कमला कृति

बुधवार, 8 अगस्त 2018

पुस्तक समीक्षा-पेट और तोंद : एक वैचारिक व्यंग्य-संग्रह-राहुल देव




          ‘पेट और तोंद’ व्यंग्यकार राजेन्द्र वर्मा का तीसरा व्यंग्य संग्रह हैl इस संग्रह में साहित्यिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों पर लिखे गए उनके 24 व्यंग्य शामिल हैं। इस संग्रह के व्यंग्यों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कोई एक-डेढ़ पृष्ठों वाला स्तम्भीय लेखन का संकलन नही है बल्कि इसमें संग्रहीत व्यंग्य विशुद्ध साहित्यिकता की दृष्टि से लिखे गये हैंl बिलकुल शरद जोशी की ‘तिलिस्म’ शैली की व्यंग्य कथाओं की तरह यहाँ राजेन्द्र जी ने शब्दसीमा के बंधन से बाहर निकलकर उन्मुक्त ढंग से अपनी बात कही है।

‘मैं’ शीर्षक संग्रह का पहला व्यंग्य तमाम ऐतिहासिक और साहित्यिक सन्दर्भों के साथ दार्शनिक अप्रोच के साथ लिखा गया अपनी तरह के एक अलग आस्वाद का व्यंग्य है। इस व्यंग्य से एक अंश देखें, ‘’मैं’ अभिमान और स्वाभिमान से बना है, पर दोनों ऐसे हिल-मिल रहते हैं, कि उन्हें पहचानना कठिन है। बुद्धि स्वाभिमान की रक्षा करना सिखाती है पर, स्वाभिमान कब अभिमान में बदल जाता है, पता नही चलता! जिस अनुपात में ‘स्व’ की मात्रा बढ़ती है, उसी अनुपात में ‘अहम्’ की मात्रा भी बढ़ती है। अहम् खाज की तरह होता है, जितना खुजाओ उतना ही मज़ा! जलन का पता तो बाद में चलता है। अस्थिर बुद्धि पहले अहंकार को जन्म देती है, फिर पराजय के आँसुओं से उसका शमन करती है।’


        शीर्षक व्यंग्य ‘पेट और तोंद’ में ‘पेट’ श्रम और ‘तोंद’ पूँजी के प्रतीक के रूप में आया है। व्यंग्य करते हुए लेखक एक जगह लिखता है, ‘पेट और तोंद की मिश्रित रुई के ढेर को जब व्यवस्था की तकली से काता जाता है, तो ‘हम’ और ‘वे’ नामक दो प्रकार के मोटे और महीन धागे निकलते हैंl देश की सवा अरब आबादी में से एक सौ चौबीस करोड़ ‘हम’ हैं, तो एक करोड़ ‘वे’। लोकतंत्र की दृष्टि से हम ‘लोक’ हैं, तो ‘वे’ तंत्र। हम ‘पेट’ हैं तो वे ‘तोंद’। इस प्रकार ‘हम’ और ‘वे’ की हेमिंग्वे थ्योरी को तोंद अपडेटेड रखती है ताकि आने वाली पीढ़ियों के सामने पेट और तोंद की पहचान का संकट न उत्पन्न हो।‘


’धोती और सरकार’ शीर्षक व्यंग्य बाजारवादी व्यवस्था के पाखंड पर तीखी चोट करता हैl इस व्यंग्य में लेखक ने स्थानीयता को भी जगह दी है। इस एक पंक्ति में वह मानो पूरे व्यंग्य का सार सा प्रस्तुत कर देता है, ‘प्रबल आस्था के लिए आँखों का बंद होना बहुत जरुरी है।’ बाज़ार की नित नई चालों को भांपकर वह पाठक को सावधान करते हुए इसी में एक जगह और वह लिखता है, ‘हम भेली बनाने में लगे हैं। बदले में शैम्पू, बिस्कुट, बर्गर, पिज्जा, कैम्पाकोला, मोबाइल लैपटॉप, फेसबुक, चैटिंग जैसी चीज़ें पाने के लिए बेताब हैंl यह नए किस्म का व्यापार है, नयी गुलामी का आगाज़ है! इस गुलामी को लागू करने में हममें से कितने ही विभीषण सहयोग कर रहे हैं।‘ 


’क’ से कविता’ समकालीन कविता की दशा-दिशा पर आलोचनात्मक दृष्टि से लिखा गया सार्थक व्यंग्य हैl यह व्यंग्य हमें लेखक की अध्ययनशीलता से भी परिचित कराता हैl तमाम व्यंग्योक्तियों और उदाहरणों के माध्यम से लेखक कविता के क्षेत्र में छाए हुए कुहासे को दिखाता हैl राजेन्द्र वर्मा के पास व्यंग्य लेखन की पूरी सलाहियत हैl बेहद सहज-सरल प्रवाहमय भाषा-शैली। अपने लेखन में व्यंग्यकार अपने अनुभवों का बहुत अच्छा रचनात्मक प्रयोग करते नज़र आते हैंl वे तल्ख़ भी होते हैं तो भाषा का संयम नही खोते दिखते, बल्कि तार्किक ढंग से पाठक से रूबरू होते हैंl निश्चय ही व्यंग्य-लेखन उनके लिए बेहतर जीवन की तलाश करती हुई एक सरोकारी विधा हैl उसके उद्देश्य को लेकर उनमें कोई भ्रम नही है।


