विनोद शाही की कलाकृति |
जंग जारी है..
डूबती नाव की तरह
मैं ज़िन्दगी के समँदर में
ऊबती,डूबती रही
कभी कोनों को पकड कर
डूबने से बचती
कभी बेसहारा सी
लहरों की मर्ज़ी का
शिकार हो जाती
कभी उत्ताल
तरंग पर सवार हो
विजयी हो
अपने ही कंधों पर
बैठ इठलाती
कभी तेज़ लहर
पाताल तक
खींच ले जाती
मैं हाथ पैर मारकर
ऊपर आ जाती
इस जद्दोजहद में
कितनी ही बार
खुद को टूटा,बिखरा पाती
सतह पर शाँत
बहते रहने के लिये
मुझे खुद को
काठ करना पडेगा
और मुझे काठ होने से
इंकार है
मेरी जंग अब भी जारी है
सरहदें
गुलाबी पँख की परवाज़ तारी
आसमाँ पे
लो फिर आये परिंदे
दूर मुल्कों की हदों के
फासलों से
रौनकें गुलज़ार हैं
दरिया के दो बाजू
परिंदे देखते हैं
हवा,पानी,सब्ज़ हों बाजू
बसाते आशियाँ अपना
नहीं बँटते हैं मुल्कों में
नहीं करते हैं तारे
आसमाँ पे कोई हदबंदी
नहीं घिरती घटाएँ
देखकर सरहद की चौबन्दी
हवाओं को नहीं एहसास
कितना और कहाँ बहना
तो फिर इंसा बँटा है क्यों
मज़हब और मुल्कों में
खिंची हैं सरहदें
हम बँट गये हैं
टुकडों टुकडों में
खुदाया किस तरह
हम मज़हबीं हैं
किस तरह?
बहुत करीब था मयखाना
रात के खौफनाक सन्नाटे में
रह रह कर उभर आती
अजनबी चीखें
चौंकाती रहीं रात भर
सुबह के पास
कोई आवाज़ न थी
भोर होते ही ढ्ल गया सूरज
साँस रोके रही
हर एक रहगुज़र
कोई आहट, कोई कदमों के
निशाँ भी न थे बाकी उन पर
न कहकहों की गूँज
न मासूम हँसी के फूल
सब कहाँ दफ्न हुए
थी वहाँ लपटों की तपिश
एक मजबूर खलिश
मस्जिद से दूर न था बुतखाना
बीच में था मयखाना
जहाँ न तपिश थी न खलिश
होठों से सटे जाम थे
मुट्ठी में कायनात
और पहरे पर सलीबें
न जाने किसके हिस्से की
दौड़
क्यों दौड रही है दुनिया
हर तरफ भागमभाग
किसी को फुरसत नहीं
कि रुककर जवाब दे
मेरे सवाल का
कहाँ किस हद तक
आखिर कोई तो मुकाम होगा
इस दौड का?
ताज्जुब है पृथ्वी नहीं दौडती
अपनी धुरी पर ही रहती है
उसे सौंपे हुए कालखँड में
पूरी निष्ठा से
इंसान का उठा हुआ हर कदम
उतनी ही दूरी नापता है
जितनी तय है
फिर दुनिया क्यों और कहाँ
दौड रही है
अगर पहियों पर सवार
इंसान की चाल आँकनी है
तो पैदल चलते पाँव
किस दुनिया में गिने जाएँगे
समय की गति से कई गुना ज्यादा
तेज़ रफ्तार से दौडते
इस कारवाँ के गुबार से भरी
ज़मीन पर
आँखे मलते मलते भी हवाओं को
अपने जायज़ सवालों से नहीं भर सकी
हवाओं के पास भी
इसका क्या जवाब होगा?
वे तो खुद अपनी शीतलता
खो चुकी हैं
फिज़ाओं में अब
परिन्दों की चहचहाहट नहीं है
भागती दौडती दुनिया का शोर है
इस दौड का कहाँ है अंत?
है भी?
