चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
साँवरिये के रंग-सा..
उसने यूँ देखा मुझे, हुई शर्म से लाल।
हसरत दिल में रह गई, मलती खूब गुलाल॥
कहाँ गए वो चंग-डफ़, अपनापन अनुराग।
गीतों की रसधार बिन, कितना सूना फ़ाग॥
ढोल-चंग की गूँज पर, मन उठता था झूम।
अब गलियाँ सूनी हुईं, कहाँ गई वो धूम॥
मस्तों की टोली नहीं, नहीं स्वांग के रंग।
बस यादों में रह गया, होली का हुड़दंग॥
रंग फ़िज़ा में छा गए, नीले-पीले-लाल।
मैं बिरहन सूखी रही, मुझको यही मलाल॥
संग अबीर-गुलाल के, मला कौन-सा रंग।
लोग कहें मैं बावरी, जग से हुई निसंग॥
साँवरिये के रंग-सा, मिला न दूजा कोय।
तन लागे जो साँवरा, हर दिन होली होय।।
अर्ज़ कर रहे आपसे, ये फ़ागुन के रंग।
शिकवे-गिले बिसार कर, हमें लगा लो अंग ॥
फ़ीका-फ़ीका फाग है, सूने हैं दिन-रैन ।
नैना तकते राह को, नहीं जिया को चैन ॥
कहे अबीर-गुलाल से, गोरी मन की बात ।
भीगें तन-मन प्रेम से, ऐसी हो बरसात ॥
भाग-दौड़ की ज़िंदगी, हर पल जैसे जंग ।
भूल गई है मस्तियाँ, होली का हुड़दंग ॥
सजी-धजी सी मॉल में, गुझिया दिखी उदास ।
अम्मा के हाथों बिना, कैसे पड़े मिठास ॥
सुशीला शिवराण
बदरीनाथ–813,
जलवायु टॉवर्स सेक्टर-56,
गुड़गाँव–122011
दूरभाष–09873172784
ईमेल-sushilashivran@gmail.com
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