कमला कृति

बुधवार, 22 अगस्त 2018

श्रीधर आचार्य "शील" के पाँच गीत


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


सावन घिर आया..


पारे सा फिसल गया पावस जब दाँव में
चुपके से सावन घिर आया इस गाँव में

लहरों-सी लहर गयीं बादलों की टोलियाँ
बिजली की कड़कें हैं दाग रही गोलियाँ
तन मन सब भीग गया गीले अनुबंध पर
अँधियारे घिर आये खुशबू की बाँह में

अंतस का सूनापन सिहर गया द्वार पर
आशाएँ  शाल  ओढ़  बैठ गयीं पार पर
सूरज ने फेंक दिया मुट्ठी भर रोशनी
बिखर गयीं अनगिनती किरणें हर ठाँव में

रस भर कर बरस गये सावन के बादल
अँखियों में आँज दिया मेघों ने काजल
सुरमयी इशारों को पानी की ताल पर
देख लिया गोरी ने बरगद की छाँव में

टूट गयीं रेखाएँ  सावन  के रात की
चीख उठीं इच्छाएँ भीगी बरसात की
मटमैली चूनर ओढ़ अधरों की पोर पर
बाँध लिया गीतों ने घुँघरू जब पाँव में


सोने की मछरिया..


सोने की मछरिया है,
रेशम का जाल है
अंधों की नगरिया में,
रोशनी का ताल है
आदमी मछेरा बना पूछता सवाल है

चंद मुट्ठियों में ये बहारें कैद हैं
आँसूओं में डूबते नजारे कैद हैं
शांति के कपोत हैं पंख हैं कहाँ
चाँद कैद है यहाँ सितारे कैद हैं 
किसने नेकी कर दिया दरिया में डाल है

आश्वासन के ताड़वृक्ष के भार से
टपकेंगे अक्षर भाषण के धार से
फसलें खनकेंगी मौसम लहरायेगा
प्रजातंत्र में दिन ऐसा कब आयेगा
सही दाम राशन क्या मिले मजाल है

जंगल में भटकेंगी जब सूरज की किरणें
चांदनी  मुट्ठी  भर भर  बाँटी  जायेगी
जुल्म करेंगे अक्षर जब अपने पृष्ठों पर
सच कहता हूँ मुझको नींद न आयेगी
यहाँ वायदों के बकरों का होता रोज हलाल है
आदमी मछेरा बना पूछता सवाल है


मीत नही बन पाया..


मेरे तृषित अधर अकुलाये
कोई गीत नही बन पाया
एक अकिंचन रूप न उभरा
कोई मीत नही बन पाया
छूकर छेड़ दिया है किसने
मन की इस पावन सरिता को
संबोधन सब टूट गये तो
कोई प्रीत नही बन पाया

एक चित्र अंकित करने का

आधार नही मिलता है
छंद अपरिचित रह जाते हैं
पर अधिकार नही मिलता है
किसने सींच दिया है फिर से
घर के इस सूने आँगन को
बहुत कथानक हार गये तो
कोई जीत नही बन पाया

साँझ अलसता की क्यारी में

सूरज को ढलते देखा है
अनजानी राहों पर किसने
दीपक को जलते देखा है
एक भ्रमर गुंजित कर जाता
है इस जीवन की बगिया को
सावन मुझसे रूठ गया तो
कोई रीत नही बन पाया

पुरवा पवन बही जब धीरे

महक उठी मन की अमराई
चातक स्वाति जल पाने की
रीत   गयी   सारी   गहराई
किसने  झकझोर  दिया  है
फिर से तन की व्याकुलता को
कारक कर्म सभी बन पाये
केवल मीत नही बन पाया


बादल जब-जब घिरने लगते हैं


स्मृति के नीले आँचल पर
दूर क्षितिज के पार कहीं
बादल जब जब घिरने लगते हैं
मन का मोर आस का लेकर समाधान
गलबहियाँ डाले नाच उठा करता है
पुखराजी आँचल के सपने
नयनों में तिरने लगते हैं

गुमनामी पत्रों-सी  लगती शाम
कहीं मत हो मौसम बदनाम
अधर के कंपित   कोलाहल
खींच दें कोई परिचित  नाम
सूरज के सारे रेखांकन
कोहिनूरी किरणें  बिखेरकर
बरगद की  शाखाओं   से
सहसा मुझको तकने लगते हैं

बादल जब-जब घिरने लगते हैं
एक मौन आख्यान उभर कर
चुपके-चुपके अंतस्थल पर
गुमसुम  हो लहरा जाता  है
तब  निर्जन पर मर्म व्यथाएँ
गुँजित  हो  खिलने लगतीं हैं
मन के  सारे अगणित  चिंतन
आहट पाकर किसी सपन का
संबोधन देने लगते हैं


हिंदुस्तान है कविता


कविता है एक मंजिल
बढ़ते  चले  चलो
उस  ठौर   पर  पहुँचो
तो गढ़ते चले चलो

कविता है आग,तोप और 
आतंक है कविता
कविता है युद्ध ,शांति और
डंक है कविता

कविता दिलों को जोड़ती
और तोड़ती कविता
कविता  कभी-कभी   तो
मुख मोड़ती कविता

कविता है लाड़-प्यार और
दुलार है कविता
कविता समय है सत्य है
साकार है कविता

कविता हृदय का प्यार है
श्रृंगार है कविता
कविता है  रागिनी  कोई
उपहार है कविता

कविता कली है फूल है
बहार है कविता
कविता है हार,यारऔर
संचार है कविता

कविता  है  धूप-छाँव
एक गाँव है कविता
बहती  हुई  नदी   है
एक नाव है कविता

कविता है गंध माटी की
श्रमदान है कविता
कविता किसान, खेत और
खलिहान है कविता

कविता है द्रास,कारगिल और
जवान है कविता
सचमुच हमारा देश
हिंदुस्तान है कविता


श्रीधर आचार्य "शील"


  • पिता का नाम--स्व.श्री लोकनाथ आचार्य
  • जन्मतिथि--3/8/1948 (बिलासपुर)
  • योग्यता-- एम.ए.(हिंदी साहित्य)
  • व्यवसाय--सेवानिवृत्त अध्यापक एवं स्वतंत्र लेखन
  • प्रकाशित कृति-काव्य-संग्रह "गीत को स्वर कौन देगा?'
  • सम्मान-राष्ट्रीय उद्योग और व्यापार मेला द्वारा "छत्तीसगढ़ रत्न", समन्वय साहित्य समिति द्वारा "समन्वय रत्न", "शब्दश्री सम्मान"
  • सम्पर्क-रामा रेसीडेन्सी ( B6/GF), तोरवा /मेन रोड,विनीत पेट्रोल पंप के पास, देवरीखुर्द , बिलासपुर (छत्तीसगढ़)-495004
  • मो.09977559161
  • ई-मेल-sdacharya03@gmail.com

बुधवार, 15 अगस्त 2018

पावस विशेष: राजेन्द्र वर्मा के गीत और दोहे


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


बारिश  का ढंग (गीत)


बारिश  का भी अजब ढंग है ।

मरुथल बूँद-बूँद को तरसे,
बादल सागर में ही बरसे,
धरा गगन को है निहारती,
जीवन का उड़ रहा रंग है ।

कहीं जलद ही नहीं दिखा है,
कहीं बाढ़ की विभीषिका है,
जाने कैसे दिन आये हैं,
दिनचर्या भी हुई तंग है ।

कोई समझाओ ‘इन्दर’ को,
सूरज, पवन और सागर को,
क्या थोड़ा-सा सुख न मिलेगा,
क्या दुख ही का साथ-संग है !


आसार नहीं..


धरती! धीरज धार, अभी तो 
बारिस के आसार नहीं हैं ।

अभी-अभी आषाढ़ लगा है,
और तुझे परिवाद हो रहा;
पावस का आगमन कहाँ हो,
इस पर वाद-विवाद हो रहा,
दान-दक्षिणा पाने वाले 
पानी के हक़दार नहीं हैं ।

बादल तो बादल, उनका क्या!
वे तो बस हाँके जाते हैं;
कहाँ-कहाँ बारिस होनी है,
पवन देवता बतलाते हैं;
देवलोक के सभी निवासी
करुणा के आगार नहीं हैं ।

क्षीरसिन्धु के रहने वाले
प्यास भला कैसे पहचानें ?
राजस धर्म निभाने वाले
सात्विक धर्म भला क्या जानें ?
धरती! तू कर्त्तव्य निभा, बस,
तेरे कुछ अधिकार नहीं हैं ।।


मुँह फेरे बैठे..


मुँह फेरे बैठे हैं देखो,
कब से हवा और ये बादल !

धूल-धूसरित वसुंधरा है,
कंठ-कंठ में शूल भरा है,
पानी के बिन जीवन सूना,
यौवन में आ गया जरा है,
कुंए-ताल सब रिक्त-रिक्त हैं,
अब तो बस, नयनों में है जल!

छाँव नीम की मरी-मरी है
नागफनी ही एक हरी है 
आकुल-व्याकुल बेड़ धान की 
ज़हरीली हो गयी चरी है 
माड़ा-चढ़ी आँख को लगता-
छाये बदरा, बरसेगा कल!

आये देव मनाने, आये  
भू पर लोट लगाने आये 
‘पानी दे, गुड़धानी दे” कह 
सोया इन्द्र जगाने आये, 
किन्तु धरा प्यासी-की-प्यासी 
अड़े हुए हैं मेघों के दल! 


आये बादल..


तप्त धरा की 
खोज-खबर लेने 
आये बादल ।

बाग़-बगीचे
हरे-भरे जंगल 
मुरझाये हैं,
ताल-तलैया
नद-नाले-पोखर 
पपड़ाये हैं,

कर्मयोग को
व्याख्यायित करने
छाये बादल ।

श्री-वर्षण को 
सजी हुई नभ में 
वृष्टि-पालकी,
आस लगाये
जड़-चेतन, दोनों-
सुधा-पान की,

बूँद-बूँद में 
अष्ट सिद्धि, नौ निधि
लाये बादल ।


रचा प्रकृति ने रास (दोहे)


राधा दामिनि, श्याम घन, वृन्दावन आकाश ।
श्री की वर्षा के लिए, रचा प्रकृति ने रास ।।

टप-टप-टप बूँदें पड़ीं, गर्मी पर प्रतिबन्ध ।
धरती से आने लगी, सोंधेपन की गन्ध ।।

पानी पीकर पेट-भर, धरती हुई निहाल ।
धीरे-धीरे छक गये, सारे पोखर-ताल ।।

रिमझिम-रिमझिम कर रही, पानी की बौछार ।
जैसे किसी अदृश्य का, बजने लगा सितार ।।

हरियाली से हो गया, मौसम का अनुबन्ध ।
दादुर बैठे बाँचते, अपने काव्य-प्रबन्ध ।।

पावस आता है तभी, बढ़ जाता जब ताप ।
मानो कहती हो प्रकृति, फल देता तप आप ।। 

जब-जब रसवर्षण करें, पृथ्वी पर सारंग ।
मन पुष्पित-पुष्पित लगे, पुलकित-पुलकित अंग ।।

मेघदूत आये मगर, बनकर पीर फ़कीर ।
लायी पुरवाई मुई, पोर-पोर में पीर ।।

मेघों का पा आवरण, सूरज हुआ प्रसन्न ।
देख सकेगा चन्द्र-मुख, रहते हुए प्रछन्न ।।

बूँद टँगी आकाश में, लिये इन्द्रधनु-रूप ।
कमलपत्र पर जब गिरी, मोती बनी अनूप ।।

बूँदा-बाँदी हो कभी, कभी मूसलाधार ।
कभी-कभी बौछार ही, देते लम्बरदार ।।

दोनों ही दुखदायिनी, अनावृष्टि-अतिवृष्टि ।
जीवन के हित चाहिए, एक संतुलित दृष्टि ।।


राजेन्द्र वर्मा 


  • जन्म-8-11-1957 (बाराबंकी, उ.प्र.)
  • प्रकाशन-प्रसारण-गीत,  ग़ज़ल, दोहा, हाइकु, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, निबन्ध आदि 
  • विधाओं में बीस पुस्तकें प्रकाशित । महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित । 
  • विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ एवं समीक्षाएँ प्रकाशित ।
  • लखनऊ दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित ।
  • पुरस्कार-सम्मान-उ.प्र.हिन्दी संस्थान के व्यंग्य व निबन्ध-नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित । 
  • अन्य-लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार पर एम्.फिल । अनेक शोधग्रन्थों में संदर्भित । कुछ लघुकथाओं और ग़ज़लों का पंजाबी में अनुवाद । चुनी हुई कविताओं का अँगरेज़ी में अनुवाद ।
  • सम्प्रति-भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन। 
  • सम्पर्क-3/29 विकास नगर, लखनऊ (उ.प्र.)-226022  
  • मो. 80096 60096
  • ई-मेल: rajendrapverma@gmail.com

पुस्तक-समीक्षा:अंक में आकाश : मिसरी और कुनैन-सी ग़ज़लें-डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय




           कविता, कहानी, निबन्ध, व्यंग्य आदिक विधाओं के बहुविश्रुत रचनाधर्मी श्री राजेन्द्र वर्मा की सद्यः प्रकाशित कृति, ‘अंक में आकाश’ मेरे सम्मुख है, जिसमें उनकी सौ ग़ज़लें हैं। ‘निवेदन’ शीर्षकीय चौबीस पृष्ठीय पुरोवाक् ग़ज़ल विधा के सर्वांगीण परिचय को समर्पित है, जिसमें उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल का उद्भव एवं विकास, ग़ज़ल का शिल्प प्रभृति उपशीर्षकों के अंतर्गत कृतिकार ने भाषा के आधार पर ग़ज़लों के विभाजन को उचित नहीं माना है। उसके अनुसार, उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल विषयवस्तु, भाषा-शैली व बिम्ब-प्रतीकादि की दृष्टि से ही भिन्न होती हैं, जिसके मूल में रचनाकार का सांस्कृतिक धरातल रहा है या, फिर रचना की तत्सम शब्दावली। राजेंद्र वर्मा जी ने कृति में अन्तर्निहित प्रत्येक रचना के छन्द का प्रकार, उसकी समाप्ति पर अंकित किया है। मुख्यतः ये हैं— विधाता छन्द, गीतिका, मनोरम, पीयूषवर्ष, सुमेरु, भुजंगप्रयात, राधा, भुजंगी, स्रग्विणी, कुंडल, अप्सरीविलसिता, मानव, मिलिन्द, दोहा, ताटंक, वासन्ती, हरगीतिका, खफ़ीफ, मुजारे-अखरब आदि। 

क्रमांक– दो पर माँ पर आधारित ग़ज़ल से पाठक बहुत-बहुत मुतास्सिर होंगे। माँ के लिए यह कतई ज़रूरी नहीं कि नाक-नक्श और रंग से उसका पुत्र लुभावना हो। अति-सामान्य और कभी-कभी विद्रूप मुखादि का पुत्र भी उसके लिए सर्वस्व होता है..

