कमला कृति

मंगलवार, 21 जून 2016

नवीन सी चतुर्वेदी की ब्रज-ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


(एक)


मीठे बोलन कों सदाचार समझ लेवें हैं ।
लोग टीलेन कों कुहसार समझ लेवें हैं ॥

दूर अम्बर में कोऊ आँख लहू रोवै है।
हम यहाँ वा’इ चमत्कार समझ लेवें हैं ॥

कोऊ  बप्पार सों भेजै है बिचारन की फौज।
हम यहाँ खुद कों कलाकार समझ लेवें हैं ॥

पैलें हर बात पे लड्बौ ही सूझतौ हो हमें।
अब तौ बस रार कौ इसरार समझ लेवें हैं ॥

भूल कें हू कबू पैंजनिया कों पाजेब न बोल।
सब की झनकार कों फनकार समझ लेवें हैं ॥

एक हू मौकौ गँबायौ न जखम दैबे कौ।
आउ अब संग में उपचार समझ लेवें हैं ॥

अपनी बातन कौ बतंगड़ न बनाऔ भैया।
सार इक पल में समझदार समझ लेवें हैं ॥


(दो)


सब कछ हतै कन्ट्रौल में तौ फिर परेसानी ऐ चौं।
सहरन में भिच्चम –भिच्च और गामन में बीरानी ऐ चौं॥

जा कौ डस्यौ कुरुछेत्र पानी माँगत्वै संसार सूँ।
अजहूँ खुपड़ियन में बु ई कीड़ा सुलेमानी ऐ चौं॥

धरती पे तारे लायबे की जिद्द हम नें चौं करी।
अब कर दई तौ रात की सत्ता पे हैरानी ऐ चौं॥

सगरौ सरोबर सोख कें बस बूँद भर बरसातु एँ।
बच्चन की मैया-बाप पे इत्ती महरबानी ऐ चौं॥

सब्दन पे नाहीं भाबनन पे ध्यान धर कें सोचियो।
सहरन कौ खिदमतगार गामन कौ हबा-पानी ऐ चौं॥


(तीन)


कहाँ गागर में सागर होतु ऐ भैया।
समुद्दर तौ समुद्दर होतु ऐ भैया॥

हरिक तकलीफ कौं अँसुआ कहाँ मिल’तें।
दुखन कौ ऊ मुकद्दर होतु ऐ भैया॥

छिमा तौ माँग और सँग में भलौ हू कर।
हिसाब ऐसें बरब्बर होतु ऐ भैया॥

सबेरें उठ कें बासे म्हों न खाऔ कर।
जि अतिथी कौ अनादर होतु ऐ भैया॥

कबउ खुद्दऊ तौ गीता-सार समझौ कर।
जिसम सब कौ ही नस्वर होतु ऐ भैया॥

जब’इ हाथन में मेरे होतु ऐ पतबार।
तब’इ पाँइन में लंगर होतु ऐ भैया॥

बिना आकार कछ होबत नहीं साकार।
सबद कौ मूल - अक्षर होतु ऐ भैया॥


(चार)


अपनी खुसी सूँ थोरें ई सब नें करी सही।
बौहरे नें दाब-दूब कें करबा लई सही॥

जै सोच कें ई सबनें उमर भर दई सही।
समझे कि अब की बार की है आखरी सही॥

पहली सही नें लूट लयो सगरौ चैन-चान।
अब और का हरैगी मरी दूसरी सही॥

मन कह रह्यौ है बौहरे की बहियन कूँ फार दऊँ।
फिर देखूँ काँ सों लाउतै पुरखान की सही॥

धौंताए सूँ नहर पे खड़ो है मुनीम साब।
रुक्का पे लेयगौ मेरी सायद नई सही॥

म्हाँ- म्हाँ जमीन आग उगल रइ ए आज तक।
घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही॥

तो कूँ भी जो ‘नवीन’ पसंद आबै मेरी बात।
तौ कर गजल पे अपने सगे-गाम की सही॥


(पांच)


