कमला कृति

मंगलवार, 30 जून 2015

चार कविताएं-कल्पना मिश्रा बाजपेई


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



सोच का नन्हा बादल 


समय के रथ पर
आतीं हैं रंगों से भरी कई बोतलें
रोज सब के आँगन में
और चुपके से
रनरेज़ की तूलिका भी उकेरती
है जीवन के कई अनदेखे चित्र
जिनसे रु-ब-रु होना ही
शायद हमारी है नियति
इसी सबके बीच
गुन-गुनाती सी ज़िंदगानी
तुम्हारी सोच की श्रंखलाओं पर
ऐसे ठुमकती
जैसे नाच रहा हो मतवाला मोर
बादलों की देख कर
श्यामली सी सघनता
क्यों मचलते हो ?
कभी-कभी छोड़ कर देखो
धुंधलाती आशाओं को
नीलाभ गगन में
शायद वो अपने साथ ले आयें
उम्मीद का एक नन्हा बादल
जो बरस जाए तुम्हारे
सूखे ठूँठ से जीवन पर
और तुम पुनः उगने पर
मजबूर हो जाओ
और उगते रहना ही तो जीवन है।



सुघर शाम...


शाम की ढलन में
प्यारी-प्यारी अंछुई सी
रुमानियत है
चाँद को सब के घर आने की
सहूलियत है
समय के रथ के पीछे उड़ते
पीले गुबार में
थोड़ी मासूमियत है
आओ बैठें सांझ की अलिक्षित
विश्रांति में
मन की गहराई में उतर जाने की
हैसियत है।



शगुन की मेंहदी 


मेरी प्यारी सखियो
जरा ठीक से लगाना मेंहदी
दुलारी के हाथों में
बन्नों की
माँ का विश्वास कहीं
फ़ैल न जाए
पापा की उम्मीद की लकीर
कहीं मोटी न हो जाए
बड़े जतन से घोल पाई है शगुन की
मेंहदी दोनों ने मिलकर
तुमको पता है सखी ?
इस मेंहदी में क्या क्या मिला है?
पापा की ठोकरों का पानी
माँ के संघर्षों का कत्था
मेरे सपनों का नीलगिरि
तब जाकर तुझे मिली है
मेरी विश्वास भरी हथेली पर
अपनी प्रिय मनुहार
लगाने को
और हाँ..
ये सब माँ से मत कहना
वो आज बहुत खुश है।



अँधेरी कारा


नीरव नारी की अँधेरी कारा में
रूढ़ियों की अल्पनाओं में
उबारने की जिद्दोजहद में
चाँद आज खुद आया है
उजाला भरने
अँधेरे में लिप्त अस्तित्व हीना
चौधिया गई
पाकर खुद को उजाले में
अधेरी कोठरी में जन्मी स्त्री
पूछ बैठी अबोले होंठों से ,
क्या ये भी ?
मेरे जीवन का हिस्सा है
पुरुषों की जमात से कुछ लम्हे
चुरा कर लाने वाला चाँद मुसकाया
खुशी की चमकती कोर देख
स्त्री रूपी वस्तु ,खिल उठी
पीतल की थाली जैसी
सिर्फ वस्तु समझी जाने वाली स्त्री
तरस गई थी
अपने ही अस्तित्व से रु-ब-रु
होने को,
जिसने जो बनाया बनती चली गई
मूक बधिरों की तरह ....
चलो थोड़ी ही सही
स्त्री की "अँधेरी कारा" रौशन तो हुई।



कल्पना मिश्रा बाजपेई


प्लॉट नंबर 27, फ़्रेंड्स कॉलोनी
निकट रामादेवी चौराहा, चकेरी,
कानपुर (उ०प्र०)
फोन-09455878280, 08953654363
ई-मेल:kalpna2510@gmail.com

गुरुवार, 25 जून 2015

भटकन व अन्य कविताएं-विनोद पासी 'हंसकमल'


अवधेश मिश्र की कलाकृति



भटकन



मेरी भटकन,
क्या है, कैसी है , क्यों है
एक अंतहीन यात्रा
होश से मदहोशी टक
कभी बड़ी तो कभी घटी
कभी दबी तो कभी उभरी

