कमला कृति

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

दस्तक: दो कविताएं - नरेश अग्रवाल



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



कविता  



कविता का  सृजन
भावनाओं का उदद्वेलन
विचारों का सम्पादन
शब्दों का रसवादन

कहीं बलवती भावनाएं
कहीं विचारों की अठखेलियाँ
कहीं त्वरित होती संवेदनाएं
कहीं शब्दों की पहेलियाँ

कहीं आत्मा की अभिव्यक्ति
कहीं मन की विरक्ति
कहीं चित मे उतरता संतोष
कहीं प्यार या आसक्ति

कहीं व्याकुल मन की वेदना
कहीं निरंतर बहती धार
कहीं मूक अकेली शून्य मे
कहीं कविता एक संसार..

कहीं कविता एक संसार...    
                                    


इंतेहा क्या है..


इंतेहा क्या है समझ नहीं पा रहा
इंतेहा क्या है जान नहीं पा रहा
इंतेहा क्या है बूझ नहीं पा रहा
इंतेहा भी होती है,ये मान नहीं पा रहा

गर्मी की जलती दोपहरी मे
रेत के ढेर से उडते हुये कण
चले छूने आसमान हवा संग
मोह लेते है सब का मन

या ऊंचाई से बूंद पानी की जो
गिरती पत्थर पर छन छन
समुन्द्र मे अठखेलियाँ लेती लहरें
भोगो देतीं है सब तन और मन

चिड़िया जो बैठी  एक पेड़ की
उस ऊंची सूखी डाल के छोर पे
या लिपटी कई पतंगे, आसमान
को छूती उस पतंग की डोर से

या उस बूढ़े आदमी के चेहरे पे
आई झुरियों की कई गहरी लकीरें
या सदियो से अंधेरे मे गुम
और धूल से सनी वो तस्वीरें

चिड़िया की चोंच मे दबा
तिनका वो सूखी घास का
या नल से गिरती बूंद को
पीने को तरसता वो उदास सा

या सितार की मचलती तार
का गूँजता वो मधुर संगीत
कई नगमे उसकी बांसुरी छेड़ दे
बंद आंखो से सुनना वो गीत

बीस मंज़िला इमारत के छोर से
उस खिड़की के खुले पट देखना
या फटे टायर के झरोखे से
उस गांव को लटपट देखना

उन पंछियों का उड़ना झुंड मे
आसमान पे झूमना मचलना
या बाग मे खेलते बच्चों का
उस फिसलपटी से फिसलना

एक्सट्रीम क्या है,इंतेहा क्या है
मैं जरा समझ नहीं पाता हूँ
जिस तरफ देखूँ इंतेहा ही है
यही देख यही सुन पाता हूँ..


नरेश अग्रवाल

45, बाबजी पार्क,रिंग रोड-2,
बिलासपुर, छत्तीसगढ़ (भारत)
फोन: 91-9425530514
ईमेल: nareshkumar1992@yahoo.co.in

नरेश अग्रवाल

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) निवासी नरेश अग्रवाल पेशे से एक बीमा सर्वेक्षक एवं हानि निर्धारक होने के साथ ही यांत्रिकी अभियंता हैं| वे मूल रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिलेटलिस्ट हैं और अनेक विश्व स्तरीय डाक टिकट संग्रह प्रतियोगिताओं में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व कर बहुत से अवॉर्ड्स भी जीते हैं| फिलेटेलिक लेखन में उन्हें महारत हासिल है| उनके फिलेटेली लेखों का नियमित प्रकाशन प्रतिष्ठित पत्रिकाओं-रेनबो स्टाम्प न्यूज, वाडोफिल , इंडिया पोस्ट आदि में नियमित रूप होता रहता है| काव्य लेखन में भी उनकी बहुत रुचि है| उनकी कविताओं का प्रकाशन कई स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में होता रहा है| उनकी रचनाएं निजी अनुभतियों के साथ ही सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ी हुईं हैं और संभावनाएं जगाती हैं|


क्षणिकायें-रचना श्रीवास्तव



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार




क्षणिकायें



(एक) 


रेखाओं के समुद्र  में
गोता लगाती रही मै
पाए बहुत से मोती
पर तेरे नाम का एक भी नहीं


(दो) 


भाग्य के दरवाजे के उसपार
तुम खड़े थे
मै तुम तक पहुंचना चाहती थी
पर हवा के एक तेज झोंके ने
किवाड़ बंद कर दिए



(तीन) 


वो शब्द
जो चाशनी में लिपटे थे
हथेली पर गिरे
पर न जाने क्यों
मेरी हथेली जल गई


(चार) 


प्यार का एक कतरा
धूप में लपेट
उस ठण्ड
तुमने मुझे भेजा  था
आज भी
जब नम होती है हवाएं
मै  वो कतरा
ओढ़ लेती हूँ


(पांच) 


बच्ची  के मुट्ठी में
माँ का आँचल देख
अपनी हथेली सदैव
खाली लगी



(छह) 



