चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
तुम ही खेलो होली
भइया तुम ही खेलो होली
मंहगाई से त्रस्त सभी
है खाली अपनी झोली
रंग अबीर लगें सब
फीके सूख गई पिचकारी
मन कोई उत्साह
नहीं है जीवन लगता भरी
कहीं प्रेम प्रहलाद न
दिखता दिखे दुशासन टोली
कितने वर्ष जलाते
बीते वैसी की वैसी है
चौपट चैती फसलें
'बुधुवा' की ऐसी तैसी है
माथे पर चिन्ता की
लहरें उठेगी कैसे डोली
बहक रहे धनपशु हैं
कैसे महुआ खूब चढाये
बनिया चिन्ता करे
ब्याज की मूल डूब न जाये
चतुरी पण्डित ने
घर- घर में केवल नफरत घोली
कच्चे पक्के भेद
भुलाकर सच्चे रंग से खेलें
दिवस सुनहरे मिले
सभी को दुर्दिन को मिल झेलें
बन्धन तोडो़
नाते जोड़ो करते हुये ठिठोली
तुम ही खेलो होली
भइया तुम ही खेलो होली
मंहगाई से त्रस्त
सभी हैं खाली अपनी झोली
जयराम जय
इ-11/1 कृष्ण विहार,
आवास विकास कल्याणपुर,
कानपुर -208017(उ०प्र०)
फोनं० 05122572721/ 09415429104
ईमेल- jairamjay2011@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-03-2016) को "होली आयी है" (चर्चा अंक - 2290) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'