भले ही खूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ 
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है। (पृ. 30)
    xx xx
ये माँ ही है, जो रह जाती है बस दो टूक रोटी पर,
             मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है।      (पृ. वही)

         बावज़ूद इसके, वक़्त की बदनीयती जीवन के उत्तरार्द्ध में अक्सर अपना खेल खेल जाती है— जिसके प्रति वह ममता लुटाती रही, अपने सुखों की तिलांजलि दे कर्तव्यपरायण रही, वही बेगाना हो गया..

रहे जब से नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी, 
             सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है।  (पृ. वही)

यह असंभव नहीं कि उपर्युक्त पंक्तियों के अवगाहन के उपरान्त कोई भी जन्मदात्री स्वयं से प्रश्न कर बैठे.. ‘मातृधर्म का निष्पादन क्या उसकी भूल थी? यह प्रश्न भले ही अनुत्तरित रहे, लेकिन पुत्र और उसके आत्मजों के सम्बन्ध शायद बद से बदतर होते जायेंगे। इस दुरवस्था का पूर्वाभास प्रखर चिन्तक, राजेन्द्र वर्मा ने किया है..

अब समय आया है ऐसा राम ही रक्षा करें,
वृद्ध माता औ’ पिता से पुत्र वन्दित हो गये। (पृ. 31)

          अनेकानेक अनेपक्षित स्थितियाँ तो अति-विशिष्ट वर्ग की ही देन हैं। पृष्ठ 39 पर गीतिका छन्द की रचना ऐसे ही वर्ग को संबोधित है जो दिमाग़दारी के बल पर सुख-सुविधाओं को क़ब्ज़ाये बैठा है, जबकि उन्हें समाजोपयोगी बनाना अहंपूरित समाज ही का दायित्व है। राजेंद्र जी कहते हैं..

धन हमारा है मगर क़ब्ज़ा किये बैठे हैं आप, 
फिर हमीं को दान दे बनते हैं दानी किसलिए? (पृ. 39)

       विसंगति के अनेक व्यंग्य चित्र खींचते हुए राजेंद्र जी आम आदमी को आचार संहिता सुलभ कराते हुए कहते है..

सच है नौकरियाँ नहीं हैं, पर पढ़ाई तो करें,
कुछ-न-कुछ होगा ही हासिल, आप मानें तो सही। (पृ. 41)
इसी ग़ज़ल में वे सांग रूपक के माध्यम से स्वार्थी वर्ग के चरित्र पर चुटकी लेते हैं..
वर्करों से मुँह छुपाते फिर रहे हैं लीडरान,
लीडरी ही खा गयी मिल, आप मानें तो सही। (पृ. वही)
xx xx
साल ही बीता अभी है नौकरी पाये हुए,
ऋण के सब खाते हुए निल, आप मानें, तो सही। (पृ. वही)

        कन्या भ्रूण-हत्या के विरुद्ध उनकी गहन संवेदनायुक्त अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है..

जब से आयी रिपोर्ट, है बेटी,
अपनी माँ से वो डरी-डरी क्यों है? (पृ.62)

       उनकी रचनाशीलता के प्रमाणस्वरूप कुछ शे’र यहाँ दिया जाना आवश्यक प्रतीत होता है..

बहुत हो चुका अब हम अपनी करेंगे,
लड़ेंगे-भिड़ेंगे, मगर इक रहेंगे।

कभी फूल बनकर चमन में खिलेंगे,
कभी हम गगन के सितारे बनेंगे।
xx xx
कटोरा लिए क्यों फिरें आप दर-दर,
हमें काम दें, नवप्रगति हम करेंगे। (पृ.63)

         राजेन्द्र जी ने अपने अंतर्मन की मंजूषा के बिखरे स्नेहिल प्रकरणों को भी नितांत साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है..

तुमने क्या दर्पण से वार्तालाप किया? / बात-बात में जो इतना शर्माती हो! 
रहने को रह लो तुम सबकी वांछा में / लेकिन तुम मेरे जीवन की थाती हो। 
मेरा मन-सिंहासन तुमसे सज्जित है / क्या तुम भी मुझको अन्तस् में पाती हो? (पृ. 112) 

        इसी क्रम में एक और ग़ज़ल के कुछ अशआर भी मौजूं हैं..

तुझको देखा तो ऐसा लगा / मिल गया कोई मुझको सगा।
तेरे सौन्दर्य की क्या कहूँ / रह गया मैं ठगा-का-ठगा! 
साँझ लायी तेरी ख़ुशबुएँ / ख़ुशबुएँ दे गयीं रतजगा।। (पृ.110)

‘अंक में आकाश’ शतशः दृश्यमान् ग़ज़ल की कृतियों में न केवल प्रथम पांक्तेय है, मेरे मत से यह उसमें भी प्रथम क्रम की है। समाज को दृष्टि देने के साथ-साथ गज़लगोई की कला में नवप्रवेशी तो इससे ग़ज़लों में छन्द (बहर), तुकान्त (क़ाफ़िया) और समान्त (रदीफ़) आदि के अतिरिक्त कथ्य को जीवंत रूप में कैसे साधते हैं, सीख सकते हैं। बहुविधा रचनाकार राजेन्द्र वर्मा कलाजीवी है। ऐसे व्यक्तित्व कालजयी कीर्ति के अधिकारी होते हैं।

  • समीक्षित कृति-पुस्तक-अंक में आकाश (ग़ज़ल-संग्रह)/ ग़ज़लकार- राजेन्द्र वर्मा/ प्रकाशक-अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली/ संस्करण- प्रथम-2016/ पृष्ठ-128/ मूल्य– रु.250/- (सजिल्द)

समीक्षक-डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय 


130, मारुतिपुरम्, 
लखनऊ- 226 016
मो.9236227999

बुधवार, 8 अगस्त 2018

डाॅ. मधुर बिहारी गोस्वामी के दोहे


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


भली करेंगे राम


चाहे आए आँधियाँ, निशिदिन आठों याम।
पर करना विश्वास तुम..भली करेंगे राम।।

क्यों मनुआ!चिन्ता करे, करता रह तू काम।
जो  होता  है,  होन  दे,..भली करेंगे राम।।

सारे संकट दूर हों,.......पूरे हों सब काम।
यही सोच कर हम जिएँ, भली करेंगे राम।।

मन को  रखना ठीक है.. तो सोचो यह बात।
भली  करेंगे  राम  जी,..दिन  हो  चाहे रात।।

चिन्ता  में डूबे   हुए,...नहीं गला तू चाम।
मन में यह विश्वास रख, भली करेंगे राम।।