प्रयत्न किये क़ि निकल पाऊँ
इसके गहरे च्रक्रव्यूह  से
पर कभी बन्धनों में बांधा
तो कभी मुक्त हुआ
कभी पलके बिछायी
कभी दामन भिगोया
कभी हँसा तो कभी रोया
डूबा रहा अनगिनित सहारों में

फिर भी न ख़त्म हुई
य़े भटकन, य़े बेचैनी, य़े घुटन
कस्तूरी सी लुभाती रही
भगाती रही, अपने इर्द गिर्द
सभी साया बनी तो कबी
खो गयी तपती धूप में

क्या है, कैसे है, क्यों है
मेरी भटकन
एक अंतहीन यात्रा



ऐसे में कविता कैसे हो..



तुम अक्सर मुझसे य़े कहती हो
कभी शब्दों से, कभी वाणी से
कभी पलकों से, कभी नयनों से,
क्या हुआ तुम्हे है आजकल
जो कविता-मोह ही छोड़ दिया


तुम  य़े भी तो कहती हो, क्या हुआ
तुम्हारी कोमल भावनायों को
क्यों ह्रदय पाषाण-सा हो गया
क्यों होता उसमे कुछ स्पंदन नहीं?
क्या दिखावा था वो कवि-ह्रदय
जिससे था मैंने प्यार किया?
क्या मुद्दे कम है लिखने को
या न लिखने की ठानी है ?


तो सुनो प्रिय, मैं आज तुम्हें बतलाता हूँ
न लिखने का कारण समझाता हूँ
न मैं बदला हूँ , न बदली है भावनाएं
बदला है तो बस य़े ज़ालिम ज़माना


जहाँ हर कस्बें हर सूबे, हर शहर में
कूड़े-करकट के ढेर हों
जहाँ जगह जगह इंसानी मूत्र के दुर्गन्ध हों
जहाँ कुतों और सुअरों का राज हों
जहाँ भूख से व्याकुल जानवर हों
जहाँ जानवरों से बदतर इंसान हों
जहाँ करोड़ों लोगों की  आंखे सूनी हों
जहाँ हर शहर मिट्टी घट्टे में लिपटा हों
जहाँ पाप पुण्य की मर्यादें मिट जाए
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो


जहाँ खाद्य पदार्थों में मिलावट हों
जहाँ प्राण-रक्षक दवाइयां  भी नकली हों
जहाँ बेईमानी घूस-खोरी का आलम हों
जहाँ फर्जी डिग्रियां और मार्क्स शीट्स  बिकती हों
जहाँ बैगों में लड़कियों के कटे अंग मिलते हों
जहाँ वहशीपन का उन्मांद हों
जहाँ लूट-खसोट और अंतहीन लालच हों
जहाँ जनता पर  गरीबी-भुखमरी का शाप हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो


जहाँ द्रौपदी के वस्त्र ले लम्बे टी वी सिरिअल्स हों
जहाँ चैनलों पर विज्ञापनों का जाल हों
जहाँ लाइव शोज्स  में नग्नता फैशन हों
जहाँ महिलाये घरो को तोडती हों,
जहाँ मर्यादाएं पाँव तले रोंद्ती  हों
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो

जहाँ हर महिला बलात्कार के साये में जीती हों
जहाँ बच्चो से मादक पदार्थ वितरित करवाते हों
जहाँ सुरक्षा कर्मी ही जनता को नोचते हों
जहाँ धर्म-राजनीति-शिक्षा-चिकित्सा सब व्यापार हों
जहाँ धर्म गुरुयों पर भी संगीन  अपराध हों
जहाँ कानून भी बस  एक खिलवाड़ हों
जहाँ  जिन्दगी के दोहरी मापदंड हों
जहाँ जीना भी एक दिखावा हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो


जहाँ नेताओ पर गंभीर चार्ज हो
जहाँ सांसद जूते-चप्पलो से बात करे
जहाँ बात बात पे वाक-आउट हो
जहाँ अपराध ही समाचार बने
जहाँ हवा-पानी भी प्रदूषित हो
जहाँ धरती में कीट नाशक उर्वरक हो
जहाँ कन्या  भूर्ण हत्या भी पाप न  हो
जहाँ हिंसा और आगजनी का संगम हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो

जहाँ मीडिया पूँजी-पतियों  की कटपुतली हों
जहाँ भाई-भतीजावाद और बेईमान नेता हों
जहाँ मानव-मूल्यों का सम्पूर्ण हनन हों
जहाँ बेफजूल का शोर शराबा ही तहज़ीब हों
जहाँ दिखावा ही परम मन्त्र हों
जहाँ कत्लो-उपरांत  भी कोई कातिल सिद्ध न हों
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो


प्रिय-
वह काव्यमयी ज़माना लद गया
जब काव्य, काव्य होता था
जब उसमे छंदों और मात्रायों के सीमायें थी
उन सीमायों  को न जानते हुए भी
कबीर और रहीम के दोहे, स्वयं
उनमे मोतियों स्वरूप पिरोये हुए होते  थे

प्रिय-
उस समय हवाएं स्वच्छ थी,
पक्षी भी गाया करते थे
लोग साफ दिल और सीधे थे
टीवी और मनोरंजन की दुनिया से
कवि मन दूषित न था
तभी तो कालिदास कुमार संभव
और शकुंतला जैसी  सर्जना कर पाया

प्रिय-
वक़्त तब भी अच्छा था, जब
दिनकर, प्रसाद, निराला, बच्चन
काव्य जगत पर छाये थे
उनकी काव्यात्मक रचनायों को सुनने
श्रोता -गन दूर दूर से आते थे

प्रिय-
जिसे तुम कविता समझती हो
वह कविता नहीं, शब्द जाल है
वह गाई नहीं जाती, सुनाई नहीं जाती
यह छपती कम, छपाई ज्यादा जाती है
यह सुर-हीन, संगीत-विहीन, जनता की
कविता कभी बनी नहीं, इसमें वेदना है
सम्वेदनाये है, दर्द है, एहसास है
पर इसके मूल में  प्राण-मिठास नहीं

अब तुम्ही कहो ऐ प्राणप्रिये
ऐसे में कविता कैसे हो,
ऐसे में कविता कैसे हो



क्यों मैंने..?


मैं राजघाट से गाँधी नहीं,
उसकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी  की मैंने  ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है कई  विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों  से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते  है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है

क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी  हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
भारतीय मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी


मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न  ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब  हूँ उन  करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने  वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो,  क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया  है,
जिनके लिए  लिए मैंने अपना
पूरा जीवन  जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन  समझने की कोशिश तो  करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे  दर्शन में ही
छिपा  है भारत की समस्याओ का हल


यहाँ  सत्यागढ़ के  ढकोसले  मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने

मेरी समाधी कोई पर्यटन  स्थल नहीं
यहाँ  आकर  फूल मत अर्पण  करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत  नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का  छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........


तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब  तो मेरी तस्वीर भारतीय  मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली  मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने  की  गलती की



कब तक..?



कब तक हम विदेशो में छुपे
आतंकवादियो पर दोष मड़ेगे
कब तक हम इन हमलो में
छिपी अपनी कायरता से मुहँ मोड़ेगे
कब तक हम
इंटेलिजेंस फैलुर का राग अलापेगे
कब तक हम राजनेतिक दलों पर
दोषारोपण करेगे
कभी तो भीतर झांक के देखो,
कभी तो ज़िम्मेदारी मान के देखो
कभी तो कुत्सित राजनीति से
बाहर निकल कर देखो


क्यों सोचते हो की डोसिएर
भेज देने मात्र से पाकिस्तान
आतंकी सोंप देगा, और
अपनी ज़ग हँसी कराएगा
क्यों सोचते हो की कोई और
देश तुम्हारी लड़ाई में साथ देगा
क्या तुमने कभी किसी और की
लड़ाई में हाथ बटाया है?
कुछ चीज़े कभी मांग कर
नहीं मिलती, उन्हें पाने के लिए
संघर्ष करना पड़ता है,
अपनी अस्मिता-रक्षा के  लिए  लड़ाई
अहिंसा से ज्यादा अच्छी है.

