कमला कृति

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

आशुतोष द्विवेदी की ग़ज़लें





चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार




(एक) 


प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे |
कल बरसते थे निग़ाहों से हजारों नग़मे |

 खुशबुएँ सिर्फ रह गयी हैं और कुछ भी नहीं,
गुज़र गए इन्हीं राहों से हजारों नग़मे |

 लाख चाहा  कि चले आयें पर नहीं आते,
लौटकर उसकी पनाहों से हजारों नग़मे |

 कोई बता दे भला और कहाँ जायेंगें,
छूटकर संदली बाहों से हजारों नग़मे |

 जब भी आता है ख्याल अपना तो छिप जाते हैं,
मेरे सीने में गुनाहों से हजारों नग़मे |

 मेरे वज़ूद पे' छा जाते हैं तारे बन कर,
दिल की बिखरी हुई चाहों से हजारों नग़मे |

 एक वो वक़्त भी आया कि खड़े रहते थे,
मेरे खिलाफ गवाहों से हजारों नग़मे |


(दो) 


पहली गलती कि तेरा नाम लिए जाते हैं |
उस पे' हद ये कि सरे-आम लिए जाते हैं |

 अहले-महफ़िल भला क्योंकर न सजा दे हमको ?
हम निग़ाहों से भरे जाम लिए जाते हैं |

 आये तो थे तेरे पहलू में उम्मीदें लेकर,
वक्ते-रुख्सत दिले-नाकाम लिए जाते हैं |

 हमको जिस बात पे रुस्वाई मिली थी हरसूँ,
वो उसी बात पे' ईनाम लिए जाते हैं |

 हम ग़रीबों को कहाँ पूछ रही है दुनिया,
ग़म-गुसारी के भी अब दाम लिए जाते हैं |

 हमारे हाल पे' कुछ लोग मज़ा लेते हैं,
उस गली में हमें हर शाम लिए जाते हैं |

 हैं वो कहते हमें दीवाना बेरुखी के साथ,
और हम हँस के ये इल्ज़ाम लिए जाते हैं |

 अपनी मर्ज़ी से थे चलते तो भटक जाते थे,
अब तो जाते हैं, जहाँ राम लिए जाते हैं |



(तीन) 


हमसफ़र, हमराह, सबके काम आती है सड़क |
बस नहीं उसकी गली तक ले के जाती है सड़क |

 जब थिरकते हैं किसी की राह में बढ़ते कदम,
चलते-चलते साथ मेरे गुनगुनाती है सड़क |

 टूटती है ज़र्रा-ज़र्रा,  हादसा-दर-हादसा,
कोई टकराए किसी से, चोट खाती है सड़क |

 हर नए चौराहे पर उगती नयी उलझन के साथ,
आदमी की ख्वाहिशों पर मुस्कुराती है सड़क |

 जूझते दोनों तरफ, लाचार फुटपाथों के बीच,
ज़िन्दगी के सैकड़ों मंज़र दिखाती है सड़क |

 पत्थरों के बोझ से लेकर गुलों के नाज़ तक,
वक़्त पड़ने पर कभी क्या-क्या उठाती है सड़क !



(चार)


थका आवारापन मेरा यही बेहतर समझता था -
तुम्हारे घर चला आया कि अपना घर समझता था |

 तुम्हें शायद नहीं मालूम लेकिन है यकीं मुझको,
मेरे क़दमों की बेचैनी तुम्हारा दर समझता था |

 तुम्हारे नूर ने मुझको मेरी औकात दिखला दी,
नहीं तो ख़ुद को मैं अब तक बड़ा शायर समझता था |

 बिठाना मेल दुनिया से हुआ मुश्किल इसी कारण -
मैं जो भीतर समझता था, वही बाहर समझता था |

 मुझे वो छोड़ आए डाकुओं के गाँव ले जाकर,
जिन्हें मैं दोस्त कहता था, जिन्हें रहबर समझता था |

 मेरे महबूब को नज़रों पे' था कुछ कम यकीं शायद,
वो रिश्तों की नज़ाकत हाथ से छूकर समझता था |

 निगाहों की शरारत पर मुझे बदनाम कर डाला,
वो मेरी बात का मतलब ग़लत अक्सर समझता था |

 पकड़कर कान उसके, बज़्म से बाहर किया हमने,
वो था अफ़सर कि जो महफ़िल को भी दफ़्तर समझता था |

भरम टूटा, खिलीं  होठों पे' जब महकी हुई गज़लें,
ज़माना इश्क की तक़दीर को बंजर समझता था |

(रचनाएं ग़ज़ल संग्रह 'इतना तो मैं कह सकता हूँ' से)


आशुतोष द्विवेदी 

भारतीय राजदूतावास,
अद्दिस अबाबा,
इथियोपिया |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें