कमला कृति

सोमवार, 20 जुलाई 2015

मंजुल भटनागर की रचनाएँ


 चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


नदी 



नदी का जल
बादल की बूंद बन
बहता है घने जंगल की
डालियों पर
मुग्ध हो जाता है वह
एकाकार हो
जंगल झाँकने लगता है उसमे

साफ़ परिदृश्य
पाखी ,तितली ,हिरण और
अनछुई बदली
छू लेती है
नदी का अंतर्मन

जब नदी बर्फ हो
बूंद बूंद बन उड़ रही थी
तो भी नदी का रंग
श्वेत ही था
उडती भाप सा

नदी हमेशा से पाक
पवित्र थी,
जब गाँव गाँव भटकी
जब शहर घूमी
जब समुन्द्र से ,मिली
या फिर बादल बन ढली

बचा सको तो नदी का रंग
बदरंग होने से
तो नदी बनना होगा
तर्पण करना होगा

अपने आँख की
बहती अश्रु धारा बचानी होगी
जहाँ से फूटते हैं सभी
आत्मीय स्त्रोत।



बुनता है मन



बुनता है मन
रोज हजारों अहसास
अलसाई सी आँखों में रोज
जैसे कोई रख जाए ढेरों ख्वाब।

सूरज रख जाता है
हजारों रंग अंजुरी में
चुग ने नही आती कोई चिड़िया
यूँ ही चलता रहता है परिसंवाद।

कुछ टुकड़े आसमान के रंगों के
मिलते हैं तितलियों के पंखों में
तितलियाँ सिमटती चित्रों में
खोलती अपने न मिलने का राज।

पुरानी सी हवेली
लिपि पुती सी मायूसी
खिड़की से कूद कर आती
ताज़ी हवा ओ गुनगुनाती एल्बम.
मिल जाय,
जैसे कोई अपना ख़ास।

हजारों चित्र समय के आगोश में
पहचान खोते
दूर उड़ता सा पाखी जैसे
खो जाए क्षितिज में उड़ते उड़ते
हो जाय दृष्टी से ओझल
फिर न कभी
मिलने की हो आस।



जैसे सूरज की रोशनाई है..



कुछ बूंदें हैं
कुछ अमराई है
भीग गया कुछ अंतर्मन में
दूर नदी बह आई है
भीगा तन है भीगा अंतर्मन
भीग गयी तरुनाई है।

गुपचुप शाखें
चुप चुप सड़के टुकड़े होती
चुप्पी कहती रात अँधेरी
भूले ख़त ले आई है।

टुकड़े होते बेबस लम्हें
दिन भी बाँट जोहता
यादों के टुकड़े जुड़ जाते
वक्त चल रहा बिलकुल वैसे
जैसे खुदा की आशनाई है।

जिन्दगी इंद्रधनुष सी बन कर
वो पल फिर जी आई है
वो भूला मंजर
सर्द कहानी,लगे रूहानी
भीगा सा पनघट
इंद्रधनुष यूँ सोहे अम्बर
जैसे सूरज की रोशनाई है।



जीवन क्रम 



धान का पका खेत
खेत नहीं होता
होता है एक सदविचार
मशक्कत का उपहार

किसान के खेत में
छिपी रहती हैं अनगिनत आँखें
आशा की
भूख की
जीवन रस टपकता है
प्रेम बन

सूरज तपता है
भाप बन
बुनता है बादल
बरसता मेघ
सिर्फ पानी नहीं होता
प्रेम होता है

अम्बर से बरसता है नेह
धरती से कौंपल
झांकती है
जीवन क्रम यूँ ही निरंतर चलता है..!



कैसा रूप धरा..



जलमग्न धरा
देखा नही सूरज
मिलती नहीं किरने
बादल ने ली अंगडाई है
धरा ने यह कैसा रूप धरा।

बरसता मेह अविरल
हवाओं को साथ लिए
पातो पर बांसुरी बज रही
बुँदे टिप-टिप
घनघोर टपकारे
पंछी कहाँ जाएँ बेचारे।

आम पत्र झूम रहे
ले सुगन्ध डोल रहे
खोज रहे कोयलिया
नहीं सुनाती गीत आज
न जाने कहाँ छिपी हो ले साज।

बादल घनघोर हैं
नहीं मिल रहा छोर आज
मंद-मंद पछुआ हवा
बदली का दुकूल लिए
बह रही तरंगित आज।



मंजुल भटनागर


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अंधेरी पश्चिम, मुंबई 53।
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