माँ पर कविता लिखूँ कैसे
मेरे पास है
एक  तस्वीर
जिसे माँ बताया गया
और कुछ फुसफुसाते  शब्द
"बिन माई कै बिटिया"


(सात) 


ये दीवारे ,ये आँगन
जानते हैं मुझे
पर ये मेरे नहीं है
बहुत से लोग है यहाँ
लेकिन रिश्तेदार नही
ये बड़ी ईमारत
घर नहीं पर घर है
इस  के ऊपर लिखा है
'अनाथाश्रम'


(आठ)


झूठ
खोलता है पंख
भीच लेता है सच को
घुटने लगती है आवाज
धीरे धीरे दम
तोड़ देता है सच



(नौ)


हज़ार पाँव वाले कीड़े - सा
सच की देह में
बेशर्मी से गड़ जाता  है
चूसता है कतरा- कतरा लहू
निर्जीव होजाने तक


(दस)


सारे सबूत लिये
सच अदालत में
तार तार हुआ
झूठ हाथ मिला
विजय की बधाई लेता रहा


रचना श्रीवास्तव 


1161, वेस्ट डुआरटी रोड
यूनिट 25
आर्केडिया ,कैलीफोर्निया-91007
(अमेरिका)




रचना श्रीवास्तव 



  • शिक्षा : तक विज्ञानं ,स्नाकोतर :(हिंदी ,समाज शास्त्र ),.बी. एड.
  • सम्प्रति: स्वतन्त्र पत्रकारिता 
  • प्रकाशन: मन के द्वार हजार (हाइकु का अवधी अनुवाद ), भोर  की  मुस्कान, धी आबादी का आकाश 
  • विभिन्न संग्रहों में ,कविताएँ,हाइकु, ताँका,सेदोका और चोका, हानियाँ ,लघुकथाएँ,प्रकाशित , भारत और अमेरिका के विभिन पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर लेखन जैसे ,अविराम ,उदन्ती ,हिंदी चेतना ,इंडो -अमेरिकन ,हिन्दी अब्रॉड ,यादें ,सिटी किंग ,हिन्दी मीडिया , हरिगन्धा,वस्त्र परिधान , केन्द्रीय माध्यमिक बोर्ड के  लिए अपठित में कविताएँ शामिल इत्यादि ,गीत सरिता (बाल कविताओं के तीन  संकलन ) , नेट पर कृत्या ,अनुभूति अभिव्यक्ति, लेखनी,गर्भनाल,रचनाकार ,स्वर्गविभा ,हिन्द युग्म, हिन्दी हाइकु ,त्रिवेणी ,लघुकथा .कॉम आदि ।
  • ब्लॉग/वेबसाईट :http://rachana-merikavitayen.blogspot.com/2008/04/blog-post.html
  •                          http://merasaahitya.blogspot.com/2012/04/httpwww.html
  • सम्मेलनों/कार्यशालाओं में प्रतिभागिता: बहुत से कविसम्मेलनो में भाग लिया तथा संचालन भी किया .
  • पुरस्कार/ सम्मान : हिन्द युग्म यूनीकवि सम्मान, कथा महोत्सव (अभिव्यक्ति)  कहानी को सम्मान
  • ई-मेल : rach_anvi@yahoo.com

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

परमेश्वर फुंकवाल की कविताएं



विनोद शाही की कलाकृति


मेरे होने का मतलब: चार कविताएं



(एक)


कहते हैं साथ कुछ नहीं जाता
पर कुछ तो होगा जो
चला जायेगा मेरे साथ
फलित होने को
इस यात्रा के अंत में
शायद कोई ऐसा क्षण
जो मैंने जिया हो किसी के लिए
और वही क्षण रह भी जायेगा शायद
यहाँ मेरे पीछे.


(दो) 


उस तरह नहीं
जिस तरह
चली जाती है पगार
महीने के पहले ही दिनों में

उचाट नींद के अधूरे सपने
दिन में भी चलते रहें
समय की सबसे हिट फिल्म की तर्ज़ पर

सर्दियों की गीली रातों में
सुलगता रहे
लकड़ी का एक सिरा
ऊष्ण उम्मीद बनकर

बम धमाके के बाद
पडी हो देह निष्प्राण
एक जीवन को ढंकती
जिसे मृत समझकर चले जाएँ जीवन के हत्यारे

सारी कड़वाहट कही जा चुकी हो
तब नयी इबारत के लिए
मेरी नीली पड चुकी देह लिखे
मौन को चीरती कविता

पीले पत्तों की तरह
जाना है मुझे
कोंपलों के लिए वसंत में जगह बनाकर.