कठिन रोग से जूझता, रोगी रखता आस।
भली  करेंगे  राम जी, लौटूँगा पिय  पास।।

सरहद पर सैनिक खड़ा, सोचे घर की बात।
भली  करेंगे  राम  जी,..अब होगी बरसात।।

मेरे तेरे बीच में,.... आँखों से हो बात।
दीवारों के कान हैं,.. करें नहीं  संघात।।

सुन ले मेरे साजना, बतियाँ मेरी मान।
अभी अभी मैंने सुना, दीवारों के कान।।

पर निन्दा करनी अगर, ले लेना संज्ञान।
बार बार मैंने सुना,.. दीवारों के कान।।

जो सोचे, धीरे बता, कहना मेरा मान।
नहीं जानती, आजकल, दीवारों के कान।।

मुझको दे मेरे खुदा, ऐसा एक मकान।
नहीं जहाँ दीवार हों, नहीं जहाँ हों कान।।

दीवारों के कान हैं, यह है बिल्कुल झूठ।
या तो इसको प्रूव कर, या जाऊँगी रूठ।।

कहते जाओ राज़ तुम,दिन हो चाहे रात।
दीवारों के कान हैं, यह भी कोई बात।।

बच्चे जब हमसे कहें,...... जाओ पापा दूर।
तब लगती है चोट जब, दिखता गहन गरूर।।

जीवन भर जिनके लिए, खोया अपना चैन।
तब लगती है चोट जब,... देखत फेरैं नैन।।

बूढ़ी आँखें सोच मेंं,.... होती हैं बेचैन।
तब लगती है चोट जब, बोलैं ऊँचे बैन।।

जिन्हें झुलाया पालना,.. देकर सच्चा प्यार।
तब लगती है चोट जब,... देते पीर अपार।।

अपनों के व्यवहार में, जब आता है खोट।
बढ़ती जाएँ दूरियाँ,.. तब लगती है चोट।।


डाॅ. मधुर बिहारी गोस्वामी


  • जन्मतिथि-25 फरवरी-1953
  • शिक्षा-एम.ए.पी-एच.डी.
  • पद-सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर, एस.बी.जे.महाविद्यालय,बिसावर (हाथरस)।
  • लेखन-अनेक पत्रिकाओं में निबंध, दोहे आदि प्रकाशित। आकाशवाणी दिल्ली और मथुरा-वृन्दावन से अनेक वार्ताएँ प्रसारित। अनेक साहित्यिक गोष्ठियों में पत्र वाचन।
  • संपर्क-34, बिहारीपुरा,वृंदावन (मथुरा)।
  • मो.9719648204,8755846327
  • ईमेल-madhurbihari0565@gmail.com

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          मारीशस में “वैश्विक राम की कथायात्रा” पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 


मुंबई स्थित साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था और मारीशस स्थित हिंदी प्रचारिणी सभा के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 16 अगस्त को सभा के लोंग माउन्टेन, मारीशस स्थित सम्मेलन कक्ष में “वैश्विक राम की कथायात्रा” पर एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया जा रहा है| इस कार्यक्रम में भारत से 22 हिंदी सेवी विद्वानों का एक प्रतिनिधि मंडल साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था की ओर से सम्मिलित होगा| इस प्रतिनिधि मंडल में मुंबई से डॉ. प्रदीप कुमार सिंह, डॉ. सतीश कनोजिया, श्री बिजय कुमार जैन, डॉ. गोविंद निर्मल, भोपाल से डॉ. एस. पी. गौतम, चेन्नै से डॉ. प्रदीप के शर्मा, तेलंगाना से डॉ. ऋषभ देव शर्मा, बिहार से डॉ. नीलिमा सिंह, डॉ. गीता सहाय, डॉ. कविता सहाय, उत्तर प्रदेश से श्री आलोक चतुर्वेदी, आदि उपस्थित रहेंगे| इनके साथ-साथ समारोह में  मारीशस के विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव डॉ. विनोद कुमार मिश्र, हिंदी प्रचारिणी सभा के प्रधान डॉ. यन्तुदेव बुधु, महात्मा गाँधी संस्थान की निदेशक डॉ. विद्योत्मा कुंजल के अतिरिक्त डॉ. अलका धनपत, मोहन श्रीकिसुन, श्री राज हीरामन, प्रो. हेमराज सुंदर, धनराज शम्भु, हनुमान दुबे आदि को हिंदी के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट योगदान के लिए ‘हिंदी सेवी सम्मान’ से अलंकृत किया जाएगा| ये सभी साहित्यकार 18 से 20 अगस्त के दौरान मारीशस में आयोजित 11 वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी शिरकत करेंगे|       


प्रस्तुति : डॉ. सतीश कनोजिया


प्रबंधक, 
साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, 
मुंबई   

पुस्तक समीक्षा-पेट और तोंद : एक वैचारिक व्यंग्य-संग्रह-राहुल देव




          ‘पेट और तोंद’ व्यंग्यकार राजेन्द्र वर्मा का तीसरा व्यंग्य संग्रह हैl इस संग्रह में साहित्यिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों पर लिखे गए उनके 24 व्यंग्य शामिल हैं। इस संग्रह के व्यंग्यों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कोई एक-डेढ़ पृष्ठों वाला स्तम्भीय लेखन का संकलन नही है बल्कि इसमें संग्रहीत व्यंग्य विशुद्ध साहित्यिकता की दृष्टि से लिखे गये हैंl बिलकुल शरद जोशी की ‘तिलिस्म’ शैली की व्यंग्य कथाओं की तरह यहाँ राजेन्द्र जी ने शब्दसीमा के बंधन से बाहर निकलकर उन्मुक्त ढंग से अपनी बात कही है।

‘मैं’ शीर्षक संग्रह का पहला व्यंग्य तमाम ऐतिहासिक और साहित्यिक सन्दर्भों के साथ दार्शनिक अप्रोच के साथ लिखा गया अपनी तरह के एक अलग आस्वाद का व्यंग्य है। इस व्यंग्य से एक अंश देखें, ‘’मैं’ अभिमान और स्वाभिमान से बना है, पर दोनों ऐसे हिल-मिल रहते हैं, कि उन्हें पहचानना कठिन है। बुद्धि स्वाभिमान की रक्षा करना सिखाती है पर, स्वाभिमान कब अभिमान में बदल जाता है, पता नही चलता! जिस अनुपात में ‘स्व’ की मात्रा बढ़ती है, उसी अनुपात में ‘अहम्’ की मात्रा भी बढ़ती है। अहम् खाज की तरह होता है, जितना खुजाओ उतना ही मज़ा! जलन का पता तो बाद में चलता है। अस्थिर बुद्धि पहले अहंकार को जन्म देती है, फिर पराजय के आँसुओं से उसका शमन करती है।’


        शीर्षक व्यंग्य ‘पेट और तोंद’ में ‘पेट’ श्रम और ‘तोंद’ पूँजी के प्रतीक के रूप में आया है। व्यंग्य करते हुए लेखक एक जगह लिखता है, ‘पेट और तोंद की मिश्रित रुई के ढेर को जब व्यवस्था की तकली से काता जाता है, तो ‘हम’ और ‘वे’ नामक दो प्रकार के मोटे और महीन धागे निकलते हैंl देश की सवा अरब आबादी में से एक सौ चौबीस करोड़ ‘हम’ हैं, तो एक करोड़ ‘वे’। लोकतंत्र की दृष्टि से हम ‘लोक’ हैं, तो ‘वे’ तंत्र। हम ‘पेट’ हैं तो वे ‘तोंद’। इस प्रकार ‘हम’ और ‘वे’ की हेमिंग्वे थ्योरी को तोंद अपडेटेड रखती है ताकि आने वाली पीढ़ियों के सामने पेट और तोंद की पहचान का संकट न उत्पन्न हो।‘


’धोती और सरकार’ शीर्षक व्यंग्य बाजारवादी व्यवस्था के पाखंड पर तीखी चोट करता हैl इस व्यंग्य में लेखक ने स्थानीयता को भी जगह दी है। इस एक पंक्ति में वह मानो पूरे व्यंग्य का सार सा प्रस्तुत कर देता है, ‘प्रबल आस्था के लिए आँखों का बंद होना बहुत जरुरी है।’ बाज़ार की नित नई चालों को भांपकर वह पाठक को सावधान करते हुए इसी में एक जगह और वह लिखता है, ‘हम भेली बनाने में लगे हैं। बदले में शैम्पू, बिस्कुट, बर्गर, पिज्जा, कैम्पाकोला, मोबाइल लैपटॉप, फेसबुक, चैटिंग जैसी चीज़ें पाने के लिए बेताब हैंl यह नए किस्म का व्यापार है, नयी गुलामी का आगाज़ है! इस गुलामी को लागू करने में हममें से कितने ही विभीषण सहयोग कर रहे हैं।‘ 


