चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
जानती हैं बारिशें
किसको क्या देना है
जानती हैं बारिशें
बचपन को कागज़ की नाव
ढेर सा हुड़दंग
कैशोर्य को मस्ती
खूब उल्लास
यौवन को प्रेम
बहकने का वरदान
प्रौढ़ को आलस की चादर
छान की, खेतों की फ़िक्र
बूढ़ों को सेहत का लिहाफ़
चुस्की-दर-चुस्की चाय
बड़े ही अदब से
आती हैं बारिशें
उम्र के तकाज़े के साथ
सौंप जाती हैं
हर एक पड़ाव को
मनमाफ़िक सौगात
ए बारिश !
ए बारिश !
इतना भी न बरस
कि भीतर तक भीग चुके
गीले तटबंध
भरभरा कर ढह जाएँ
लबालब नदी का उफ़ान
कहीं तोड़ न दे तटबंध
बहा ले जाए मर्यादाएँ
छोड़ जाए
टूटे-फूटे घर
अविरल अश्रु धार
टुकड़े-टुकड़े दिल
ए बारिश !
इतना भी न बरस
बारिश का दर्द
कल शाम
बेकल-सी
अनमनी-सी बारिश
उतरी अंबर से
लाई साथ
कुछ उलाहने
कुछ इल्ज़ाम
बोली कलम थाम
चाहती हूँ रिहाई
इन पुर्ज़ों की कैद से
मत बाँधो मेरे हुस्न को
जुल्फ़ों पर गिरी बूँदों में
नहाई-झूमती फ़सलों
नम फूलों-कलियों की
पाकीज़ा खूबसूरती हूँ मैं
सौंधी मिट्टी की महक में
मोर की थिरकन में
नंग-धड़ंग बच्चों के हुड़दंग में
मैं तो उमंग हूँ
बेहिसाब मतवाली !
टिन की छत पर
बजती हूँ जलतरंग-सी
धड़कते दिलों को
मदहोश करता है
मेरा मादक संगीत
भीगती अमराइयों में
कोयल की कुहक में
पपीहे की टेर में
सावन के गीतों में
कजरी-मल्हार में
रूह से उठती तान हूँ
कभी सुनो तो सही
नाउम्मीद किसान की
पथराई आँखों में
उम्मीद हूँ ज़िंदगी की
मिट्टी में पड़े बीजों से
उगाती हूँ खुशियाँ
जो गाती हैं
सब से मीठे गीत !
फ़लक पर
बादलों के साथ
तमाम दुनिया के ख्व़ाब
कर देती हूँ इन्द्रधनुषी
मेरी बूँदों से भीग उठती है धरा
जो बन जाती है दुआ
ज़िंदगी के लिए
ख़ुदा का नूर हूँ
कागज़ पर नहीं
कायनात में हूँ
लफ़्ज़ों में नहीं
एहसासात में हूँ
इस सुरूर में
कभी बहो तो सही
बोलती रही बारिश
भीगती रहीं आँखें
बारिश के साथ
बारिश के दर्द में
इन बारिशों को
कभी पढो़ तो सही ।
अर्थाना स्वयं को
प्रेम की सुहानी पुरवा संग
संवेदना के मेघों की
अमृत-सी बरखा लेकर
आओ न बीज !
प्यासी धरा
आकुल है
आतुर है
हरियाने को
स्वयं को अर्थाने को
सुनो बीज !
तुम्हीं तो अर्थाते हो
उसका होना
तुम्हें अंकुरित होते देख
नर्तन करता है
धरा का पोर-पोर
नव-पल्लव का
मुस्काना
लहलहाना ही
बंजर होती धूसर धरा का
जी उठना है
सुनो बीज !
तुम्हीं से तो है
धरा का वसंत
फूलों की बहार
ख़ुश्बुआता
रूप-शृंगार
मौसमों की मार
प्रचंड धूप
ठिठुरती शीत से
ठूंठ होती धरा का
तुम्हीं हो वसंत
तुम हो तो
धरा, धरा है
उगना-खिलना-महकना-चहकना
जीवन के सब उपक्रम
तुम्हीं से तो हैं
यही सत्य है
तुम से ही है
धरा का धरा होना
तुम्हारा समर्पण
तुम्हारा अर्थाना
अर्थाता है धरा को
यही शाश्वत क्रम है
यही शाश्वत सत्य
तुम्हें अपने अंक में समेट
धरा अर्थाती है स्वयं को
इस सृष्टि को
संपूर्ण जगती को
धरा और बीज का
एक होना ही
नवसृजन है
नवजीवन है
युगों-युगों से
सुनो बीज !
अर्थाओ
स्वयं का होना
ताकि धरा
अर्था सके
अपना होना
जन्म-जन्मांतर
सुशीला शिवराण
जलवायु टॉवर्स सेक्टर-56,
गुड़गाँव–122011
दूरभाष–09650208745
ईमेल-sushilashivran@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें