विनोद शाही की कलाकृति |
खुशबू देते कोमल फूलों जैसे..
खुशबू देते कोमल फूलों जैसे रिश्ते
ना जाने क्यों आज बन गए काँटे रिश्ते
सहलाते थे दर्द दिलों का मरहम लाकर
अब महरूम हुए हाथों से गहरे रिश्ते
खिल जाते थे नैन चार होते ही जो कल
नैन मूँद बन जाते अब, अनजाने रिश्ते
बूँद-बूँद से बरसों में जो हुए समंदर
बाँध पलों में तोड़ बने बंजारे रिश्ते
हरे भरे रहते थे भर पतझड़ में भी जो
अब सावन में भी दिखते हैं सूखे रिश्ते
तकरारों में पूर्व बनी माँ, पश्चिम बाबा
सुपर सपूतों ने कुछ ऐसे बाँटे रिश्ते
नादानी थी या शायद धन-लोभ 'कल्पना'
गाँव-गली से बिछड़ गए जो प्यारे रिश्ते
दिलों से तंग शहर के सिवा..
खुदा से माँगा मेहर के सिवा कुछ और नहीं।
दुआएँ देती नज़र के सिवा कुछ और नहीं।
दुखा के गाँव का दिल चल दिये मिला लेकिन
दिलों से तंग शहर के सिवा कुछ और नहीं।
पिलाके नाग को पय, बाद पूज लो चाहे
मिलेगा दंश-ज़हर के सिवा कुछ और नहीं।
चमन को सींच लहू से है सोचता माली
गुलों की लंबी उमर के सिवा कुछ और नहीं।
लिया तो सौख्य नई पौध ने बुजुर्गों से
दिया है रंज-फिकर के सिवा कुछ और नहीं।
जवाबी तोहफे मिलेंगे हमें भी कुदरत से
सुनामी, बाढ़, कहर के सिवा कुछ और नहीं।
जो जानते ही नहीं, साज़, राग, उनके लिए
ग़ज़ल भी रूक्ष बहर के सिवा कुछ और नहीं।
विपन्न हैं जिन्हें दिखता हसीन दुनिया में
उदास शाम सहर के सिवा कुछ और नहीं।
कुछ ऐसा हो कि बसे “कल्पना” हरिक जन के
हृदय में प्रेमनगर के सिवा कुछ और नहीं।
खुदा से खुशी की लहर..
खुदा से खुशी की लहर माँगती हूँ।
कि बेखौफ हर एक घर माँगती हूँ।
अँधेरों ने ही जिनसे नज़रें मिलाईं
उजालों की उनपर नज़र माँगती हूँ।
जो लाए नए रंग जीवन में सबके
वे दिन, रात, पल, हर पहर माँगती हूँ।
जो पिंजड़ों में सैय्याद, के कैद हैं, उन
परिंदों के आज़ाद, पर माँगती हूँ।
है परलोक क्या ये, नहीं जानती मैं
इसी लोक की सुख-सहर माँगती हूँ।
करे कातिलों के, क़तल काफिले जो
वो कानून होकर, निडर माँगती हूँ।
दिलों को मिलाकर, मिले जन से जाके
हरिक गाँव में, वो शहर माँगती हूँ।
बहे रस की धारा, मेरी हर गज़ल से
कुछ ऐसी कलम से, बहर माँगती हूँ।
करूँ जन की सेवा, जिऊँ जग की खातिर
हे रब! ‘कल्पना’ वो हुनर माँगती हूँ।
गंध-माटी में बसी..
गंध-माटी में बसी, माँ भारती की शान है।
गर्व-गौरव सिंधु हिन्दी, देश की पहचान है।
भाव, रस, छंदों से है, परिपूर्ण हिन्दी का सदन
जिसपे भारतवासियों को सर्वदा अभिमान है।
थामती ये हाथ हर भाषा का है कितनी उदार!
मान हिन्दी का किया जिसने, लिया सम्मान है।
गैर आए, बैर आए, टिक न पाए पैर पर
मात खा हर घात ने, वापस किया प्रस्थान है।
छद्म-छल क़ाबिज़ हुए, जड़ खोदने को बार-बार
पर मिटे हिन्दी की हस्ती, यह नहीं आसान है।
बेल अमर हिन्दी की ये, बढ़ती रहेगी युग-युगों
कंटकों को काट जो, चढ़ती रही परवान है।
चाहती साहित्य-सरिता, हक़ से अपना पूर्ण हक़
हर दिशा में ज्यों बहे, हिन्दी का ये अरमान है।
गौण हैं अपने वतन में, किसलिए हिन्दी के गुण?
जबकि इसका विश्व सारा, कर रहा गुणगान है।
जागते रहना है ज्यों मुरझा न जाए फिर चमन
‘कल्पना’ हिन्दी से ही गुलज़ार हिंदुस्तान है।
जिनके मन में सच की..
जिनके मन में सच की सरिता बहती है
उनकी कुदरत भी होती हमजोली है
जब-जब बढ़ते लोभ, पाप, संत्रास, तमस
तब-तब कविता मुखरित होकर बोली है
शब्द, इबारत, कागज़ चाहे चुराए कोई
गुण, भावों की होती कभी न चोरी है
होते वे ही जलील जहाँ के तानों से
बेच ज़मीर जिन्होंने ‘वाह’ बटोरी है
खोदें खल बुनियाद लाख अच्छाई की
इस ज़मीन में बंधु! बहुत बल बाकी है
बनी कौन सी सुई? सिये जो सच के होंठ
किए जिन्होंने जतन, मात ही खाई है
पानी मरता देख कुटिल बेशर्मों का
माँ धरती भी हुई शर्म से पानी है
कलम ‘कल्पना’ है निर्दोष रसित जिसकी
रचना उसकी खुद विज्ञापन होती है
कल्पना रामानी
- जन्म तिथि-6 जून 1951 (उज्जैन-मध्य प्रदेश)
- शिक्षा-हाईस्कूल तक
- रुचि- गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि।
- वर्तमान में वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की सह संपादक।
- प्रकाशित कृतियाँ-नवगीत संग्रह-‘हौसलों के पंख’
- निवास-मुंबई महाराष्ट्र
- ईमेल- kalpanasramani@gmail.com
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बहुत सुन्दर ग़ज़लें ..बधाई दीदी
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