(तीन) 

.
मानसून का पहला काला बादल
चढ़ रहा हो पश्चिम के आकाश में
और कोई विखंडित व्याकुल पुकार
बस डूबने को ही हो
धरती की शुष्क रगों में
अंतिम करवट ले रहा हो
जब अस्तित्व का कोई दाना
ऐसे संधिकाल में
होता है
बूँद का बूँद होना

जब सड़क पर जुटी भीड़ के नारे
चीत्कार बन चुके हों
और उनमें आ गयी हो
ताक़त
सच हो सकने की
भीड़ का भीड़ होना
होता है तभी

अपने होने की
पहचान दे सकने वाले
ऐसे ही एक क्षण के लिए
जीता हूँ मैं
जब वह आकर
निकल जाये
तो सांस बह सके
मुझसे निकलकर
मुक्त निर्बाध पवन में
और कोई देह का दरवाज़ा खटखटा कर कहे
चलो समय हो गया.



(चार)

.
मैं बारिश में भीगूँ
और उग आऊं
जंगली अनाम फूल बनकर
जीवन की पगडंडी के दोनों ओर

चिलचिलाती धूप में
जल बिंदु सा गुम हो जाऊं
किसी बंजर धरा की
बदली बनने को

उस कड़ाके में
जैसे पेड़ों के पत्ते चले जाते हैं
आने वाली पीढीयों को
वसंत की सौगात देकर
इस तरह जब मैं चला जाऊं
तो सब मुझे महसूस करें
चारों ओर
सारी प्रतीक्षाओं के परे

जब मैं जा चूका हूँ
तो लगे मैं कभी गया ही नहीं.


परमेश्वर फुंकवाल


49, गांधीग्राम रेलवे अधिकारी कोलोनी,
निकट मीठा खली रेलवे क्रासिंग,
एलिस ब्रिज, अहमदाबाद 380006.





परमेश्वर फुंकवाल



  • जन्म: 16 अगस्त 1967
  • शिक्षा: आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर
  • प्रकाशन: यात्रा, परिकथा, समालोचन, अनुनाद, अनुभूति, आपका साथ साथ फूलों का, लेखनी, नवगीत की पाठशाला, नव्या, पूर्वाभास, हाइकु दर्पण, विधान केशरी आदि में रचनाओं का प्रकाशन. ‘कविता शतक’ में नवगीत संकलित.
  • सम्प्रति: पश्चिम रेलवे अहमदाबाद में प्रशासनिक अधिकारी
  • ईमेल: pfunkwal@hotmail.com
  •  

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

स्त्री व अन्य कविताएं-संगीता सिंह 'भावना'



विनोद शाही की कलाकृति



स्त्री



किसी कवि की कल्पनाओं सी
उन्मुक्त...
उड़ने की आकांक्षा लिए हुए
जहाँ तक हो बहाव
बिखेरती अपने विचार
जमाती आकाश तक अपने
अधिकार..
लेकिन मन का पक्षी जब करता
विचरण...
रच देती है कुछ विलक्षण उद्गार
वो खुद नहीं समझ पाती अपने
आंतरिक रहस्य..
रहती है खामोश सदा सबकुछ खोकर
उतर जाती जब जिद पर
सब हो जाते हैं निरुतर..
शब्दों के बाण भी भरसक झेलती
नजरों की तीर भी है झेलती
गुजरती है अनंत आतंक और भय
की रातों से होकर..
बावजूद सब के ऊपर उठती है स्त्री
शालीनता से अपनी विलक्षणता लिए हुए....!



अकेले



कभी जब होती हूँ बहुत
अकेले
सोचती हूँ हर संबंधों को
बहुत बारीकी से
और इस निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि
हर रिश्ते मांगते हैं समर्पण
हम, जिसे शायद मालूम ही नहीं
प्रेम समर्पण..
अकेलेपन के कवच से बाहर भी है
एक अनूठी दुनियां
जहाँ है प्रेम उपस्थित..
भविष्य के सुख की सुखद स्मृतियाँ
साथ ही , दुःख के प्राचीन इतिहास
खिलते हैं प्रेम के फूल जहाँ
पर यह सब होता है तब ,जब मैं होती हूँ
बहुत अकेले..!


तुम यूँ ही..



तुम यूँ ही रूठ जाते हो
हरदम...
जरा सोचो ,कितना मुश्किल है
संभालना खुद के जज्बातों को
जैसे एक उम्र बीत जाती है
अंधेरों से होकर
मेरी जिन्दगी में रौशनी से तुम
पर अदृश्य
अंतिम और एकमात्र जिसके बाद शायद
कुछ भी नहीं है
न कोई स्मृति है न ही कोई स्वप्न
तुम ही तुम हो ....
फिर क्यूँ बढ़ाते हो दरम्यानी फासला
इन बढ़ते फासलों से फैलने लगता है
मन के भीतर
अँधेरे का महासमुद्र
मैं खोजती हूँ इधर-उधर
बिखरे शब्दों की स्मृतियों को
जो पढ़ तो सकती हूँ पर
दिखला नहीं सकती..!