’क’ से कविता’ समकालीन कविता की दशा-दिशा पर आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया सार्थक व्यंग्य हैl यह व्यंग्य हमें लेखक की अध्ययनशीलता से भी परिचित कराता हैl तमाम व्यंग्योक्तियों और उदाहरणों के माध्यम से लेखक कविता के क्षेत्र में छाए हुए कुहासे को दिखाता हैl राजेन्द्र वर्मा के पास व्यंग्य लेखन की पूरी सलाहियत हैl बेहद सहज-सरल प्रवाहमय भाषा-शैली। अपने लेखन में व्यंग्यकार अपने अनुभवों का बहुत अच्छा रचनात्मक प्रयोग करते नज़र आते हैंl वे तल्ख़ भी होते हैं तो भाषा का संयम नही खोते दिखते, बल्कि तार्किक ढंग से पाठक से रूबरू होते हैंl निश्चय ही व्यंग्य-लेखन उनके लिए बेहतर जीवन की तलाश करती हुई एक सरोकारी विधा हैl उसके उद्देश्य को लेकर उनमें कोई भ्रम नही है।


‘ज्ञ’ से ज्ञानी शीर्षक व्यंग्य में उन्होंने विभिन्न धर्मों में मौजूद वर्ण व्यवस्था की पड़ताल व्यंग्य के दायरे में रहकर की हैl वह जिस प्रकार धर्म और जातियों के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रहार करते हैं उसकी आवाज़ दूर तक सुनायी देने वाली साबित हुई हैl विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए यहाँ पर साहसपूर्ण संतुलित व्यंग्य कौशल की आवश्यकता थी जिसे लेखक बखूबी साध ले गया हैl वह साफ़ शब्दों में लिखता है, ‘आज ज्ञानी की पहचान यह है कि वह संसार को भय का पाठ पढ़ाये और भयमुक्ति के चालू नुस्खे बेचकर अपनी तिजोरी भरे!’ निम्न समझी जाने वाली जातियों के बीच विद्यमान श्रेष्ठताभाव को भी रेखांकित करते हुए वह अक्षरशः सत्य और धारदार टिप्पणी करते हैंl उनके व्यंग्यबाणों से कोई नही बच पाता।


‘तथापि’ शीर्षक व्यंग्य सामाजिक शब्दों के आशयों में निहित अर्थों पर की गयी एक व्यंग्यात्मक चुटकी है- ‘किसी भी मोहल्ले में यह आसानी से सुना जा सकता है कि वर्मा जी का लड़का शराबी अवश्य है, तथापि बदचलन नही! या फिर, शर्मा जी की बेटी के कई बॉयफ्रेंड हैं, तथापि उसके चरित्र के बारे में कोई ऊँगली नही उठा सकता।... दहेज़ लेना यों तो अच्छी प्रथा नही है, तथापि यदि न लिया जाए, तो बेटी के विवाह में क्या दिया जाए? अथवा, सामने वालों का वेतन अधिक तो नही, तथापि ऊपरी कमाई इतनी अधिक है कि उनकी दो पीढ़ियों को हाथ-पाँव हिलाने की आवश्यकता नहीं!’ इसी व्यंग्य से एक बेहतरीन अंश और द्रष्टव्य है, ‘तथापि’ अविवाहितों और विधुरों का रेड एरिया है, तो स्त्रियों का पर्दा हैl साधु-संतों का मनोरंजन है, पुलिस वालों की कैप है, नेता की टोपी है, जज का गाउन है!... यह पब्लिक की चुटहिल आत्मा का मरहम है!... तुलसीदास की दो अर्धालियों- ‘होइ है सोई जो राम रचि राखा’ और ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ को आपस में जोड़ने वाला आस्था का फेविकोल है।’


जहाँ एक ओर राजेन्द्र जी ने दीमक, घोंघा, केंचुआ, सांप और मुर्गा जैसे लघु जीवों के बहाने से सफल प्रतीकात्मक व्यंग्य लिखे है, वहीं ‘ब्राह्मण और श्रमण’ जैसे प्रखर व्यंग्यसंपन्न विचारात्मक आलेख भीl इन्हें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर की गयी उनकी बेबाक वैचारिक टिप्पणियाँ भी कह सकते हैंl इन्हें पढ़कर पाठक को समय-समाज को जानने का एक अलग नज़रिया प्राप्त होता हैl लेखक ने इस संग्रह में हर ज्वलंत मुद्दे को गहरे तक छुआ हैl ‘यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते’ में जहाँ उन्होंने समकालीन स्त्री विमर्श का अपनी तरह से जायजा लिया है, वहीं आज की स्त्री के सामने दोतरफा चुनौती की भी पड़ताल की है। आधुनिकता स्त्री को घर से बाहर निकाल कर उसका शिकार करना चाहती है, तो परंपरा उसे घर के भीतर ही मार डालना चाहती है। ऐसे में उसे अपने विवेक पर भरोसा करके कदम बढ़ाना ही ठीक होगा। लेखक ने  ‘झूठै भोजन, झूठ चबेना’ लिखकर पौराणिक गाथाओं के पठनीय प्रसंगों को हमारे समक्ष रखकर उनकी व्यंग्यपूर्ण तार्किक व्याख्या की हैl इस प्रकार उनके लेखन में बड़ी ही विविधता हैl वह इतिहास में कभी पीछे जाते हैं और फिर उसे एक परिपक्व लेखक की तरह वर्तमान की समस्याओं से जोड़ते हुए आसानी से लौट भी आते हैंl अपने पूरे लेखन में राजेन्द्र वर्मा उपेक्षितों की लड़ाई लड़ते नज़र आते हैंl उनकी पक्षधरता सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हुए व्यक्ति के साथ हमेशा बनी रही है |


व्यंग्य साहित्य के प्रति समर्पित राजेन्द्र वर्मा बगैर किसी शोर-शराबे के चुपचाप अपना लेखन करने वाले लोगों में से हैंl मेरी दृष्टि में वह समकालीन व्यंग्य समय के ज़रूरी हस्ताक्षरों में से एक हैंl उनका यह व्यंग्य संग्रह पठनीय भी है और संग्रहणीय भी।


  • समीक्षित कृति-पेट और तोंद (व्यंग्य-संग्रह)/ व्यंग्यकार-राजेन्द्र वर्मा/ प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली/ संस्करण-प्रथम, 2017/ पृष्ठ संख्या-160/ मूल्य-300/-

समीक्षक-राहुल देव


-9/48 साहित्य सदन, 
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), 
सीतापुर, उ.प्र. 261203 
मो. 9454112975

बुधवार, 1 अगस्त 2018

माहिया : डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



(एक)

पक्के ही वादों से
हार सदा हारी
मज़बूत इरादों से ।

 (दो)

मौसम है हरजाई
बरखा की चाहत
सूरज ले अँगड़ाई ।

(तीन)

क़िस्मत के क़िस्से हैं-
फूल उन्हें,काँटे -
सब अपने हिस्से हैं ।

(चार)

हर मुश्किल पार गए
पर अपने दिल के
आगे हम हार गए ।

(पाँच)

समझो हर चाल अभी
ग़ैरों के आगे
कहना मत हाल कभी ।

 (छह)

मीठी सी बोली में
डाल गई क़िस्मत
कुछ ख़ुशियाँ झोली में ।

(सात)

आँगन में धूप खिली
मिलनी थी रहमत
वो तेरे रूप मिली ।

 (आठ)

फिर आग लगे भारी
बोई जो दिल में
नफ़रत की चिंगारी |

(नौ)

जाएँगे दुख देकर
घूम रहे शातिर
चकमक पत्थर लेकर ।

 (दस)

मुट्ठी में चाह नहीं
इतनी सरल सखी
चाहत की राह नहीं ।

 (ग्यारह)

लाचार , उदासी क्यों
कन-कन सींच रही
ये नदिया प्यासी क्यों ?