विदेशी जमीन पर बेटे आतंकी
तुम्हारी पहुँच से बाहर है
पर जो आतंक फेलाते है
वो तो तुम्हारे अपने ही लोग है
अपने ही देश में है,
क्यों नहीं उनसे निपटते पहले.
जिस सरकार को देशद्रोही को
फाँसी देने के लिए जलाद न मिले
जिस सरकार को  देशद्रोहियों और
आतंकियों को बचाने के लिए
करोड़े रुपये खर्च करने पड़े,
और जो सरकार जनता को छोड़ दे मरने को
ऐसे सरकार का बदल जाना ही बेहतर है,
बदल जाना ही बेहतर है



नोट का टुकड़ा


नोट का टुकड़ा क्या बना,
पूरे विश्व को, सारे  मानव मूल्यों को
अपने  चंगुल में जकड गया
सब सुख चैन छीन लिया और
सुख चैन से भी खुद  जुड़ गया

नोट के इस टुकड़े ने
ऐसा बांधा हर मानुस को
भावनाए  भी तुलने लगी
स्वम इसके तराजू में
इन्सान कोरे होने लगे
इसके  मोह  जाल  में

नोट का यह टुकड़ा
कारण है बहुत समस्याओ का
और निवारण भी है बहुत उलझनों का
पर  इस घमंडी ने कभी  मुहँ नहीं
देखा  कहीं किसी कूड़ेदान का
बस एक  जेब से निकल दूसरी में जाता है
पलक झपकते ही ओझिल हो जाता है

नोट का यह टुकड़ा
नचाता है सबको अपने इर्द गिर्द
हँसाता है कभी, तो कभी रुलाता है
और कभी हँसता है हम पर,
हमारी विवशता पर, हमारी मूर्खता  पर
कभी सांत्वना देता है अपनी गर्मी से
कभी आँखों से नींद चुरा लेता है
कभी खुली आँखों को सपने दिखा देता है
तो कभी ज्यादा पाने की चाह में
हवालात के भी दर्शन करवा देता है

नोट का यह एक टुकड़ा
यह न  कभी किसी का था, न होगा
इसकी फितरत में ही  बेवफाई है



विनोद पासी 'हंसकमल'


Attache (चीन)
पूर्व एशिया प्रभाग,
कमरा नं 255 ए,
साउथ ब्लॉक, नई दिल्ली
फ़ोन-011-23014900
ईमेल-vinodpassy@gmail.com

शनिवार, 20 जून 2015

अजामिल की कविताएं


कलाकृति-अजामिल



बाबूजी की चिट्ठियाँ


जैसे कोई किसी की  
जिंदगी सँवारता है - धीरे-धीरे
मुजस्समे तराशता है संतरास
संगीत रचता है -
हवाओं के चलने से
आस्थाएं और विश्वास से पैदा होते हैं
वेद-पुराण
बाइबिल-कुरान
बीज बनता है वृक्ष जैसे
वैसे ही किसी अज्ञात पीड़ा से गुजरकर
चिट्ठियाँ लिखा करते थे बाबूजी -
एक कलाकार की तरह

शबनमीं हरूफों के
गोशे-गोशे में
बसी होती थी उनकी रूह

कहाँ जाना है
कहाँ मुड़ना है
कहाँ रुकना है - बताते थे ऐसे
जैसे कोई भटके हुए को
बताए रास्ता

‘प्रिय’ से शुरु होकर
‘तुम्हारे बाबूजी “ तक
आशीष बरसता था - मूसलाधार
उनकी चिट्ठियों में

भीग जाता था
रोम-रोम
उनके प्यार-दुलार से
चिट्ठियों में साँस लेते थे
बाबू जी

सिर चढ़कर बोलता है आज भी
उनकी लिखावट का जादू
कोई-कोई ही बुन पाता है जिंदगी को
इतने सलीके से

यकीनन दिल और दिमाग पर
छा-जाने वाली
कालजयी रचनाओं की तरह हैं -
बाबूजी की चिट्ठियाँ

सोचता हूँ - इन्हे सहेजकर भी तो
सहेजे जा सकते हैं -
बाबूजी


कोई बच्चा


इस डरावने सन्नाटे के खिलाफ
दुनिया के तिलिस्म में आने से पहले
कोई बच्चा धीरे-धीरे रो रहा है
माँ के गर्भ में

कोई और एक बच्चा गर्भ सागर में
चीख रहा है
जन्म लेने से इंकार कर रहा है
पृथ्वी पर

कोई बच्चा परख-नली में धड़क रहा है
आँखें खोलने के लिए

इच्छाओं की ताप से
मुक्त होने के लिए
नाली में बहा दिया गया है कोई बच्चा
अभी-अभी तेज पानी की धार के साथ
कमोड के रास्ते अवांक्षित मानकर