सर्द रात


पूस की सर्द रातों में
जब लोग
दुबके होंगे रजाइयों में
तुम भी अपनी उँगलियों से
साकार कर रहे होगे
एक ठिठुरती सर्द शाम
की अनोखी  दास्तान..
जिसमें कुछ अनमोल यादों की
सरगोसियाँ होंगी और होंगी
सर्द रातों की तन्हा टीस..
कोई तुम्हें देखता होगा जी भरकर
पर अफ़सोस, ये कब जान पाओगे तुम
पूस की सर्द रातों की बेचैनी..
ऐसे ही जब तुम पढ़ रहे होगे
कुछ धुंधली पर रोचक तथ्य
दूर खड़ी तुम्हारे मासूम चेहरे को
निहारती हैं  अपलक
पूस की सर्द रातों में ,
मैं और  मेरी परछाई..!



मेरी कविता


जब भी
लिखती हूँ कोई कविता
सचित्र अवतरण होने लगता है फ़िजा में
जिसमें डूबती हूँ उतरती हूँ
कभी आर कभी पार
और दर्शील हो उठती हैं
अनमोल झलकियाँ जीवन की
महक उठता है रोम-रोम...
मेरी कविता
जब लिखती है कोई प्रेम गीत
शांत समंदर में हो जाती है हलचल
और दुगुने उत्साह से निकल पड़ती हैं लहरें
अपने प्रेम की ओढ़नी फहराती
लहराती चंचल..
जब कभी लिखती हूँ सोंदर्य
धरती का
अनगिनत पक्षियों का कलरव
गूंज उठता है वातावरण में
और झूम उठती हैं आकाश में घटाएँ
श्यामवर्णी होकर...!!


संगीता सिंह ''भावना''

sh 5 /20 AL लक्ष्मनपुर लेन-2
लक्ष्मनपुर, शिवपुर, वाराणसी
पिन कोड-221002
ईमेल: singhsangeeta558@gmail.com

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

धीरज श्रीवास्तव के गीत




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार




बदल गये हैँ मंजर सारे..



बदल गये हैँ मंजर सारे
बदल गया है गाँव प्रिये!

मोहक ऋतुएँ नहीँ रही अब
साथ तुम्हारे चली गईँ!
आशाएँ भी टूट गईँ जब
हाथ तुम्हारे छली गईँ!
बूढ़ा पीपल वहीँ खड़ा पर
नहीँ रही वो छाँव प्रिये!

पोर पोर अंतस का दुखता
दम घुटता पुरवाई मेँ!
रो लेता हूँ खुद से मिलकर
सोच तुम्हेँ तन्हाई मेँ!
मीठी बोली भी लगती है
कौए की अब काँव प्रिये!

चिट्‌ठी लाता ले जाता जो
नहीँ रहा वो बनवारी!
धीरे धीरे उज़ड़ गये सब
बाग बगीचे फुलवारी!
बैठूँ जाकर पल दो पल मैँ
नही रही वो ठाँव प्रिये!

पथरीली राहोँ के ठोकर
जाने कितने झेल लिए!
सारे खेल हृदय से अपने
बारी बारी खेल लिए!
कदम कदम पर जग जीता हम
हार गये हर दाँव प्रिये!

पीड़ा आज चरम पर पहुँची
नदी आँख की भर आई!
दूर तलक है गहन अँधेरा
और जमाना हरजाई!
फिर भी चलता जाता हूँ मैँ
भले थके हैँ पाँव प्रिये!



अम्मा तुम तो चली गई..



अम्मा तुम तो चली गई पर
लाल तुम्हारा झेल रहा!
जैसे तैसे घर की गाड़ी
अपने दम पर ठेल रहा!

बैठ करे पंचायत दिन भर
सजती और सँवरती है!
जस की तस है बहू तुम्हारी
अपने मन का करती है!
कभी नहीँ ये राधा नाची
कभी न नौ मन तेल रहा!

राधे बाबा का लड़का तो
बेहद दुष्ट कसाई है!
संग उसी के घूमा करता
अपना छोटा भाई है!
सोचा था कुछ पढ़ लिख लेगा
उसमेँ भी ये फेल रहा!

खेत कर लिया कब्जे मेँ है
बोया उसमेँ आलू है!
लछमनवा से मगर मुकदमा
वैसे अब तक चालू है!
जुगत भिड़ाया तब जाकर वो
एक महीने जेल रहा!

चलो कटेगा जैसे भी अब
आशीर्वाद तुम्हारा है!
और भरोसा ईश्वर पर है
उसका बहुत सहारा है!
खेल खिलाता वही सभी को
और जगत ये खेल रहा!



बस है तेरी आस..



मौत कहाँ तू छिपकर बैठी
आ जा मेरे पास!
इधर जिन्दगी दगा दे रही
बस है तेरी आस!

जितने भी थे सच्चे साथी
धीरे धीरे बिछड़ गये!
हम इस जग के स्वार्थ दौड़ मेँ
धीरे धीरे पिछड़ गये!
धूप जेठ की तन झुलसाती
गुजर गया मधुमास!

अब तो सर्दी बनी बहुरिया
रह रह सुई चुभोती है!
और कामना हरदम मेरी
बच्चोँ जैसी रोती है!
खुद अपने ही साये से अब
टूट गया विश्वास!