 (बारह)

आँखों के काजल से
भेजा संदेशा
बरखा से ,बादल से ।

 (तेरह)

कितना गम सहती है
उमड़-उमड़ बहती
नदिया कुछ कहती है ।

 (चौदह)

किसकी नादानी है
पर्वत बेचारा
क्यों पानी-पानी है ।

(पंद्रह)

क्या आज हवाएँ हैं
क़ातिल हैं , कितनी
मासूम अदाएँ हैं ।

 (सोलह)

वो साथ हमारे हैं
अम्बर फूल खिले
धरती पर तारे हैं।

(सत्रह)

ख़ुशियाँ तो गाया कर
ज़ख़्मों की टीसें
दिल खूब छुपाया कर ।

(अट्ठारह)

सब राम हवाले है,
आँखों में पानी
दिल पर क्यों छाले हैं।

 (उन्नीस)

अब क्या रखते आशा
गैरों से समझी
अपनों की परिभाषा ।

(बीस)

मैंने तो मान दिया
क्यों बाबुल तुमने
फिर मेरा दान किया ।
     
(इक्कीस)

मन चैन कहाँ पाए?
इतना बतलाना-
क्यों हम थे बिसराए।

 (बाइस)

ये भी तो सच है ना
चाहा हरजाई
यूँ हार गई मैना ।

 (तेईस)

पीछे कब मुड़ना है
अब परचम अपना
ऊँचे ही उड़ना है ।

(चौबीस)

छोड़ो भी जाने दो
मन की खिड़की से
झोंका इक आने दो ।

 (पच्चीस)

हाँ ! घोर अँधेरा है
सपनों में मेरे
नज़दीक सवेरा है।

(छब्बीस)

सपना जो तोड़ दिया
ज़िद ने हर टुकड़ा
मंज़िल से जोड़ दिया ।

(सत्ताइस)

मानी है हार नहीं
तेरा साथ मिला
जीवन अब भार नहीं ।

 (अट्ठाइस)

ख़ुद को पहचान मिली
बंद - खुली पलकें
तेरी मुस्कान खिली ।


डाॅ. ज्योत्स्ना शर्मा


  • जन्म स्थान  : बिजनौर (उ0प्र0)
  • शिक्षा : संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि, पी-एच.डी.
  • शोध विषय : श्री मूलशंकर माणिक्य लाल याज्ञनिक की संस्कृत नाट्यकृतियों का नाट्यशास्त्रीय अध्ययन |
  • प्रकाशन : ‘ओस नहाई भोर’ एकल हाइकु-संग्रह , ‘महकी कस्तूरी’ एकल दोहा संग्रह।
  • अन्य प्रकाशन- ‘यादों के पाखी’(हाइकु-संग्रह ), ‘अलसाई चाँदनी’ (सेदोका –संग्रह ) एवं ‘उजास साथ रखना’ (चोका-संग्रह) , हिन्दी हाइकु प्रकृति-काव्यकोश, ,डॉ सुधा गुप्ता के हाइकु में प्रकृति( अनुशीलनग्रन्थ), हाइकु-काव्यशिल्प एवं अनुभूति ,’आधी आबादी का आकाश’(हाइकु संग्रह) ‘कविता अनवरत -3’ तथा  ‘समकालीन दोहा कोश’ ,’गुलशने ग़ज़ल’ ,हाइकु व्योम, ‘अनुभूति के इन्द्रधनुष’ ,कुण्डलिया संचयन ,पगध्वनि , पीर भरा दरिया (माहिया संकलन) में अन्य रचनाकारों के साथ रचनाएँ प्रकाशित |
  • विविध राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय (अंतर्जाल पर भी ) पत्र-पत्रिकाओं ,ब्लॉग पर  विविध विधाओं में अनवरत प्रकाशन |
  • सम्प्रति : कुछ वर्ष शिक्षण , अब स्वतन्त्र लेखन ,सह सम्पादक – हिन्दी चेतना (कैनेडा से प्रकाशित हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका )
  • सम्पर्क  :एच-604 ,प्रमुख हिल्स ,छरवाडा रोड , वापी , जिला- वलसाड , गुजरात (भारत)- 396191
  • ईमेल-jyotsna.asharma@yahoo.co.in

आलेख: यथार्थ को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश-माधव नागदा




                                          आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं


       त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ मेरे सम्मुख है| आजकल संपादित लघुकथा संग्रहों की बाढ़ सी आ गई है| यह बात लघुकथा के भविष्य के लिए अच्छी भी है और बुरी भी| लघुकथा की विकास यात्रा में मील का पत्थर बनने की होड़ में कई लोग बिना किसी संपादकीय दृष्टि या कि सूझ-बूझ के जैसी भी लघुकथाएं उन्हें उपलब्ध हो जाती हैं उन्हें इकट्ठाकर पाठकों के सम्मुख पटक देते हैं| शायद इसी बात से दुखी होकर बलराम को कहना पड़ा है कि अधिकांश लघुकथा संग्रह भूसे के ढेर हैं जिनमें दाना खोज पाना बहुत मुश्किल काम लगता है| इस बात का उद्धरण स्वयं ठकुरेला ने ‘अपनी बात’ में दिया है| इसका अर्थ यह हुआ कि ठकुरेला ऐसा लघुकथा संकलन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसमें भूसा कम और दाने अधिक हों| यद्यपि उन्होंने ‘अपनी बात’ में सीधे-सीधे अपने उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं कहा है| हम केवल अनुमान लगा सकते हैं| वे कहते हैं, ‘लघुकथा घनीभूत संवेदनाओं को व्यक्त करने की क्षमता रखती है|’ अर्थात् वे ऐसी क्षमतावान लघुकथाएं संकलित करना चाहते हैं जिनमें घनीभूत संवेदनाएं हों| परन्तु मुझे लगता है कि उनका वास्तविक उद्देश्य कुछ और ही है जो कि पुस्तक के शीर्षक से ध्वनित होता है| शीर्षक है, ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं|’  यानि ऐसी लघुकथाओं का संकलन जो आधुनिक हों परन्तु उन्होंने कहीं भी ‘आधुनिक’ की अवधारणा पर प्रकाश नहीं डाला है| 

      यदि हम ‘आधुनिक’ की काल सापेक्ष चर्चा करें तो डॉ.रामकुमार घोटड़ के अनुसार लघुकथा के संदर्भ में सन्  1970 के पश्चात् का समय आधुनिक काल है| इस दृष्टि से सन्  1971 से  अब तक रचित लघुकथाएं आधुनिक लघुकथाएं हैं| परन्तु मेरी दृष्टि में आधुनिकता की यह परिभाषा मुकम्मल नहीं है| कारण कि काल विभाजन की दृष्टि से कोई रचना आधुनिक होते हुए भी जरूरी नहीं कि मूल्यबोध की दृष्टि से भी आधुनिक ही हो| उदाहरण के लिए एक लघुकथा (इस संग्रह से नहीं) इस प्रकार है: एक स्त्री को प्रसव-पीड़ा से मुक्ति मिलती है| जब दाई बताती है कि लड़की हुई है तो वहां उपस्थित सभी स्त्रियों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठते हैं| आगे लेखक अपनी तरफ से टीप जड़ता है, ‘कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सब वेश्याएं थीं|’ यानि पुत्री जन्म पर यदि कोई स्त्री खुशी जाहिर करती है तो लेखक के अनुसार वह वेश्या होगी| जाहिर है कि आधुनिक काल में रची गई होने के बावजूद प्रतिगामी मूल्य वाली यह लघुकथा आधुनिक तो कतई नहीं है| हां, समकालीन जरूर है| समय सापेक्षता समकालीनता का द्योतक है, आधुनिकता का नहीं| तो फिर सर्जनात्मकता के संदर्भ में आधुनिक होने का क्या तात्पर्य है? मेरे विचार से भाषा, भाव, कथ्य, संवेदना, शिल्प, विचार, जीवन मूल्य की दृष्टि से जिस रचना में नयापन हो वही आधुनिक है| आधुनिक वह है जो पुरानी सड़ी-गली, तर्कहीन मान्यताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज करे या फिर उनके परिष्कार की ओर संकेत करे| आधुनिक लघुकथा या कोई भी रचना ताजा हवा के झोंके की तरह होती है| डॉ.कुन्दन माली के अनुसार, ‘आधुनिकता जीवन और सर्जन के क्षैत्र में मौजूद यथास्थिति और रूढ़ियों के प्रतिकार का नाम है|’ इस दृष्टि से विचार करें तो ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ की कई लघुकथाएं आधुनिकता की कसौटी पर खरी उतरती हैं|