इंसान दौड रहा है
इंसानियत पीछे छूट रही है
तारीख में
पहले दर्ज़ हर्फ से
पहले सफे से
उससे पहले की कहानी
गहरे अँधेरे में डूबी है
लेकिन वहाँ से भी
कदमों की बेसब्र आहट
सुनाई देती है
दौड वहाँ भी पडाव डाले है।
गौतम से राम तक
गौतम ने तुम्हे पुत्रीवत
पाल पोसकर बडा किया
और अपनी अंकशायिनी बनाया
तुम चुप रहीं
मन ही मन जिसे (इन्द्र) प्रेम करती थीं
उसे पाने की लालसा के बावजूद
विरोध न कर सकीं
चुप रहीं
उस दिन इन्द्र को सामने पा
रुक नहीं पाई तुम
खुद को ढह जाने दिया
उसकी बाहों में
यह तुम्हारा अधिकार भी तो था
प्यार करने का अधिकार
पर इसके एवज
गौतम के आरोप,प्रत्यारोप
तिरस्कार,शाप?
तुम्हे नहीं लगा कि वह
गौतम का
तुम पर एकाधिकार की समाप्ति का
घायल अहंकार,कायरता और दुर्बलता थी?
तुम चुप रहीं
मूक पत्थर हो गईं
पत्थर बन तुम सहती रहीं
लाचारी,बेबसी,घुटन
बदन को गीली लकडी सा सुलगाती
अपमान की ज्वाला
तुम्हारे पाषाण वास में
तुम्हारी पीडा के हित
न गौतम आये न इन्द्र
राम ने तुम्हे पैरों से छुआ
तुम पिघल गईं
खामोशी से पदाघात सह गईं
सोचो अहल्या
गौतम से राम तक की
तुम्हारी यात्रा
पुरुष सत्ता की बिसात पर
औरत को मोहरा नहीं बनाती?
संतोष श्रीवास्तव
- जन्म-23 नवम्बर (जबलपुर)
- शिक्षा-एम.ए(हिन्दी, इतिहास) बी.एड,.पत्रकारिता मेँ बी.ए।
- प्रकाशित पुस्तके-बहके बसँत तुम,बहते ग्लेशियर,प्रेम सम्बन्धोँ की कहानियाँ आसमानी आँखों का मौसम (कथा सँग्रह) मालवगढ की मालविका.दबे पाँव प्यार,टेम्स की सरगम,हवा मे बँद मुट्ठियाँ,(उपन्यास) मुझे जन्म दो माँ (स्त्री विमर्श) फागुन का मन(ललित निबँध सँग्रह) नही अब और नही तथा बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया (सँपादित सँग्रह) नीले पानियोँ की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)।
- विभिन्न भाषाओ मेँ रचनाएँ अनूदित,पुस्तको पर एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ मेँ स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द, प्रतिवर्ष हेमंत फाउँडेशन की ओर से हेमंत स्मृतिकविता सम्मान एवं विजय वर्मा कथा सम्मान का मुम्बई मे आयोजन,महिला सँस्था विश्व मैत्री मँच की संस्थापक,अध्यक्ष।
- पुरस्कार-बारह राष्ट्रीय एवं दो अँतरराष्ट्रीय साहित्य एवँ पत्रकारिता पुरस्कार जिनमे महाराष्ट्र के गवर्नर के हाथो राजभवन मेँ लाइफ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड तथा म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा मध्य प्रदेश के गवर्नर के हाथों नारी लेखन पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय है। 'मुझे जन्म दो माँ' पुस्तक पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पी एच डी की मानद उपाधि। महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्यस्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान। भारत सरकार अंतरराष्टीय पत्रकार मित्रता सँघ की ओर से 20 देशो की प्रतिनिधि के रूप मेँ यात्रा।
- सँपर्क-101 केदारनाथ को.हा.सोसाइटी, सैक्टर-7, निकट चारकोप बस डिपो, काँदिवली, पश्चिम मुम्बई-400067
- फ़ोन-09769023188
- ईमेल: kalamkar.santosh@gmail.com
बहुत बहुत शुक्रिया सुबोध सृजन
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं का सदा स्वागत है..!
हटाएंवाह...एक से बढ़कर एक राचनाऐं
जवाब देंहटाएंगौतम से राम तक...अद्वितीय..!