आये दिन चिकचिक के चलते
बेटो ने है बाँट दिया!
बिस्तर विस्तर दिया एक ने
और एक ने डाँट दिया!
लिखना पढ़ना देख मुहल्ला
कहता कालीदास!

मौका मिलते मुझे चिकोटे
पसरा है सन्नाटा जो!
दिल पर पत्थर रखकर सहता
वक्त लगाये चाटा जो!
रोज रोज मन मरघट जाकर
ढ़ूँढ़ रहा उल्लास!


धीरज श्रीवास्तव


ए-259 संचार विहार कालोनी,
आई.टी.आई मनकापुर, गोण्डा (उ.प्र)
पिन-271308
फोन-08858001681

रविवार, 14 दिसंबर 2014

मैं नारी हूँ व अन्य कवितायें-कल्पना मिश्रा बाजपेई



विनोद शाही की कलाकृति



मैं नारी हूँ ..



मैं नारी हूँ .."कुसुम अवदात नहीं हूँ"
सौंदर्य बोध से गढ़ी हूँ
मानवता के लिए कड़ी हूँ
सबके के लिए अहिर्निश खड़ी हूँ
भावनाओं से नित जड़ी हूँ 
कभी किसी से नहीं हूँ कम,
इस बात पर अड़ी हूँ
मैं नारी हूँ..बिन स्वर का गान नहीं हूँ ।
दिल में उत्साह भरा है अपरिमित
हर वक्त सेवा में हूँ समर्पित
शक्तियों से हूँ मैं निर्मित
जो चाहूँ वो करती हूँ अर्जित
इससे हूँ में सदा ही गर्वित
मैं नारी हूँ...शक्ति से अंजान नहीं हूँ ।
नारी ही नर को नव जीवन देती
बदले में वो कुछ न लेती
हर पीड़ा को हँस कर सहती
ना हो मुझसे कोई भी आहत
वो सदा ही खुद से यह कहती
मैं नारी हूँ..बिना फूल का बागान नहीं हूँ ।   
  
इस प्रवंचनाओं के जग में
खुद जीती हूँ खुदी से
हिमालय से बहती निर्मल गंगा में
अविरल बहती हूँ खुशी से
मैं नारी हूँ...निर्जन पोखर का पाषाण नहीं हूँ ।
गर करोगे मनुहार तो
मोहिनी सी हूँ मैं
करोगे  आघात तो  
शेरनी सी हूँ मैं
बहोगे मेरे साथ सहजता से तो
तरने वाली तरणी हूँ
मैं नारी हूँ..बिना धार की तलवार नहीं हूँ ।
मैं बेटी हूँ
मैं पत्नी हूँ
मैं हूँ जननी
मैं नारी हूँ..किसी की जायदाद नहीं हूँ ।

नया गान गाती नारी ने
संभावनाओं को ढूंढ निकाला है
क्योंकि नारी ने खुद को पहचाना है



अम्मा 



अम्मा तू कितनी सुंदर है 
नहीं कोई तेरे जैसा 
धीरज तेरा धरती जैसा
फूलों सा कोमल मन है 
बड़प्पन तेरा पर्वत जैसा 
तू गंगा सी निर्मल है 
ज्ञान भरा उर सागर जैसा 
"गीता ग्रंथ" सी पावन है 
ममता तेरी है मनमोहक 
तू करुणा का सागर है 
तन तेरा माँ मंदिर जैसा 
नित-नित शीश झुकाऊँ मैं
तुझ पर बलि-बलि जाऊँ मैं   
माँ तू कितनी सुंदर है 


बेटी 


जीवन की डगर में गिरती सम्हलती हूँ
अपने और गैरों के जुल्मों को सहती हूँ
जिस घड़ी से आई हूँ जग में ,
सहमी सी रहती हूँ
मैया तेरे चौके की कच्ची सी रोटी हूँ
हाँ हाँ मैं बेटी हूँ ।

दिल की अभिलाषा किस को समझाऊँ
जोशीले आँसू दिल में ही छिपाऊँ,
कहती है दुनियाँ किस्मत की खोटी हूँ
क्यों की मैं एक बेटी हूँ ।

छोड़ो ये डोली ,मह्वर ये मेहदी ,
छोटी हूँ जीने दो सपनों को छूने दो 
हमको भी उड़ना है 
अंबर से जुड़ना है 
कैसे समझाऊँ हिमालय की चोटी हूँ 
मुझे गर्व है कि में एक बेटी हूँ 


कल्पना मिश्रा बाजपेई

प्लॉट नंबर 27, फ़्रेंड्स कॉलोनी
निकट रामादेवी चौराहा, चकेरी,
कानपुर (उ०प्र०)
फोन-09455878280, 08953654363  

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

आशुतोष द्विवेदी की ग़ज़लें





चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार




(एक) 


प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे |
कल बरसते थे निग़ाहों से हजारों नग़मे |

