चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
पीर के मेघ (गीत)
दर्द रोने से तो दूर होता नहीं,
गीत इसको बना लो तो कुछ बात हो |
पीर के मेघ पलकों में छायें मगर,
अश्रु मोती न किंचित धरा पर गिरें|
नेह के दीप की ज्योति बुझने न दें,
पंथ में चाहे जितने अँधेरे घिरें|
ऐसे मुस्काओं उपवन में कलियाँ खिले,
ऐसे झूमों कि मरुस्थल में बरसात हो|
हर्ष है कष्ट है धुप से छाँव से,
जिन्दगी वस्तुत:एक संघर्ष है |
ये कसौटी परम सत्य का साक्ष्य है,
दाह स्पर्श में स्वर्ण उत्कर्ष है|
जिंदगी एक शतरंज का खेल है,
ऐसे खेलो इसे मौत की मात हो|
सबको आलोक दो अपने व्यक्तित्व से,
सूर्य जैसे भले ताप से तुम जलो|
लोक कल्याण सबसे बड़ा धर्म है,
मानकर के यही लक्ष्य तक तुम चलो|
ऐसे आवाज दो हर दिवस छन्द हो,
ऐसे गाओ कि नवगीत सी रात हो|
अब तो खुदा के वास्ते..(गजल)
अब तो खुदा के वास्ते ऐसा न कीजिए,
फिर चूर-चूर प्यार का शीशा न कीजिए |
इन्सानियत की मौत का भी गम हो कुछ घड़ी,
हर वक्त पैसा-पैसा-पैसा न कीजिए |
रब से करो गिला या फैला लो झोलियाँ,
यूं हर किसी के सामने रोया न कीजिए |
फिर जिसके बाद जुड़ना सम्हलना न हो सके,
यूं टूटकर किसी को चाहा न कीजिए |
चलकर लहू पे हम करें आरती अजान,
यूं ही खुदा और राम को रुसवा न कीजिए |
क्या ले के आये थे यहाँ क्या ले के जाएंगे,
अपने जमीर का कभी सौदा न कीजिए |
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं..?
अक्सर सोचती हूँ
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं ?
जो ठुमक-ठुमक कर चलते हुए
किसी कृष्ण-कन्हैया की खिलखिलाहट
पर लिख दिया करती थी हजारों छन्द
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं
जो किसी शबरी के जूठे बेरों की मिठास पर
लिख देती थी चौपाईयाँ,
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं
जो किसी पंछी के घायल
होकर मरने की पीड़ा से
द्रवित होकर रचतीं थी महाकाव्य
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं
जो रोटी बनाते समय चिमटा न
होने के कारण किसी हामिद की
बूढ़ी दादी की झुलसी हुई
अंगुलियों के दर्द से आहत
होकर रचती थी कथाये,
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं
जो सर्दी से ठिठुरते हुए आदमी
के तन को ढक देती थी
अपने तन के कपड़ो से
जाने कहाँ गयी वो संवेदनाएं
जो पढ़ लिया करती थी
फूलों के मन की भाषा
लगता है अब संवेदनाएं
निष्प्राण हो गयी है|
नहीं-नहीं अभी निष्प्राण नहीं हुई सवेदनाएं|
वो उलझ गयी है..
दलित-सवर्ण और नारी
विमर्श के मकड़ जाल में
वो अग्नि परीक्षा दे रही है|
समीक्षाओं और आलोचनाओं
के दरवाजे पर
वो चक्कर लगा रही है
विचार गोष्ठियों सेमिनारों
और सम्मेलनों के
वो गुम हो गयी हैं
तालियों की गड़गड़ाहट
और नोटों के ढेर में|
अस्वीकृत कविता
आज-डाक से मिली है मुझे
मेरी अस्वीकृत कविता
सम्पादक महोदय, आपने लिखा है-
हम कविता प्रकाशित करने में विवश है
इसको अन्यथा न लें|
नहीं मेरे भाई हम जानते हैं
आपकी विवशताएं|
अपने जानने वालों की रचनाओं के बीच
एक अजनवी की कविता विवशता ही तो है
चटपटी और सनसनी खेज खबरों के आगे
एक मासूम कविता
विवशता ही तो है
बड़े बड़े पन्नों पर अभिनेत्रियों के
अर्धनग्न चित्रों के आगे
एक मर्यादित कविता
विवशता ही तो है
बड़े-बड़े पन्नों पर लाखों के
विज्ञापनों के आगे
एक बेमोल कविता विवशता ही तो है
और फिर मेरे भाई
मेरी कविता में था भी क्या ?
हिंसा की शिकार नारियों की वेदनाएं
बलात्कार की शिकार
मासूम बेटियों की मौन सिसकियाँ
दहेज की चिंता में जीवित जलती बहुओं की चीखें
इनमें नया भी क्या है
इन वेदनाओं, सिसकियों और चीखों का
आप, और आपके ये अखबार
और आपका यह समाज
अब अभ्यस्त हो गया है
लेकिन मेरे भाई
जितनी प्यारी लगती हैं आपको
ये चटपटी और सनसनी खेज ख़बरें
और जितने प्यारे लगते है
आपको ये अभिनेत्रियों के
अर्ध नग्न चित्र
और जितने प्यारे लगते हैं
ये लाखों के विज्ञापन
उससे कई गुना प्यारी है
मुझे मेरी ये
अप्रकाशित एवं अस्वीकृत कविता |
डा. राधा शाक्य
- विधाये-गीत, गजल, कहानी, कवितायेँ, छन्द, मुक्तक, तथा छन्द मुक्त रचनाएं |
- प्रकाशन-(प्रथम कृति): कोई रास्ता तो हो (गीत, गजल, कविता, संग्रह)
- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन काव्य पाठ प्रसारण | लखनऊ महोत्सव तथा अनेक शहरों के कवि सम्मलेन में काव्य पाठ |
- पुरस्कार-सम्मान-काव्यायन संस्था द्वारा पं0 बाल मुकुन्द द्विवेदी, स्मृति सम्मान 2010 साहित्य सृजन परिषद मिलाई द्वारा सृजन सम्मान, पुष्पगंधा प्रकाशन कवर्धा (छत्तीसगढ़) द्वारा स्व. हरिशंकर ठाकुर स्मृति सम्मान, भारतीय रिजर्व बैंक, कानपुर नगर द्वारा सम्मान 2008, लाइंस क्लब ऑफ कानपुर, गैगेज द्वारा सम्मान 2013.
- संपर्क-379/4, शास्त्री नगर,कानपुर–208005
- मोबाइल-9451021666/ 9415058737