      आज के दौर की कई लघुकथाओं में नगरीय जीवन की भागदौड़ भरी जिंदगी के कारण बुजुर्गों की दयनीय होती जा रही स्थिति को खूब चित्रित किया गया है| परन्तु रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊंचाई’ इन सबसे अलग हटकर है| यहां पिता जिस ऊंचाई पर खड़े हैं उसे देखकर एक ताजगी का अहसास होता है| यह लघुकथा सिर्फ कथ्य की दृष्टि से ही नहीं वरन अपनी संवेदनात्मक छुअन के लिए भी उल्लेखनीय है| रामयतन यादव की ‘डर’ में भी कमोबेश यही स्वर उभरकर आया है परन्तु तनिक भिन्न संदर्भ में| यहां मरणासन्न माधव अंकल का स्वाभिमान मन को भिगो देता है| डॉ.रामनिवास मानव की लघुकथा ‘दौड़’ भी गांव और नगर के बीच की खाई की ओर इशारा करती है| प्रतापसिंह सोढ़ी ‘शहीद की माँ’ में शहीद बेटे की तस्वीर के माध्यम से देश की दुर्दशा के बीच स्वतंत्रता दिवस की धूमधाम के विरोधाभास को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत करते हैं| ज्योति जैन की ‘अपाहिज’ लघुकथा सोच को सार्थक दिशा देने वाली एक सशक्त लघुकथा है| इसमें पायल अपाहिज यश को अपना जीवन साथी चुनती है क्योंकि वह स्वयं फैसला लेने में सक्षम है| अमन पूर्णतया स्वस्थ होते हुए भी रीढ़विहीन है क्योंकि जिन्दगी के अहम् फैसले स्वयं नहीं ले सकता| यश को चुनकर पायल न केवल साहस का परिचय देती है वरन समाज के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती है|

      सुकेश साहनी सदैव शिल्प और कथ्य के स्तर पर पुरानी जमीन तोड़ते रहे हैं| इस संग्रह की लघुकथा ‘बिरादरी’ में उन्होंने बड़े सधे हुए अंदाज में इस बात को रेखांकित किया है कि किस तरह मनुष्य का व्यवहार सामने वाले के स्टेटस को देखकर पल-पल रंग बदलता है| भाषा के स्तर भी उन्होंने ध्यानाकर्षक प्रयोग किए हैं यथा, ‘किसी पुराने परिचित से सामना होने की आशंका मात्र से मेरे कान गर्म हो उठे’, ‘दांयीं आंख के नीचे बड़े-से मंसे के कारण मुझे अपने बचपन के दोस्त  सीताराम को पहचानने में देर नहीं लगी’, ‘मैंने प्यार से  उसकी तौंद को मुकियाते हुए कहा|’ साहनी की ‘आईना’ भी एक स्थापित उपन्यासकार की गरीबों के प्रति सहानुभूति के खोखलेपन को आईना प्रतीक के माध्यम से एकदम मौलिक तरीके से अभिव्यक्त करती है|

       मुरलीधर वैष्णव की ‘पॉकेटमार’ तीर्थस्थलों पर पंडे-पुजारियं द्वारा की  जाने वाली लूट पर प्रकाश डालती है तो अंजु दुआ जैमिनी की ‘कमाई का गणित’ इन पवित्र स्थलों पर दुकानदारों द्वारा भक्तों के साथ की जाने वाली चालाकियों का रोचक बयान है| संग्रह की कई लघुकथाओं में दरकते रिश्तों को नयेपन के साथ विश्वसनीय तरीके से चित्रित किया गया है| ये लघुकथाएं हैं आशा शैली की ‘खोटा सिक्का’, कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ व ‘सहारे’, ज्योति जैन की ‘झप्पी’, कृष्णकुमार यादव की ‘बेटे की तमन्ना’, शकुन्तला किरण की ‘कोहरा’, सुरेश शर्मा की ‘भूल’ , अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘वसीयत’ आदि| इनमें से कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ को पाठक लम्बे समय तक भूल नहीं पायेंगे| पोता पेंटिंग में घर बनाता है, घर में अलग-थलग सर्वेंट क्वार्टर| पिता खुश होता है कि बेटा सर्वेंट के लिए भी अलग घर बना रहा है| इस पर बेटा कहता है कि यह आपके लिए है, जब बूढ़े हो जाओगे तब इसमें रहोगे| दादाजी भी तो सर्वेंट क्वार्टर में ही रहते हैं| यह लघुकथा उस पुरानी कहानी का  आधुनिक परिवेश में सार्थक रूपान्तरण है जिसमें बेटा मिट्टी के बरतन को संभालकर रखता है जिसमें दादाजी को बचा-खुचा खाना खिलाया जाता रहा है| सूर्यकान्त नागर की ‘कुकिंग क्लास’ तथा डॉ.सुधा जैन की ‘समाज सेवा’ सास-बहू के रिश्तों के तनाव को नये ढंग से परिभाषित करती हैं| अर्थहीन होते जा रहे रिश्तों को लेकर प्रभात दुबे की ‘गर्म हवा’ जबर्दस्त लघुकथा है| यह रचना वृद्ध लोगों की त्रासदी को घनीभूत संवेदना के साथ प्रस्तुत करती है| यह जानकर कि शर्माजी को उनके बेटे-बहू ने वृद्धाश्रम भेज दिया है, उनके साथ रोज घूमने वाले शेष दो वृद्ध बुरी तरह सहम जाते हैं| उन्हें अपना भविष्य दिखने लगता है| ट्रीटमेंट के लिहाज से यह लघुकथा बेहद सशक्त है|

       यह सच है कि आज के समय में तमाम रिश्ते बेमानी होते जा रहे हैं, वृद्धजन लगातार अपनों ही के द्वारा अपमान झेलने को मजबूर हैं और स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं| ऐसे में डॉ.दिनेश पाठक शशि की ‘साया’ एवं डॉ.योगेन्द्र नाथ शुक्ल की ‘टूटी घड़ी’ अंधेरे में प्रकाश की बारीक लकीर की तरह नयी आशा जगाती है| ‘साया’ में अपनी बीमार वृद्धा मां की मृत्यु पर बेटा स्वयं को अकेला और अनाथ-सा अनुभव करता है जबकि ‘टूटी घड़ी’ में पुत्र अपनी मां की निशानी स्वरूप बची एक टूटी घड़ी के प्रति पिता के भावनात्मक लगाव को देखकर उसे कमरे से फेंकने की बजाय पुनः वहीं रख देता है| ये दोनों लघुकथाएं इस बात के प्रति आश्वस्त करती हैं कि अभी तक मानवीय संवेदनाएं पूरी तरह  मरी नहीं हैं कि अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है|

      संग्रह में ऐसी लघुकथाएं भी हैं जिनमें अभावग्रस्त आम आदमी की भूख और जिल्लत भरी जिंदगी को नये शिल्प और अछूते प्रतीकों के माध्यम से वाणी दी गई है| पेट की ‘आग’(देवांशु पाल) ‘भूत’(डॉ.पूरन सिंह) पर भारी पड़ती है| ‘भूत’ लघुकथा का नायक भूख के आगे बेबस होकर श्मशान घाट पर रखे भोजन को ग्रहण करने से भी भयभीत नहीं होता है| ‘पैण्ट की सिलाई’(डॉ.रामकुमार घोटड़), ‘साहब का कुत्ता’(आकांक्षा यादव), ‘पसीना और धुंआ’(अंजु दुआ जैमिनी), ‘सोने की चेन’(डॉ.रामनिवास मानव) तथा ‘पहली चिन्ता’(डॉ.कमल चोपड़ा) लघुकथाएं आम आदमी की बेबसी को अपने-अपने ढंग से बयान करती है| डॉ.कमल चोपड़ा की ‘धर्मयुद्ध’ भी उल्लेखनीय है जो बेबाकी के साथ सांप्रदायिक दंगों के राजनीतिक मुखौटे को बेनकाब करती है| डॉ.सतीशराज पुष्करणा की ‘अंधेरा’ भी इसी अंधेरे पक्ष के चलते चारों ओर पसरे वैचारिक शून्य को भरने की सर्जनात्मक कोशिश है|

       संग्रह में कुछ और लघुकथाएं हैं जो कथ्य या शिल्प की ताजगी के चलते अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं| ये हैं ‘विरेचन’(डॉ.पुरुषोत्तम दुबे), ‘गुस्सा’(गुरुनाम सिंह रीहल), ‘मामाजी’(नदीम अहमद नदीम), ‘यकीन’, ‘भरोसा’(निशा भोंसले), ‘घिसाई’(राजेन्द्र साहिल), ‘प्रश्न चिह्न’(प्रदीप शशांक), ‘फर्क’(इंदु गुप्ता), ‘मध्यस्थ’(मालती बसंत), ‘सुकन्या’(कुंवर प्रेमिल) और ‘नया क्षितिज’(साधना ठकुरेला)| ‘विरेचन’ में चुटीले संवादों के माध्यम से पर निंदा सबसे बड़ा सुख कहावत को चरितार्थ किया गया है तो ‘गुस्सा’ में कायर का गुस्सा सदैव कमजोर पर निकलता है को| ‘मामाजी’ और ‘नया क्षितिज’ में पुरुष मानसिकता पर सार्थक चोट की गई है| साधना ठकुरेला ने चिड़े का प्रतीक लेकर एक नयी बात कही है कि नर किसी भी प्रजाति का हो नारी के प्रति  उसका रवैया सदा समान रहता है|

       आज भ्रष्टाचार ने इस कदर शिष्टाचार का रूप धारण कर लिया है कि ईमानदार आदमी की निष्ठा भी अविश्वसनीय लगती है(यकीन)| दूसरी ओर राजेन्द्र सिंह साहिल की ‘घिसाई’ ईमानदार आदमी के भोलेपन और तद्जन्य बेबसी को बताती है| निशा भोंसले की ‘भरोसा’ में पिता द्वारा जवान बेटी को दिया गया यह जवाब मन को झिंझोड़कर रख देता है, ‘तुम पर (भरोसा) है पर इस शहर पर नहीं|’ यह अकेला वाक्य लोगों की मानसिकता पर एक मुकम्मल बयान है| ‘प्रश्न चिह्न’ समय के साथ लोगों के बदलते मिजाज का अच्छा जायजा लेती है| यहां तलाक मिल जाने की खुशी(?) में युवती को मिठाई बांटते हुए दिखाया गया है| संतोष सुपेकर की ‘उलझन’ तथा ‘एक और जानवर’ भी नयी जमीन पर खड़ी दिखायी देती है| लेखक जब एक व्यक्ति को घायल बैल पर गाड़ी चढ़ाते देखता है तो उसकी यह टिप्पणी बहुत कुछ कह देती है, ‘सबने  केवल एक जानवर देखा, पर मैंने दो जानवर देखे, एक चौपाया और एक दोपाया|’ वस्तुतः आज समाज में दोपाये  जानवरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जिनके प्रति एक साहित्यकार ही अपनी लेखनी द्वारा लोगों को सचेत कर सकता है|

      आजकल जातिवाद भी हमारे समाज में नासूर की तरह फैलता जा रहा है| अफसोस कि राजनेता अपने नहित स्वार्थों के लिए इस सड़ांध को बचाए और बनाये रखना चाहते हैं| हालांकि जातिवाद के इस पहलू पर गौर करने वाली लघुकथाओं का अभाव है फिर भी इसके परंपरागत कारणों पर प्रहार करने वाली कतिपय लघुकथाएं यहां संकलित की गई हैं| ये लघुकथाएं हैं त्रिलोक सिंह ठकुरेला की ‘रीति-रिवाज’, आनन्द कुमार की ‘विभेद’, ‘अपवित्र’ अशोक भाटिया की ‘बंद दरवाजा’ तथा डॉ.सुरेश उजाला की ‘जातिगत द्वेष|’

      यद्यपि सभी लघुकथाओं में यथार्थ को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है और भाषा के प्रति भी पर्याप्त सावचेती बरती गई है फिर भी कहीं-कहीं असावधानीवश कुछ छिद्र रह गये हैं| उदाहरण के लिए जातिगत भेदभाव की मनोवृत्ति पर प्रहार करने वाली लघुकथा ‘विभेद’ का आरंभ यों होता है, ‘बात आज से 20-25 साल पूर्व की है|’ यह पंक्ति अनावश्यक है और लघुकथा के शिल्प को क्षति पहुंचाने वाली है| लगता है जैसे लेखक किसी सत्य घटना का बयान करने जा रहा है| इसी तरह ‘सोने की चेन’ लघुकथा जो आरंभ में बहुत सहजता के साथ आगे बढ़ रही होती है कि ‘मैं’ पात्र द्वारा चेन वाले से पूछा गया यह प्रश्न पाठकों को चौंका देता है, ‘भाई, यदि तुम्हारी चेन इतनी बढ़िया है तो इसे अपनी बेटी और बीवी को क्यों नहीं पहनाते?’ यह वाक्य यथार्थ को खंडित करने वाला है क्योंकि लघुकथा में कहीं नहीं बताया गया है कि लेखक (मैं) ने चेन वाले की बीवी व बेटी को पहले कहीं देखा है कि ये दोनों नकली चेन नहीं पहने हुए हैं| पाठक के मन में तो यह सवाल भी उत्पन्न होता है कि लेखक को कैसे पता कि चेन वाले के एक बेटी भी है| जरा सी असावधानी लघुकथा की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है| एक लघुकथा में वाक्य प्रयोग आता है, ‘उल्लास से छलकता, उसका मन सहसा बुझ गया|’ बुझता वह है जो जलता है| छलकने वाला तो रीतता है| अतः यहां छलकने के साथ बुझना का प्रयोग अप्रासंगिक है| एक और लघुकथा में वाक्य-खण्ड आता है, ‘एक पान के ठेले के सामने खड़े रिक्शेवाले की वजह से’ जबकि होना चाहिए ‘पान के एक ठेले के सामने...|’

        कुल मिलाकर  ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ संग्रह की आधिकतर लघुकथाओं में नये शिल्प और संवेदना के साथ समकालीन जीवन मूल्यों तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों का गहराई के साथ जायजा लिया गया है| ये लघुकथाएं निस्सन्देह पाठकों को रोजमर्रा की समस्याओं पर नये सिरे से सोचने के लिए बाध्य करेंगी|
  •   संदर्भ-आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं, संपादक-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रकाशक-अरिहन्त प्रकाशन, जोधपुर

माधव नागदा


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