 खुशबुएँ सिर्फ रह गयी हैं और कुछ भी नहीं,
गुज़र गए इन्हीं राहों से हजारों नग़मे |

 लाख चाहा  कि चले आयें पर नहीं आते,
लौटकर उसकी पनाहों से हजारों नग़मे |

 कोई बता दे भला और कहाँ जायेंगें,
छूटकर संदली बाहों से हजारों नग़मे |

 जब भी आता है ख्याल अपना तो छिप जाते हैं,
मेरे सीने में गुनाहों से हजारों नग़मे |

 मेरे वज़ूद पे' छा जाते हैं तारे बन कर,
दिल की बिखरी हुई चाहों से हजारों नग़मे |

 एक वो वक़्त भी आया कि खड़े रहते थे,
मेरे खिलाफ गवाहों से हजारों नग़मे |


(दो) 


पहली गलती कि तेरा नाम लिए जाते हैं |
उस पे' हद ये कि सरे-आम लिए जाते हैं |

 अहले-महफ़िल भला क्योंकर न सजा दे हमको ?
हम निग़ाहों से भरे जाम लिए जाते हैं |

 आये तो थे तेरे पहलू में उम्मीदें लेकर,
वक्ते-रुख्सत दिले-नाकाम लिए जाते हैं |

 हमको जिस बात पे रुस्वाई मिली थी हरसूँ,
वो उसी बात पे' ईनाम लिए जाते हैं |

 हम ग़रीबों को कहाँ पूछ रही है दुनिया,
ग़म-गुसारी के भी अब दाम लिए जाते हैं |

 हमारे हाल पे' कुछ लोग मज़ा लेते हैं,
उस गली में हमें हर शाम लिए जाते हैं |

 हैं वो कहते हमें दीवाना बेरुखी के साथ,
और हम हँस के ये इल्ज़ाम लिए जाते हैं |

 अपनी मर्ज़ी से थे चलते तो भटक जाते थे,
अब तो जाते हैं, जहाँ राम लिए जाते हैं |



(तीन) 


हमसफ़र, हमराह, सबके काम आती है सड़क |
बस नहीं उसकी गली तक ले के जाती है सड़क |

 जब थिरकते हैं किसी की राह में बढ़ते कदम,
चलते-चलते साथ मेरे गुनगुनाती है सड़क |

 टूटती है ज़र्रा-ज़र्रा,  हादसा-दर-हादसा,
कोई टकराए किसी से, चोट खाती है सड़क |

 हर नए चौराहे पर उगती नयी उलझन के साथ,
आदमी की ख्वाहिशों पर मुस्कुराती है सड़क |

 जूझते दोनों तरफ, लाचार फुटपाथों के बीच,
ज़िन्दगी के सैकड़ों मंज़र दिखाती है सड़क |

 पत्थरों के बोझ से लेकर गुलों के नाज़ तक,
वक़्त पड़ने पर कभी क्या-क्या उठाती है सड़क !



(चार)


थका आवारापन मेरा यही बेहतर समझता था -
तुम्हारे घर चला आया कि अपना घर समझता था |

 तुम्हें शायद नहीं मालूम लेकिन है यकीं मुझको,
मेरे क़दमों की बेचैनी तुम्हारा दर समझता था |

 तुम्हारे नूर ने मुझको मेरी औकात दिखला दी,
नहीं तो ख़ुद को मैं अब तक बड़ा शायर समझता था |

 बिठाना मेल दुनिया से हुआ मुश्किल इसी कारण -
मैं जो भीतर समझता था, वही बाहर समझता था |

 मुझे वो छोड़ आए डाकुओं के गाँव ले जाकर,
जिन्हें मैं दोस्त कहता था, जिन्हें रहबर समझता था |

 मेरे महबूब को नज़रों पे' था कुछ कम यकीं शायद,
वो रिश्तों की नज़ाकत हाथ से छूकर समझता था |

 निगाहों की शरारत पर मुझे बदनाम कर डाला,
वो मेरी बात का मतलब ग़लत अक्सर समझता था |

 पकड़कर कान उसके, बज़्म से बाहर किया हमने,
वो था अफ़सर कि जो महफ़िल को भी दफ़्तर समझता था |

भरम टूटा, खिलीं  होठों पे' जब महकी हुई गज़लें,
ज़माना इश्क की तक़दीर को बंजर समझता था |

(रचनाएं ग़ज़ल संग्रह 'इतना तो मैं कह सकता हूँ' से)


आशुतोष द्विवेदी 

भारतीय राजदूतावास,
अद्दिस अबाबा,
इथियोपिया |

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कृष्ण नन्दन मौर्य के गीत




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार




उम्मीदें थीं..