अँधेरी रैन में जब दीप जगमगावतु एँ। 
अमा कूँ बैठें ई बैठें घुमेर आमतु एँ॥

अब’न के दूध सूँ मक्खन की आस का करनी। 
दही बिलोइ कें मठ्ठा ई चीर पामतु एँ॥

अब उन के ताईं लड़कपन कहाँ सूँ लामें हम। 
जो पढते-पढते कुटम्बन के बोझ उठामतु एँ॥

हमारे गाम ई हम कूँ सहेजत्वें साहब। 
सहर तौ हम कूँ सपत्तौ ई लील जामतु एँ॥

सिपाहियन की बहुरियन कौ दीप-दान अजब। 
पिया के नेह में हिरदेन कूँ जरामतु एँ॥

तरस गए एँ तकत बाट चित्रकूट के घाट। 
न राम आमें न भगतन की तिस बुझामतु एँ॥



नवीन सी. चतुर्वेदी


  • 27 अक्तूबर 1968 को ब्रज-वैभव-कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा के मथुरास्थ माथुर चतुर्वेद परिवार में जन्मे  नवीन सी. चतुर्वेदी वैदिक-अध्ययन से तकनीकी-कारोबार तक का सफ़र करने वाले चुनिन्दा व्यक्तियों में शुमार होते हैं। मुम्बई में सीक्युरिटी-सेफ्टी-इक्विपमेण्ट्स के व्यवसाय में संलग्न, स्वभाव से संकोची नवीन जी छन्द, ग़ज़ल, गीत सहित काव्य की अनेक विधाओं के साथ ही साथ गद्य-लेखन से भी जुड़े हुये हैं। अन्तर्जालीय पोर्टल साहित्यम, लफ़्ज़ एवम् कविता-कोष आदि के सम्पादन से जुड़े हुये हैं। आपने कई ओडियो कैसेट्स के लिये लेखन किया है। आप ने ब्रज भाषा में न सिर्फ़ गजलें लिखी हैं बल्कि इस विधा को विधिवत स्थापित भी किया है। महाकवि बिहारी के भानजे कृष्ण कवि ककोर की वंश परम्परा से जुड़े ब्रज-गजल-प्रवर्तक नवीन जी को ब्रज-गजलों की पहली पुस्तक 'पुखराज हबा में उड़ गए' प्रस्तुत करने का श्रेय प्राप्त है। आप पिंगलीय-छन्दों व उर्दू-अरूज का अर्जित ज्ञान लोगों के साथ बाँटने को सहर्ष उद्यत रहते हैं। आप वर्तमान समय को साहित्य का क्षरण-काल मानते हैं तथा स्तरहीन-काव्य-आयोजनों के समक्ष सरस और वैचारिक कविताओं को पुनर्स्थापित करने के लिये समर्पित हैं। आप का सपना है जिस तरह उर्दू शायरी के पास उस का अपना प्रबुद्ध-श्रोता-वर्ग है, काव्य की अन्य विधाओं को भी उसी तरह अपने-अपने हिस्से का बुद्धिजीवी वर्ग हासिल करना चाहिये।

मंगलवार, 14 जून 2016

अन्ना अख्मातोवा की दो कविताएँ


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



मैं उनके साथ हूँ


मैं उनके साथ नहीं हूँ जिन्‍होंने
शत्रुओं की यंत्रणाओं के हवाले कर दी है यह भूमि
मैं उनकी चापलूसी के झाँसे में नहीं आऊँगी
उनके हाथों में नहीं सौंपूँगी अपने गीत।
कैदी की तरह, रोगी की तरह
हर निर्वासित लगता है मुझे दयनीय,
ओ यायावर, अंधकार से भरी है तुम्‍हारी राह
कसैला तो लगेगा ही दूसरों की रोटी का स्‍वाद।
यहाँ आग के बेआवाज धुएँ में
शेष बचे यौवन का गला घोंटते हुए
एक भी प्रहार का मुँहतोड़ जवाब
दे नहीं पाए हम आज तक।
मालूम है हमें कि विलंबित मूल्‍यांकन में
न्‍यायसंगत ठहराया जाएगा हर पल...
पर दुनिया में कहीं भी नहीं हैं ऐसे लोग
जो हमसे अधिक हों अक्‍खड़, अश्रुविहीन और सरल।


अमन का गीत


आकाश की लहरों पर झूलते
पर्वत और समुद्र पार करते
उड़ते रहो अमन की फाख्‍ता की तरह
ओ मेरे मधुर गीत !
बताओ उसे जो सुन रहा है
कितना पास है वह चिर-प्रतीक्षित युग
क्‍या हाल हैं मनुष्‍य के तुम्‍हारे देश में।
तुम अकेले नहीं, बढ़ती जाएगी गिनती
तुम्‍हारे साथ उड़ती फाख्ताओं की -
दूर-दूर तक इंतजार कर रहे हैं
स्‍नेहिल मित्रों के हृदय
उड़ते रहो तुम सूर्यास्‍त की ओर
कारखानों के दमघोंटू धुएँ की ओर
हब्‍शी बस्तियों
और गंगा के नीले पानी की ओर।
(रूसी से अनुवाद: वरयाम सिंह)

पुस्तक समीक्षा: गज़ल के क्षितिज को वुसअत देता एक मौलिक इज़हार-मयंक अवस्थी




                     पाल ले इक रोग नादाँ–गज़ल संग्रह/ ग़ौतम राजरिशी


मैं कई उपमायें सोच रहा हूँ कि क्या नाम दूँ इस किरदार को ?!! 'एक आतिशफिशाँ जिसने खुद को ज़ब्त कर रखा है' –एक सूरज जिसमें शीतलता है–एक चाँद जिसमें आँच है–लेकिन शायद तश्बीहों की असीरी की ज़रूरत नहीं है। मैं अगर सिर्फ कर्नल गौतम राजरिशी ही कह देता हूँ इस किरदार को तो सब शुमार हो जायेगा खुद ब खुद। गौतम बर्फ़ में सुलगती आग पर काबू रखने की नौकरी कर रहे हैं –यानी कश्मीर में भारतीय फौज में कर्नल के पद पर नियुक्त हैं। आप कहेंगे “कर्नल और शाइरी”?!” फौलाद का मोम से क्या रिश्ता ??!! लेकिन एक असम्भव से तसव्वुर को जीवंत और साकार देखने के लिये इस पुस्तक से गुज़र जाइये।

बहुत दिनों बाद एक मौलिक इज़हार सामने आया है 'पाल ले इक रोग नादाँ' के रूप में–शाइरी की बन्दिशों को तोडता हुआ नहीं, बल्कि गज़ल के क्षितिज को वुसअत देता हुआ। एक कैनवस जिसमें न्यूज़ पेपर, फोन , सिगार, सिगरेट, टावल, कार , बाइक , बैरक , बर्फ़ , समन्दर, साहिल सभी बिल्कुल सही जगह पर बनाये गये हैं और सुर्ख़ नहीं गुलाबी रंग से बनाये गये हैं- दिमाग़ से नहीं दिल से बनाये गये हैं। ये कैनवस एक शाइर की  तस्वीर बना रहा है जिसका नाम गौतम राजरिशी है। इस तस्वीर की शिनाख़्त मैं नहीं कर रहा बल्कि दौरे हाज़िर की शाइरी के सबसे मक्बूल सुतून यानी डा राहत इन्दौरी और मुनव्वर राअना कर रहे हैं। इस किताब का इलस्ट्रेशन साइज़ और इंतख़ाब सब विशिष्ट की श्रेणी में आता है। डा राहत इन्दौरी की बेहद सरगर्भित भूमिका भी इस संकलन में अवश्य बार बार पठनीय है –

शाइरी का संसार पहले से ही बहुत समृध है। इसे रिवायती, जदीद,अरूज़ ए फ़िक्रो फन वगैरह के मेयार पर आँकने वाले तनक़ीदकार भी बहुतायत में हैं –लेकिन इसमे ग़ालिब –इकबाल –फिराक और बशीर बद्र जैसे साहिर हुये हैं जिन्होने इस विधा की दिशा अपनी शख़्सीयत के दम पर अपने मुताबिक मोड दी और तनक़ीदकारों को ये मानने पर बेबेस किया कि अच्छे शेर का एक ही पैमाना है –कि वो सुनने वाले को अच्छा लगता है!! गौतम चाहते तो अरूज़ ए फ़िक़्रो फन की शायरी पर अपनी बुलन्द इमारत मंसूब कर सकते थे – मेयारी शेर आसानी से कहना उनकी क्षमता मे आता है। बानगी-

तू दौडता है हर पल बन कर लहू नसों में
तेरे वज़ूद से ही मैं भी हूँ फ़लसफ़ों में  (1)
उठी जब हूक कोई मौसमों की आवाजाही से
तेरी तस्वीर बन जाती है यादों की सियाही से (2)
धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ
चाँद उगा फिर अम्बर मालामाल हुआ (3)