‘ज्ञ’ से ज्ञानी शीर्षक व्यंग्य में उन्होंने विभिन्न धर्मों में मौजूद वर्ण व्यवस्था की पड़ताल व्यंग्य के दायरे में रहकर की हैl वह जिस प्रकार धर्म और जातियों के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रहार करते हैं उसकी आवाज़ दूर तक सुनायी देने वाली साबित हुई हैl विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए यहाँ पर साहसपूर्ण संतुलित व्यंग्य कौशल की आवश्यकता थी जिसे लेखक बखूबी साध ले गया हैl वह साफ़ शब्दों में लिखता है, ‘आज ज्ञानी की पहचान यह है कि वह संसार को भय का पाठ पढ़ाये और भयमुक्ति के चालू नुस्खे बेचकर अपनी तिजोरी भरे!’ निम्न समझी जाने वाली जातियों के बीच विद्यमान श्रेष्ठताभाव को भी रेखांकित करते हुए वह अक्षरशः सत्य और धारदार टिप्पणी करते हैंl उनके व्यंग्यबाणों से कोई नही बच पाता।


‘तथापि’ शीर्षक व्यंग्य सामाजिक शब्दों के आशयों में निहित अर्थों पर की गयी एक व्यंग्यात्मक चुटकी है- ‘किसी भी मोहल्ले में यह आसानी से सुना जा सकता है कि वर्मा जी का लड़का शराबी अवश्य है, तथापि बदचलन नही! या फिर, शर्मा जी की बेटी के कई बॉयफ्रेंड हैं, तथापि उसके चरित्र के बारे में कोई ऊँगली नही उठा सकता।... दहेज़ लेना यों तो अच्छी प्रथा नही है, तथापि यदि न लिया जाए, तो बेटी के विवाह में क्या दिया जाए? अथवा, सामने वालों का वेतन अधिक तो नही, तथापि ऊपरी कमाई इतनी अधिक है कि उनकी दो पीढ़ियों को हाथ-पाँव हिलाने की आवश्यकता नहीं!’ इसी व्यंग्य से एक बेहतरीन अंश और द्रष्टव्य है, ‘तथापि’ अविवाहितों और विधुरों का रेड एरिया है, तो स्त्रियों का पर्दा हैl साधु-संतों का मनोरंजन है, पुलिस वालों की कैप है, नेता की टोपी है, जज का गाउन है!... यह पब्लिक की चुटहिल आत्मा का मरहम है!... तुलसीदास की दो अर्धालियों- ‘होइ है सोई जो राम रचि राखा’ और ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ को आपस में जोड़ने वाला आस्था का फेविकोल है।’


जहाँ एक ओर राजेन्द्र जी ने दीमक, घोंघा, केंचुआ, सांप और मुर्गा जैसे लघु जीवों के बहाने से सफल प्रतीकात्मक व्यंग्य लिखे है, वहीं ‘ब्राह्मण और श्रमण’ जैसे प्रखर व्यंग्यसंपन्न विचारात्मक आलेख भीl इन्हें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर की गयी उनकी बेबाक वैचारिक टिप्पणियाँ भी कह सकते हैंl इन्हें पढ़कर पाठक को समय-समाज को जानने का एक अलग नज़रिया प्राप्त होता हैl लेखक ने इस संग्रह में हर ज्वलंत मुद्दे को गहरे तक छुआ हैl ‘यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते’ में जहाँ उन्होंने समकालीन स्त्री विमर्श का अपनी तरह से जायजा लिया है, वहीं आज की स्त्री के सामने दोतरफा चुनौती की भी पड़ताल की है। आधुनिकता स्त्री को घर से बाहर निकाल कर उसका शिकार करना चाहती है, तो परंपरा उसे घर के भीतर ही मार डालना चाहती है। ऐसे में उसे अपने विवेक पर भरोसा करके कदम बढ़ाना ही ठीक होगा। लेखक ने  ‘झूठै भोजन, झूठ चबेना’ लिखकर पौराणिक गाथाओं के पठनीय प्रसंगों को हमारे समक्ष रखकर उनकी व्यंग्यपूर्ण तार्किक व्याख्या की हैl इस प्रकार उनके लेखन में बड़ी ही विविधता हैl वह इतिहास में कभी पीछे जाते हैं और फिर उसे एक परिपक्व लेखक की तरह वर्तमान की समस्याओं से जोड़ते हुए आसानी से लौट भी आते हैंl अपने पूरे लेखन में राजेन्द्र वर्मा उपेक्षितों की लड़ाई लड़ते नज़र आते हैंl उनकी पक्षधरता सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हुए व्यक्ति के साथ हमेशा बनी रही है |


व्यंग्य साहित्य के प्रति समर्पित राजेन्द्र वर्मा बगैर किसी शोर-शराबे के चुपचाप अपना लेखन करने वाले लोगों में से हैंl मेरी दृष्टि में वह समकालीन व्यंग्य समय के ज़रूरी हस्ताक्षरों में से एक हैंl उनका यह व्यंग्य संग्रह पठनीय भी है और संग्रहणीय भी।


  • समीक्षित कृति-पेट और तोंद (व्यंग्य-संग्रह)/ व्यंग्यकार-राजेन्द्र वर्मा/ प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली/ संस्करण-प्रथम, 2017/ पृष्ठ संख्या-160/ मूल्य-300/-

समीक्षक-राहुल देव


-9/48 साहित्य सदन, 
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), 
सीतापुर, उ.प्र. 261203 
मो. 9454112975

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-08-2018) को "कर्तव्यों के बिन नहीं, मिलते हैं अधिकार" (चर्चा अंक-3059) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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