कोई बच्चा दर्ज करवा रहा है
अपना परिचय स्केनर के चमकदार पर्दे पर

अपने-अपने मतलब के बच्चे
तलाशे जा रहे हैं - करोड़ों-करोड़ गर्भ में पल रहे
बेमतलब के बच्चों के बीच से

कसाईबाड़े में जब
सुविधाएं जन्मेंगी - नया जीवन
बच्चे गर्भ में चीखेंगे चिल्लायेंगे

लंगड़ी-लूली
शताब्दी इस तरह दाखिल होगी
आगामी वर्तमान में

कोख में कुछ नहीं होगा तब

परदे पर
बच्चे की तस्वीर भी नहीं ।



औरतें जहाँ भी हैं


दरवाजे खोलो
और दूर तक देखो खुली हवा में

मर्दों की इस तानाशाह दुनिया में
औरतें जहाँ भी हैं - जैसी भी हैं
पूरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं - वे हमारे बीच
अंधेरे में रोशनी की तरह

औरतं हँसती हैं - खिखिलाती हैं औरतें
खुशियाँ बरसती हैं सब तरफ
छोटे-छोटे उत्सव बन जाती हैं औरतें
औरतें रोती हैं - सिसक-सिसककर जब कभी
अज्ञात दारूण दुःख में भीग ताजी है यह धरती

औरतें हमारा सुख हैं
औरतें हमारा दुःख हैं
हमारे सुख-दुःख की गहरी अनुभूति हैं ये औरतें

जड़ से फल तक - डाल से छाल तक
वृक्षों-सी परमार्थ में लगी हैं - ये औरतें
युगों से कूटी-पीसी-छीली-सुखायी और सहेजी जा रही हैं औरतें
असाध्य रोगों की दवाओं की तरह

सौ-सौ खटरागों में खटती हुई
रसोईघरों की हदों में
औरतें गमगमाती हैं - मीट-मसालों की तरह
सिलबट्टों पर खुशी-खुशी पोदीना-प्याज की तरह
पिस जाती हैं औरतें

चूल्हे पर रोटी होती हैं औरतें
यह क्या कम बड़ी बात है
लाखों करोड़ों की भूख-प्यास हैं औरतें

पृथ्वी-सी बिछी हैं औरतें
आकाश-सी तनी हैं औरतें
जरूरी चिट्ठियों की तरह
रोज पढ़ी जाती हैं औरतें
तार में पिरो कर टांग दी जाती हैं औरतें
वक्त-जरूरत इस तरह
बहुत काम आती हैं औरतें

शोर होता है जब
औरतें चुपचाप सहती हैं ताप को
औरतें चिल्लाती हैं जब कभी
बहुत कुछ कहतीं हैं आपको

औरतों के समझने के लिए तानाशाहों
पहले दरवाजे खोलो
और दूर तक देखो खुली हवा में ।


उस दिन


उस दिन उसने पाँच हाथ की साड़ी पहनी
उस दिन उसने खुदको लपेटा - सब तरफ से
उस दिन उसने दिन में कई-कई बार
आईना देखा
उस दिन उसने कंधे पर खोल दिये लम्बे बाल
उस दिन खुद को छुपाते हुए सबसे
इठलाई, इतरायी और शर्मायी

उस दिन पूरे समय गुनगुनाती रही - इधर उधर
उस दिन उसने स्टीरियो पर
दर्द भरा गीत सुना
उस दिन उसने
अलबम में तस्वीरें देखी - आँख भर,
उस दिन सुबक सुबक रोयी - जाने क्या सोचकर

उस दिन उसे चाँद खूबसूरत लगा
उस दिन चिड़ियों की तरह आकाश में -
उड़ने को चाहा उसका मन
उस दिन उसने बालकनी में खडे़ होकर
जी भर देखा दूर-दूर तक

उस दिन उसने सपने सहेजे
उस दिन उसने अंतहीन प्रतीक्षा की -
किसी के आने की
उस दिन उसने जीवन में पहला प्रेमपत्र लिखा
उस दिन उसने रूमाल पर बेलबूटे बनाए
और मगन हो गयी ............