लेकिन अरूज़ की शायरी शेर गौतम की वरीयता नहीं हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानस के हर अध्याय आरंभ संस्कृत के श्लोकों से किया है जो उनके समकालीन विद्वानो के लिये एक नज़ीर थी-कि अगर महज पांडित्य का ही प्रदर्शन करना होता तो तुलसी नि:सन्देह अपने समकालीन कवियों की कहकशाँ में चाँद की हैसियत रखते ही थे ।लेकिन तुलसी का ध्येय ही कुछ और था उन्हें अपने युग के बिखराव को तरतीब देनी थी –मर्यादा की सीमा रेखाये पुनर्निर्मित करनी थीं और नाउमीदी के दौर में लोकमानस को नई संचेतना देनी थी। इसलिये उन्होने रामचरित मानस  की भाषा लोकभाषा अवधी रखी। इसी के माध्यम से उनका काव्य अमर हुआ और आज तक मानस की चौपाइयाँ हमारी लोकमर्यादा की प्रतिनिधि हैं। दरअस्ल किसी भी युग की घनीभूत पीडा जब प्रवाहमय हुई है तो कविता के स्वरूप में ही ज़ाँविदानी सरहदों तक पहुंची है।शाइर को पैगम्बर से ठीक पहले का मर्तबा प्राप्त है क्योंकि उसकी पीडा में उसके समय को अपना इलहाम मिलता है। श्रुति हो या स्मृति , सामवेद की ऋचाये हों या उपनिषदों के श्लोक सभी गहरी तपस्या के समर होते हैं और निश्चित रूप से वो काव्य के स्वरूप में अपने अमरत्व का सफर तय करते हैं।गौतम ने भी ये इज़हार खुद को एक मोतबर शाइर के रूप में स्थापित करने के लिये नहीं किया है, उनका उद्देश्य एक सीमाप्रहरी के जीवनव्रत्त की काव्यमय प्रस्तुति  है-इसलिये उन्होने इस संकलन की भाषा की ग्राह्यशीलता को तज़ीह दी है और शब्द्चित्रों के मध्यम से यह तस्वीर बनाई है।एक फौजी जो अपने परिवार, अपनी जीवंत संवेदनाओं से देश का प्रहरी होने के कारण दूर है अपनी मन:स्थिति ग़ज़ल के माध्यम से कागज़ पर उकेरता है –और उसका बयान उसके जैसे लाखों सीमा प्रहरियों का दस्तावेज़ बन जाता है। पुस्तक का मूल स्वर विप्रलम्भ श्रंगार( हिज्र) है लेकिन इसके शेड्स एक खास ज़िन्दगी का पूरा स्पेक्ट्रम बनाते हैं-

ट्रेन ओझल हो गई इक हाथ हिलता रह गया
वक़्ते रुख़्सत की उदासी चूडियों में आ गई (1)
नाम तेरा कभी आने न दिया होंठों पर
हाँ तेरे ज़िक्र से कुछ कुछ शेर संवारे यूँ तो (2)
बस गयी है रग रग में बामो दर की खामोशी
चीरती सी जाती है अब ये घर की खामोशी (3)
रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे (4)

फैज अहमद फैज भी फौजी थे जिनकी शाइरी रूमान के मरहले से आगे बढ कर युग की पीडा की अमर शाइरी बन गई। कर्नल गौतम राजरिशी की अभिव्यक्ति में भी सामाजिक सरोकार के तमाम ज़ाविये पूरी शिद्दत जे साथ मौजूद हैं जो इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि यह सीमाप्रहरी देश की स्थितियों के प्रति किस कदर संजीदा और फिक्रमन्द है।इस बयान में सामाजिक संचेतना का स्वर खूब प्रखर और मुखर है। सियासी साज़िशें,आतंकवाद ब्यूरोक्रेसी की कलाबाजियाँ , आम आदमी का अवसाद , ढहते जीवन मूल्य और इन सब के बीच तडपती हुई मानवीय संवेदनायें –गौतम की अभिव्यक्ति को वैयक्तिक से उठा  कर वृहत्तर क्षितिज पर ले जाती हैं –

भेद जब सरगोशियों का खुल के आया सामने
शोर वो उठ्ठा है , अपना हुक्मराँ बेचैन है (1)
इधर है खौफ़ बाढ का, बहस में दिल्ली है उधर
नदी का ज़ोर तेज़ है कि बाँध में दरार है (2)
मसीहा सा बना फिरता था जो इक हुक्मराँ अपना
मुखौटा हट गया तो कातिलों का सरगना निकला(3)
मत करो बातें कि दरिया ने डुबोई कश्तियाँ
साहिलों ने की है जो उन साजिशों की बात हो (4)
कुछ अहले ज़ुबाँ आये तो हैं देने गवाही
आँखों से मगर ख़ौफ़ का साया न गया है (5)

