चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
धुआँ और गुलाल
सिर पर धरे धुएँ की गठरी
मुँह पर मले गुलाल
चले हम
धोने रंज मलाल !
होली है पर्याय खुशी का
खुलें
और
खिल जाएँ हम;
होली है पर्याय नशे का -
पिएँ
और
भर जाएँ हम;
होली है पर्याय रंग का -
रँगें
और
रंग जाएँ हम;
होली है पर्याय प्रेम का -
मिलें
और
खो जाएँ हम;
होली है पर्याय क्षमा का -
घुलें
और
धुल जाएँ गम !
मन के घाव
सभी भर जाएँ,
मिटें द्वेष जंजाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
होली है उल्लास
हास से भरी ठिठोली,
होली ही है रास
और है वंशी होली
होली स्वयम् मिठास
प्रेम की गाली है,
पके चने के खेत
गेहुँ की बाली है
सरसों के पीले सर में
लहरी हरियाली है,
यह रात पूर्णिमा वाली
पगली
मतवाली है।
मादकता में सब डूबें
नाचें
गलबहियाँ डालें;
तुम रहो न राजा
राजा
मैं आज नहीं कंगाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
गाली दे तुम हँसो
और मैं तुमको गले लगाऊँ,
अभी कृष्ण मैं बनूँ
और फिर राधा भी बन जाऊँ;
पल में शिव-शंकर बन जाएँ
पल में भूत मंडली हो।
ढोल बजें,
थिरकें नट-नागर,
जनगण करें धमाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
सत्य का प्रह्लाद
झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!
जो पिता की भूमिका में
मंच पर उतरे,
विधाता हो गए वे।
जीभ में तकुए पिरोए,
आँख कस दी पट्टियों से,
कान में जयघोष ढाला,
आह सुनने पर लगे प्रतिबंध,
पीडितों से कट गए संबंध,
चीख के होठों पडा़ ताला।
सत्य ने खतरा उठाया
तोड़ सब प्रतिबंध
मुक्ति का संगीत गाया।
खुल गए पर पक्षियों के
हँस पडे़ झरने,
खिल उठीं कलियाँ चटख कर
पिघलकर हिमनद बहे।
कुर्सियों के कान में कलरव पडा़!
पुत्र, पत्नी, प्रेमिका हो
या प्रजा हो,
मुकुट के आगे सभी
प्रतिपक्ष हैं।
मुकुट में धड़कन कहाँ
दिल ही नहीं है,
मुकुट का अपना-पराया कुछ नहीं है।
मुकुट में कविता कहाँ, संगीत कैसा?
शब्द से भयभीत शासन के लिए
मुक्ति की अभिव्यक्ति
भीषण कर्म है,
विद्रोह है!
द्रोह का है दण्ड भारी!
साँप की बहरी पिटारी!
हाथियों के पाँव भारी!
पर्वतों के शिखर से
भूमि पर पटका गया!
धूलि बन फिर सिर चढा़!
न्याय राजा का यही है:
रीति ऐसी ही रही है:
मुकुट तो गलती नहीं करता,
केवल प्रजा दोषी रही है।
है जरूरी
दोष धोने के लिए
जन की परीक्षा
[अग्नि परीक्षा]!
झेल कर अपमान भी
जन कूदता है आग में
बन कर सती, सीता कभी,
ईसा कभी, मीरा कभी,
सुकरात सा व कबीर सा।
सत्य का पाखी अमर
फीनिक्स - मरजीवा,
अग्निजेता, अग्निचेता - वह प्रमथ्यु
बलिदान की चट्टान पर
मुस्कान के जैसा जडा !
रंग
रंग
तरह-तरह के रंग
आ जाते हैं जाने कहाँ से
सृष्टि में
दृष्टि में
चित्रों, सपनों और कविताओं में?
अँधेरे के गर्भ में
कौन बो जाता है
रोशनी के बीज?
फूट पड़ती है -
दिशाओं को लीपती हुई
किसी सूर्यपुत्र की
दूधों-नहाई
अबोध श्वेत हँसी।
तैरता है श्वेत कमल
गंगा के जल में
होती हैं परावर्तित
किरणें.......
किरणें.......
और किरणें।
शीतल जल की फुहारों में
नहाती हैं श्वेतवसना
अप्सराएँ
और श्वेत प्रकाश की धार
ढल जाती है
सात रंग के इंद्रधनुष में।
गूँजने लगता है
सात सुरों का संगीत
गंगा से यमुना तक,
हस्तिनापुर से
वृंदावन तक।
संगीत
खेलता है
चाँदनी से आँख मिचौनी
और रंग थिरक उठते हैं
रासलीला के उल्लास में,
सृष्टि में बिखर जाते है अमित रंग
राधिका की
खंडित पायल के
घुँघरुओं के साथ।
दृष्टि में खिल उठते हैं
फूल ही फूल
रंग बिरंगे
और चिपक जाते हैं
मन के चित्रपट पर।
घुलते चले जाते हैं....
घुलते चले जाते हैं....
हमारे अस्तित्व में रंग
और फिर
हौले से
आ जाते हैं सपनों में,
सताते है प्राणों को,
हो जाते हैं विलीन
छूने को बढ़ते ही।
टूटते हैं स्वप्न,
कलपती है उँगलियाँ,
तरसते हैं पोर-पोर
छूने को रंग;
सपनों के रंग!
सपनों के रंग
विलीन जब होते हैं,
तड़पता है आदमी
खोजता है इंद्रधनुष,
इंद्रधनुष नहीं मिलते।
नहीं मिलते इंद्रधनुष,
उठाता है धनुषबाण,
रचता है महाभारत
रंगों की खोज में।
रंग पर, नहीं मिलते।
इंद्रधनुष नहीं मिलते।
मिलता है युद्धों से
अँधेरा...
अँधेरा........
घोर अँधेरा।
अँधेरों में फिर से
सूर्य की किरणें
बोती है कविता।
कविता ही प्रकृति है,
कविता उल्लास है,
रंगों का स्रोत है।
अँधेरे के गर्भ में
रोपती है कविता
रोशनी के बीज को,
रंगों के बीज को।
कविता ही सूर्य है,
दुधमुँहा सूर्यपुत्र!
सूर्यमुखी कविताएँ
रंगों को जनती हैं!
आओ!
हम सब....
सारे अक्षर
मिलकर सूर्यमुखी हो जाएँ,
रागों को उपजाएँ,
रंगों को बरसाएँ,
इंद्रधनुष के सात रंग से
रँग दें
सृष्टि को,
दृष्टि को,
चित्रों, सपनों और
कविताओं को।
ऋषभदेव शर्मा
(पूर्व आचार्य-अध्यक्ष),
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद
208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,गणेश नगर,
रामंतापुर,हैदराबाद-500013.
मोबाइल: 08121435033
ईमेल : rishabhadeosharma@yahoo.com
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