उस दिन
हाँ, उस दिन हमारे देखते-देखते -
बिटिया बड़ी हो गयी ।


बुरा वक़्त


बुरे वक्त में
अक्सर बुरे नहीं होते हम
कुछ तिरछी- बाँकी चाल से
छुपते-छुपाते भी
बयान हो जाती हैं - अच्छी आदतें

बुरे वक्त में
कुछ ज्यादा ही गुनगुनाते हैं हम
सीटियाँ बजाते हैं - बेवजह
भले ही तनतनाती घूमती हो उसकी गूँज
शब्दान्तरित होती - संवेदनाओं में

बुरे वक्त में
हम पैदल ही निकल जाते हैं - टहलने
अतीत में
अजनबियों से भी हाथ मिलाने पर
सुकून-ज़दा गर्मी महसूस होती है - हथेलियों में
हाथ छोड़ने का जी नहीं करता - बुरे वक्त में

अच्छे वक्त में भी
बहुत याद आता है - बुरा वक्त
पुरानी - सबसे पुरानी तस्वीरों और चिट्ठियों में
खुद को तलाशता है - बुरा वक्त
बीमार बुजुर्गों की तरह
रात-रात भर खाँसता-खंखारता है - बुरा वक्त
नेपाली चौकीदारों की तरह बेहद वफादार है - बुरा वक्त

हर ईमानदार कोशिश में
सबसे अच्छा होता है - बुरा वक्त
बुरे वक्त में सीढ़ियाँ खुद-ब-खुद जाती हैं -
अच्छे वक्त की तरफ

बुरे वक्त में
कभी नहीं बहती खून की नदियाँ
म्यानों में आराम फरमाते हैं - तलवार और खंजर
सोने मढ़े दांतों की सफाई होती है - बुरे वक्त में
दोनालियों में पनाह पाते हैं कॉक्रोच
तितलियाँ बेखौफ घूमती हैं घाटियों में
गर्भाधान सकुशल होता है
चिड़ियां झूठे बर्तनों पर मंडराती हैं
नमक-निवाले के लिए
लोग अपने घरों से निकलते हैं -
खटखटाते हैं पड़ोसी के दरवाजों की कुण्डियाँ
वक्त - बेवक्त का कोई बुरा नहीं मानता - बुरे वक्त में

बुरे वक्त में
कच्चे प्याज की बास बन जाता है प्यार
प्रेमिका के आलिंगन में बादलों-सा
बरस कर निकल जाता है - बुरा वक्त

आँखें पढ़ी जाती हैं - बुरे वक्त में
ताबीजों में दुआ होता है - बुरा वक्त
गिरजाघरों की चाँदी होती है - बुरे वक्त में
बुरे वक्त में देवता भी स्वर्ग में होते हैं -
आदमी को ठेंगा दिखाकर

बुरे वक्त में
औजार बदलते हैं - हमारी शिनाख्त के
बुरा वक्त जी भर तोड़ता है हमें
बुरा वक्त जी भर जोड़ता है हमें
बुरे वक्त में हम पहचाने जाते हैं -
अच्छे वक्त के लिए

खूब गहरी नींद की तरह है - बुरा वक्त
बुरा वक्त इतना भी बुरा नहीं होता कभी
कि हाशिए पर उसे
फेंक दिया जाए -
अच्छे वक्त के लिए   अक्सर
तब अच्छे वक्त में ही छुपा होता है - बुरा वक्त
बुरा वक्त भी बुरा नहीं
बुरे की मुखालफत के लिए

जिंदगी की इस जद्दोजहद में
यकीनन
बडे काम का है - ये बुरा वक्त


अजामिल


  • मूल नाम : आर्य रत्न व्यास 
  • पिता का नाम : स्व०डॉ० बसंत नारायण व्यास 
  • प्रकाशन : देश की लगभग सभी चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियां, लेख आदि प्रकाशित | 
  • काव्य संकलन : त्रयी एक (संपादक डॉ० जगदीश गुप्त), शिविर (संपादक विनोद शाही), काला इतिहास (संपादक बलदेव वंशी), सातवें दशक की सर्व श्रेष्ठ कविताएँ (संपादक डॉ० हरिवंशराय बच्चन), जो कुछ हाशिए पर लिखा है (संपादक अनिल श्रीवास्तव, संपादक कथ्य रूप) 
  • काव्य संग्रह : औरते जहाँ भी हैं (शीग्र प्रकाश्य) 
  • संपर्क: 712/6, हर्षवर्धन नगर,मीरापुर, इलाहाबाद 
  • मो.09889722209 
  • ईमेल: ajamil777@gmail.com 

