चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
(एक)
प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे |
कल बरसते थे निग़ाहों से हजारों नग़मे |
खुशबुएँ सिर्फ रह गयी हैं और कुछ भी नहीं,
गुज़र गए इन्हीं राहों से हजारों नग़मे |
लाख चाहा कि चले आयें पर नहीं आते,
लौटकर उसकी पनाहों से हजारों नग़मे |
कोई बता दे भला और कहाँ जायेंगें,
छूटकर संदली बाहों से हजारों नग़मे |
जब भी आता है ख्याल अपना तो छिप जाते हैं,
मेरे सीने में गुनाहों से हजारों नग़मे |
मेरे वज़ूद पे' छा जाते हैं तारे बन कर,
दिल की बिखरी हुई चाहों से हजारों नग़मे |
एक वो वक़्त भी आया कि खड़े रहते थे,
मेरे खिलाफ गवाहों से हजारों नग़मे |
(दो)
पहली गलती कि तेरा नाम लिए जाते हैं |
उस पे' हद ये कि सरे-आम लिए जाते हैं |
अहले-महफ़िल भला क्योंकर न सजा दे हमको ?
हम निग़ाहों से भरे जाम लिए जाते हैं |
आये तो थे तेरे पहलू में उम्मीदें लेकर,
वक्ते-रुख्सत दिले-नाकाम लिए जाते हैं |
हमको जिस बात पे रुस्वाई मिली थी हरसूँ,
वो उसी बात पे' ईनाम लिए जाते हैं |
हम ग़रीबों को कहाँ पूछ रही है दुनिया,
ग़म-गुसारी के भी अब दाम लिए जाते हैं |
हमारे हाल पे' कुछ लोग मज़ा लेते हैं,
उस गली में हमें हर शाम लिए जाते हैं |
हैं वो कहते हमें दीवाना बेरुखी के साथ,
और हम हँस के ये इल्ज़ाम लिए जाते हैं |
अपनी मर्ज़ी से थे चलते तो भटक जाते थे,
अब तो जाते हैं, जहाँ राम लिए जाते हैं |
(तीन)
हमसफ़र, हमराह, सबके काम आती है सड़क |
बस नहीं उसकी गली तक ले के जाती है सड़क |
जब थिरकते हैं किसी की राह में बढ़ते कदम,
चलते-चलते साथ मेरे गुनगुनाती है सड़क |
टूटती है ज़र्रा-ज़र्रा, हादसा-दर-हादसा,
कोई टकराए किसी से, चोट खाती है सड़क |
हर नए चौराहे पर उगती नयी उलझन के साथ,
आदमी की ख्वाहिशों पर मुस्कुराती है सड़क |
जूझते दोनों तरफ, लाचार फुटपाथों के बीच,
ज़िन्दगी के सैकड़ों मंज़र दिखाती है सड़क |
पत्थरों के बोझ से लेकर गुलों के नाज़ तक,
वक़्त पड़ने पर कभी क्या-क्या उठाती है सड़क !
(चार)
थका आवारापन मेरा यही बेहतर समझता था -
तुम्हारे घर चला आया कि अपना घर समझता था |
तुम्हें शायद नहीं मालूम लेकिन है यकीं मुझको,
मेरे क़दमों की बेचैनी तुम्हारा दर समझता था |
तुम्हारे नूर ने मुझको मेरी औकात दिखला दी,
नहीं तो ख़ुद को मैं अब तक बड़ा शायर समझता था |
बिठाना मेल दुनिया से हुआ मुश्किल इसी कारण -
मैं जो भीतर समझता था, वही बाहर समझता था |
मुझे वो छोड़ आए डाकुओं के गाँव ले जाकर,
जिन्हें मैं दोस्त कहता था, जिन्हें रहबर समझता था |
मेरे महबूब को नज़रों पे' था कुछ कम यकीं शायद,
वो रिश्तों की नज़ाकत हाथ से छूकर समझता था |
निगाहों की शरारत पर मुझे बदनाम कर डाला,
वो मेरी बात का मतलब ग़लत अक्सर समझता था |
पकड़कर कान उसके, बज़्म से बाहर किया हमने,
वो था अफ़सर कि जो महफ़िल को भी दफ़्तर समझता था |
भरम टूटा, खिलीं होठों पे' जब महकी हुई गज़लें,
ज़माना इश्क की तक़दीर को बंजर समझता था |
(रचनाएं ग़ज़ल संग्रह 'इतना तो मैं कह सकता हूँ' से)
आशुतोष द्विवेदी
भारतीय राजदूतावास,अद्दिस अबाबा,
इथियोपिया |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें