जो दो कहानियाँ पाठकों के मानस-पटल पर शर्तिया अपनी छाप छोड़ेंगी, वो हैं ‘जिजीविषा’ और ‘मदारी’ , ‘जिजीविषा’ कहानी में जिस तरह एक पनडुब्बी के अन्दर अपनी मौत का इंतज़ार कर रहे पाँच लोगों की मनोदशा का एकदम सटीक और गहन वर्णन किया गया है, उससे हर पाठक खुद को भी उन्हीं का एक हिस्सा मान कर उनकी उस पीड़ा से बहुत गहरे तक जुड़ जाएगा । ‘मदारी’ कहानी एक बहुत ही अनोखे थीम पर रची गई कथा है । लेखक की फैक्ट्री में एक दुर्घटना अवश्यंभावी है और समय रहते उसे टालने का सिर्फ एक उपाय उनको नज़र आता है कि अपने पूर्व-परिचित एक मदारी अल्लन की सहायता से उस दुर्घटना को टाला जाए ।
          बेहद सधे ढंग से लिखी गई यह कहानी वैसे तो पाठकों के अन्दर आगे के घटनाक्रम के प्रति एक सहज उत्सुकता बनाए रखती है, परन्तु कई जगह कुछ तकनीकी वर्णन पाठको को कहानी से थोड़ा अलग भी कर सकता है । चूँकि कहानी का ताना-बाना इस तरह का है और लेखक खुद अभियांत्रिकी विभाग से सम्बद्ध हैं, इसलिए इस तरह के वर्णन को हम कहानी की ज़रूरत के हिसाब से सहज रूप से पिरोया हुआ भी कह सकते हैं । ‘हाशिए’ शीर्षक कहानी आत्मकथात्मक है। यह कहानी लेखक की निजी ज़िंदगी के बहुत करीब कही जा सकती है | कथा संग्रह की शीर्षक कथा ‘दफ़न हुए शिलालेख’ बाप बेटे के संबंधों को एक अलग नज़रिये से प्रस्तुत करती हुई बहुत सशक्त कहानी है। हाँ, मेरे हिसाब से अगर इस कहानी का शीर्षक-चल खुसरो घर आपने- होता तो शायद ज़्यादा सटीक बैठता ।
           कहानी के हिसाब से अगर शीर्षक की सटीकता की बात करें तो इस श्रेणी में मैं ‘अपंग’ शीर्षक कहानी को रखूँगी । हमारी संवेदनाएँ किस कदर अपंग हो चुकी हैं, इसको जिस तरह से इस कहानी में बयान किया गया है, वह हरभजन जी की लेखनी की मजबूती ही दर्शाता है । बस एक कमी जो इस कहानी में खटकती है वह है- कहीं कहीं इसके वाक्यों का बहुत लंबा हो जाना । इस तरह के वाक्य पाठकों की एकाग्रता भंग करके कहानी को कभी कभी बोझिल भी कर देते हैं । इन कहानियों के अलावा संग्रह की बाकी कहानियाँ जैसे कि- अधूरी प्रेम कहानी, अनुत्तरित, चक्रव्यूह और मृगतृष्णा अपने अपने स्तर पर विभिन्न विषयों का निर्वाह तो करती हैं, पर मेरे हिसाब से उन्हें सामान्य कहानियों की श्रेणी में रखा जा सकता है | कुल मिला कर हरभजन सिंह मेहरोत्रा का यह कथा संग्रह अपने पास संजो कर रखा जाने वाला एक संग्रह कहा जा सकता है, जो निःसंदेह पाठकों की कसौटी पर खरा उतरेगा।


दफ़न हुए शिलालेख (कहानी संग्रह)/ लेखक- हरभजन सिंह मेहरोत्रा/ प्रकाशक- अमन प्रकाशन/मूल्य- रु. 140/= मात्र

समीक्षक-प्रियंका गुप्ता