उम्मीदें थीं
आजादी खुशहाली लायेगी।


रखा सूद पर
जुआ और हल तक बैलों का
बस खुदकुशियाँ ही हल हैं
ठण्डे चूल्हों का
तय तो था
खलिहानों की बदहाली जायेगी।


नींव टिकी सरकारों की
दंगों, बलवों पर
लोकतंत्र है
पूँजीपतियों के तलवों पर
सोंचा तो था
सोंच गुलामों वाली जायेगी।


स्वार्थ–बुझे पासे
फिंकते कब से चौसर पर
नग्न–क्षुधित जनतंत्र
हारता हर अवसर पर
राजभवन से
कब यह नीति–कुचाली जायेगी।


हल्की ममता हुई
सियासत के हलके में
सरहद से माँ को मिलते हैं धड़
तोहफे में
इल्म न था
इस तरह लहू की लाली जायेगी।


     

इक लहर बारिश की.. 



इक लहर बारिश की क्या आई
धँस गया चकरोड
पुलिया ढह गई।

घर बने तालाब
गलियारे नहर
बूँद भर में, डूब–उतराया शहर
इक लहर बारिश की क्या आई
रोड पर जैसे
नदी ही बह गई।

भीड़ फर्राटा
घिसटती जाम में
खास भी कुछ, आ फँसे हैं आम में
इक लहर बारिश की क्या आई
पालिका की पोल
सारी कह गई।

हुईं टापू
रेहड़ियाँ, पैदल–पथों की
आज आमद नहीं ठेलों–खोमचों की
इक लहर बारिश की क्या आई
कीच ही केवल
असर में रह गई।

           
 

क्या उड़ने की आशा पंक्षी..



क्या
उड़ने की आशा
पंक्षी

नयन–निलय में
नील गगन है
तरु की फुनगी पर
यह मन है
किन्तु कटे पर
तो फिर कैसी
उपवन की प्रत्याशा
पंक्षी


तोड़
क्षितिज की परिभाषाएँ
पा लूँ इस नभ की
सीमाएँ
किन्तु बँधे पग
तो फिर कैसी
बढ़ चलने की आशा
पंक्षी


स्वर्ण–दीप्ति के छल
के पीछे
भाग रहा
तू आँखें मींचे
स्वर्ण–कटोरों में
चुग्गा चुगकर भी
कैसे प्यासा
पंक्षी

बँधे हुये
निश्वास तुम्हारे
मन पर
छल का पाश घना रे
गिरवी आत्मा ही जब
तो फिर
क्या स्व– की परिभाषा
पंक्षी


कृष्ण नन्दन मौर्य


154,मौर्य नगर, पल्टन बाजार
प्रतापगढ़ (उ.प्र.) – 230001.

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

पुस्तक समीक्षा: पीढ़ी का दर्द-काव्य संग्रह/ सुबोध श्रीवास्तव






आज की कविता में आक्रांत जन -मानस का यथार्थ चित्रण करती काव्योक्तियां 



माँ को समर्पित 'पीढ़ी का दर्द' सुबोध श्रीवास्तव का पहला काव्य-संग्रह है जिसकी ५४ कविताओं में देश और समाज के ऐसे सरोकारों की भाव-भंगिमाएं अंकित की गई हैं जिनसे आम आदमी आक्रांत दिखाई पड़ता है, तो सचेतन बुद्धिजीवी उसकी इस दयनीय स्थिति पर स्वयं को बेबस पाकर किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो जाता है। इस पीड़ा की छटपटाहट उसके काव्य का प्रेरणा-बिंदु जान पड़ती है। 'पीढ़ी के दर्द की पीड़ा' में 'लालकिला', 'बापू' जैसे ऐतिहासिक उपादान से लेकर 'सूरज', 'हवा', 'मौसम', 'पहाड़', 'भूकंप' जैसे प्रकृतिगत उपादान भी सशक्त सम्प्रेषण में अभिव्यक्त हुए हैं। सुबकता लालकिला, गड्ढ़ों के बीच झांकती आँखें, माँ को सोया समझकर … तोतली ज़बान से आक्रोश जगाता, बच्चों की पनीली आँखें, सुबकता अस्पताल, अंतड़ियों की ख़ुराक और सूखी हड्डियों के लिए आड़ की जद्दो-जहद में पिसता जन, आदर्शों के कवच फेंकने की मजबूरी कहीं न कहीं उस युग-त्रासदी को झेलने की विवशता को दर्शाती है, जिसे 'पीढ़ी का दर्द' के रचनाकार ने पग-पग पर अपने मन-मानस में झेला और फिर अभिव्यक्त किया। कहीं रोज़मर्रा होते हादसों में मनुष्य की बेबस स्थिति व्यवस्था की पोल खोलती नज़र आती है तो कहीं प्रकृति-प्रदत्त 'भूकम्प', आपदाओं की विवशता।