गालिब की शाइरी मसाइले तसव्वुफ़ का रूहानी पैकर है – उनकी हर गज़ल क्लासिक गज़ल का जीवंत आइना है – इकबाल की शाइरी गुमराह कौम की रूह को कोंचती है जिसमें खोये हुये वैभव को फिर पा लेने की तडप है-उनके प्रतीक भी शाहीन जैसे हैं। जैसा शाइर का तस्व्वुर होता है वैसा ही उसकी शाइरी का कैनवस भी होता है ।इस हिसाब से गौतम का कैनवस बशीर बद्र के कैनवस के नज़दीक है – रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के चित्र शाइरी के मासूम प्रतीकों के साथ –जैसे कि बारिश की धीमी फुहार पड रही हो – धूप , किचन साडी , ज़ुल्फ़ , शावर,  शाम, सितारे फूल चाँद , जुगनू, तौलिया , बिस्तर . सिलवटें , गलियारा , चौबारा , आँगन , ओसरा , तितलियाँ , चूडियाँ , नींद ख़्वाब , बादल, आइना, बर्फ़ और ऐसे ही अनेक अल्फाज़ फल्सफ़ों की ज़द से निकल कर बेहद  खूबसूरत चित्र बनाते हैं । ये पुस्तक ऐसे सैकडों खुशरंग चित्रों का अल्बम भी है। गौरतलब ये है कि ये सभी बिम्ब एक फौजी की ज़िन्दगी भी दिखाते हैं और मन:स्थिति भी और साथ ही शाइरी को भी एक खास ज़ाविये से सम्रद्ध करते हैं-

गुज़र जायेगी शाम तकरार में
चलो चल के बैठो भी अब कार में (1)
जो धुन निकली हवा की सिम्फनी से
हुआ है चाँद पागल आज उसी से (2)
मकाँ की बालकोनी की वो धडकनें बढा गयी
अभी –अभी जो पोर्टिको में आई नीली कार है (3)
चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं (4)
बिस्तरों की सिलवटों की देख कर बेचैनियाँ
सिसकियाँ तकिये ने लीं चादर मचलती रह गई (5)

बकौल डा राहत इन्दौरी गौतम की शाइरी में – नासिर की तनहाई – बशीर का कैनवस और फिराक की शोख़ उदासी बडे ही दिल्कश रूप में परिलक्षित होती है।ये दौरे –हाज़िर के सरताज शाइर का गौतम की शाइरी पर एक सच्चा और संश्लिष्ट बयान है जिसे बगैर किसी बहस के तस्लीम किया जा सकता है।हम धरती पर कहीं भी रहें सितारे चाँद सूरज जुग्नू फूल और हवा का कहत कहीं नहीं है –इन्हीं बिम्बों से शाइरी में हज़ार तरीके की मन:स्थितियाँ कागज़ पर उतारी जाती हैं। इन मनाज़िर में पोशीदा और नुमाया गौतम का एक निजत्व भी है यानी एक फौजी के स्पेसिफिक शेर जिनके ज़िक्र के बिना बात अधूरी रहेगी। फौजी के शेर देखिये –

होती हैं इनकी बेटियाँ कैसे बडी रह कर परे
दिन रात इन मुस्तैद सीमा प्रहरियों से पूछ लो (1)
घडी तुमको सुलाती है घडी के साथ जगते हो
ज़रा सी नींद क्या है चीज़ पूछो इक सिपाही से (2)
है लौट आया काफिला जो सरहदों से फौज का
तो कैसे हँस पऎडी उदास छावनी अभी अभी (3)
चीड के जंगल खडे थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से(4)

पलाश का फूल पाषाण का विभव नहीं बल्कि पत्थर की जडता की पराजय का प्रतीक होता है !! कश्मीर की सर्द वादियों में एक फौजी के भीतर शायर के ह्रदय का स्पन्दन ऐसी ही घटना है जो निशानदेही करती है कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य की आत्मिक ऊर्जा ऊर्ध्वमुखी है और अति विषम स्थितियों में भी मनुष्यत्व की गरिमा के प्रतीक साहित्य संगीत और कला विकसित होते रहेंगे और परवान चढते रहेंगे। गौतम का शाइर इसकी जीती जागती मिसाल है।ग़ज़ल एक विधा है जिसकी अंतहीन समृध्धि का कारण भी यही है कि एक ही ग़ज़ल में कई मंज़र कई शेडस कई मन;स्थितियाँ और कई रंग पिरोये जा सकते हैं इसका व्याकरण ऐसा है कि रदीफ कफिये के चलते इन अनेक रंगों के प्रवाह में कतई बिखराव नहीं आता। गौतम ने अपने जज़्बात इस विधा के माध्यम से मंज़रे आम किये हैं –जिससे उनको अधिक से अधिक सोचा समझा और जाना जा सकता है- 