छंदमुक्त इन कविताओं में बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों की सुन्दर छटाएं काव्य-सौंदर्य को बढ़ाती हैं। 'लाल किला', 'अस्पताल', 'पहाड़', 'सूरज का सशक्त मानवीकरण, 'सूरज' का प्रतीक व बिम्ब रूप में मज़दूर के दर्द में व्यक्त हुआ है। 'सूरज का दर्द' और 'मज़दूर का सूरज' में बेबस मज़दूर है, ' संवेदनाओं के अबोध शिशु' अछूता प्रतीक है। अपनी इन कविताओं में सुबोध जहां एक पल भी आम आदमी के दर्द को नहीं भूलता, वहीं रचनाकार की अपनी पीड़ा 'खबरची' में न कह पाने की छटपटाहट को भी झेलता है और जो कहीं न कहीं 'खण्डर-सा मैं' में अभिव्यक्त होता है। यथास्थिति का यथार्थ चित्रण करती परिस्थितियों में चीखना, बोलना या आवाज़ उठाना पूरी तरह वर्जित-सा माना गया है। कहीं न कहीं इन कविताओं में एक पत्रकार की सजग दृष्टि में समाज-व्याप्त घटनाओं व तथ्यों की तह तक जाकर उन्हें उघाड़ने की पहल भी दिखाई पड़ती है। इन कविताओं में व्यक्त सोच के नयेपन को पद्मश्री गोपालदास 'नीरज' ने भी सराहा है।

पूरे काव्य-संग्रह की अंतिम ११ कविताएं 'तुम्हारे नाम' सन्दर्भ में ली गई हैं जिनमें कुछ तो रुमानियत से सिक्त हैं तो अन्य में लक्ष्य-संधान के दृढ़ निश्चय की ओर एक संकेत करती हैं| साथ ही 'तुम/उदास मरुथल में/जल में मोती-सी चमकती' या 'मेरे सिराहने/ बिना अलसाये / देर तक जागती रही/ याद तुम्हारी!' में मिलन की चाहत की पराकाष्ठा दर्शाती है, तो 'तुम्हारे नाम' कविता में लक्ष्य सुंदरी का संधान आशावादिता जगाता है। निःसंदेह कविताओं की भावभूमि उन सामाजिक सरोकारों को उठा कर पाठक को इस यथास्थिति के विषय में सोचने को मजबूर करती है। पुस्तक का आवरण व साज-सज्जा सराहनीय है। सार रूप में सुबोध श्रीवास्तव का यह पहला काव्य-संग्रह निःसंदेह पठनीय व संग्रहणीय है।

  • पीढ़ी का दर्द -सुबोध श्रीवास्तव
  • काव्य-संग्रह
  • अंजली प्रकाशन,
  • आज़ाद नगर, कानपुर,1994।    

डॉ. प्रेम लता चसवाल 'प्रेमपुष्प'

शशि पुरवार की ग़ज़लें



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


(एक) 


यूँ  न मुझसे रूठ  जाओ, मेरी जाँ निकल न जाये
तेरे इश्क का जखीरा, मेरा दिल पिघल न जाये.

मेरी नज्म में गड़े है, तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं, कहीं राज खुल न जाये

मेरी खिड़की से निकलता, मेरा चाँद सबसे प्यारा
न झुकाओ तुम निगाहे, कहीं रात ढल न जाये.

तेरी आबरू पे कोई, कहीं दाग लग न पाये
मै अधर को बंद कर लूं, कहीं अल निकल न जाये.

ये तो शेर जिंदगी के, मेरी साँस से जुड़े है
मेरे इश्क की कहानी, ये गजल भी कह न जाये.

ये सवाल है जहाँ से, तूने कौम क्यूँ बनायीं
ये तो जग बड़ा है जालिम, कहीं खंग चल न जाये.
 


(दो) 


भारत की पहचान है हिंदी
हर दिल का सम्मान है हिंदी.

जन जन की है मोहिनी भाषा
समरसता की खान है हिंदी.

छन्दों के रस में भीगी ये
गीत गजल की शान है हिंदी.

ढल जाती भावों में ऐसे
कविता का सोपान है हिंदी.

शब्दों का अनमोल है सागर
सब कवियों की जान है हिंदी.

सात सुरों का है ये संगम
मीठा सा मधुपान है हिंदी.

क्षुधा ह्रदय की मिट जाती है
देवों का वरदान है हिंदी.

वेदों की गाथा है समाहित
संस्कृति की धनवान है हिंदी.

गौरवशाली भाषा है यह
भाषाओं का ज्ञान है हिंदी.

भारत के जो रहने वाले
उन सबका अभिमान है हिंदी।



(तीन) 


हर मौसम में खिल जाता है नीम की ही ये माया है
राही को जो छाया देता नीम का ही वो साया है।

बिन पैसे की खान है ये तो तोहफ़ा है इक क़ुदरत का,
महिमा देखी नीम की जब से आम भी कुछ बौराया है ।

जब से नीम है घर में आया, जीने की मंशा देता,
मोल गुणों का ही होता है नीम ने ही बतलाया है।

कड़वा स्वाद नीम का लेकिन गुणकारी तेवर इसके,
हर रेशा औषध है इससे रोग भी अब घबराया है।

निंबोली का रस पीने से तन के सारे रोग मिटें,
मन मोहक छवि ऐसी जिसने लाभ बहुत पहुँचाया है

गाँव की वो गलियाँ भी छूटीं, छूटा घर का आँगन भी,
शहर में फैला देख प्रदूषण नीम भी अब मुरझाया है।