 चलो चलते रहो पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है

गौतम की शाइरी में रूमान उनकी संवेदनाओं की प्रोटेक्टिव -शील्ड भी है –जहाँ वो हैं वहाँ प्रेम अपने साकार रूप में उपस्थित नहीं है –लेकिन हाफिज़े से बार बार गुज़र कर तसव्वुर को बार बार ज़िन्दा करके इज़हार को बार बार धारदार करके उन्होने अपने प्रेम को संरक्षित किया है-
जबसे तूने मुझको छुआ है
रातें पूनम दिन गेरुआ है

कश्मीर में सिर्फ़ बर्फ़ है तनाव है और गोलियों की सनसनाहट है लेकिन उन्होने अपने तसस्व्वुर से अपनी ग़ज़ल में  एक भरे पूरे कैनवस को खुशरंग रखा है जिसे जीवन की सीमित उपलब्धता में जीवन को पूरे दायरे में जीने की कोशिश के तौर पर दाद दी जा सकती है-

दूर क्षितिज पर सूरज चमका , सुबह खडी है आने को
धुन्ध हटेगी , धूप खिलेगी , वक़्त नया है छाने को

इसके सिवा उन्होने शायरी की गरिमा को भी बख़ूबी बरकरार रखा है और कमोबेश हर ग़ज़ल में ऐसे शेर कहे हैं जो उन्हें अव्वल पाँत का शायर साबित करते हैं –

हैं जितनी परतें यहाँ आसमान में शामिल
सभी हुईं मेरी हद्दे –उडान में शामिल (1)
कि इससे पहले खिज़ाँ का शिकार हो जाऊँ
सजा लूँ खुद को मुकम्मल बहार हो जाऊँ (2)

एक व्यक्तिगत बात भी इस समीक्षा के हवाले से कहना चाहूँगा गौतम से –“ गौतम!! सन 1989 -65 फील्ड रेजीमेण्ट –मेजर एम जी मिश्रा की चिता को मैने खुद अग्नि दी थी जो तीन मासूम बेटियों को छोड कर इस देश के लिये बार्डर पर शहीद हो गये थे !! ये मेरे सगे बहनोई थे !! सैकडों फौजियों के हुजूम और राइफलों की सलामी के बाद ये परिवार कैण्टोमेण्ट की सुरक्षित बाउंड्री से निकल कर अराजक सिविल लाइफ में आ गया और फिर फिर जीवन के एक अंतहीन संघर्ष में मेरी बहन को भी कैंसर की सियाही निगल गई – इस शेर ने 27 बरस पहले का मंज़र जगा दिया –

मूर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर , चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मँझधार से

गौतम अपनी शाइरी में इस तरह शुमार हैं जैसे कि बर्फ़ में पानी- जैसे लहू में सुर्ख़ रंग – जैसे अहसास में दिल शामिल होता है। इनका हर शेर व्यक्तिगत अनुभूति की उपज है और बेहद निर्दोष और सच्चा है जैसे मासूम बच्चे की मुस्कुराहट या सूरज की किरने होती हैं।भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में जिन कारंतिकारियों की अग्रणी भूमिका है उनकी ज़िन्दगी का एक जीवंत द्स्तावेज़ यशपाल के “सिन्हावलोकन” में मिलता है –यशपाल क्रांतिकारी भी थे और साहित्यकार भी। मैं गौतम के शतजीवी होने की कमना करता हूँ ताकि आगे कभी हमें कश्मीर की सच्ची दास्तान ग़ज़ल के इलावा भी साहित्य के अन्य आयामों में उपलब्ध हो सके। मेरी और इस मुल्क  की तमाम दुआयें अपने इस योद्धा के साथ हैं जिसके पास पत्थर का कलेजा और मोम का दिल है।

  • समीक्ष्य पुस्तक-पाल ले इक रोग नादां/ गज़ल संग्रह-गौतम राजरिशी/2014/ प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, पी सी लैब,सम्राट काम्प्लेक्स बेसमेंट, बस स्टैंड,सीहोर-466001 (म.प्र.) /मूल्य रू. 200


मयंक अवस्थी


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