सोमवार, 15 जून 2015

कल्पना रामानी की पांच ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


(एक) 


फूलों से खुशबू लेकर खिलने का वादा।
खुद से कर लो जीवन भर हँसने का वादा।

बन आँसू बोझिल हों पलकें अगर तुम्हारी
बुझे पलों से करो पुलक बनने का वादा।

करना होगा अगम जलधि की जलधारा से
मझधारा में कभी नहीं फँसने का वादा।

चलते-चलते पाँव फिसलने लगते हों यदि
करो उस जगह कभी न पग धरने का वादा।

आँख दिखाती जीवन-पथ की चट्टानों को
चूर-चूर कर हो आगे बढ़ने का वादा।

टूटे यह अनुबंध तुम्हारा कभी न खुद से
वादों पर हो सदा अडिग चलने का वादा।

फिर-फिर मिलता नहीं “कल्पना” मानव-जीवन
मन से हो इंसान बने रहने का वादा।



(दो) 


जिसके कर कमलों से यह घर, स्वर्ग सा बना।
उस माँ की हम, निस दिन मन से, करें वंदना।

जिसके दम से, हैं जीवन में, सदा उजाले,
उसके जीवन, में उजास की, रहे कामना।

जिसने ममता, के आगे निज, किया निछावर,
उस ममत्व को, करें नमन, रख शुद्ध भावना।

आजीवन जो, रही दायिनी, संतति के हित,
उसके हित के, लिए करे संतान प्रार्थना।

धूप वरण कर, जिसने हमको सदा छाँव दी,
हम उपाय वे करें न माँ को, छुए वेदना।

सारे संचित पुण्य सौंपती, जो संतति को,
फर्ज़ यही, संतान उसे सौंपे न यातना।

जिस देवी ने संस्कारों से सींचा हमको,
उसके चूमें कदम, सफल तभी साध्य-साधना।

शीश झुकाते सुर त्रिलोक के जिसके द्वारे,
वंचित हो उस मातृ-प्रेम से कोई द्वार ना।

जिसने पाया मूर्त मातृ-सुख इस जीवन में,
भव में वो इंसान सुखी है सदा ‘कल्पना’



(तीन) 


मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।

जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।

तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।

चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।

भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।

सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।

घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में खुदा!
व्योम में उड़ता तराना चाहिए।

थम न जाए अब कलम यह ‘कल्पना’
गीत गज़लों का खज़ाना चाहिए।



(चार)


छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।

माँ तो होती है सभी की, जो जगत के जीव हैं,
मातृ सुख किसको मिलेगा, ये मगर लिखता नसीब।

कर दे राजा को भिखारी और राजा रंक को,
अर्श से भी फर्श पर, लाकर बिठा देता नसीब।

बिन बहाए स्वेद पा लेता है कोई चंद्रमा,
तो कभी मेहनत को भी होता नहीं दाना नसीब।

दोष हो जाते बरी, निर्दोष बन जाते सज़ा,
छटपटाते मीन बन, जिनका हुआ काला नसीब।

दीप जल सबके लिए, पाता है केवल कालिमा,
पर जलाते जो उसे, पाते उजालों का नसीब।

‘कल्पना’ फिर द्वेष कैसा, दूसरों के भाग्य से,
क्यों न शुभ कर्मों से लिक्खें, हम स्वयं अपना नसीब।



(पांच) 


गर्भ में ही काटकर, अपनी सुता की नाल माँ!
दुग्ध-भीगा शुभ्र आँचल, मत करो यूँ लाल माँ!

तुम दया, ममता की देवी, तुम दुआ संतान की,
जन्म दो जननी! न बनना, ढोंगियों की ढाल माँ!

मैं तो हूँ बुलबुल तुम्हारे, प्रेम के ही बाग की,
चाहती हूँ एक छोटी सी सुरक्षित डाल माँ!

पुत्र की चाहत में तुम अपमान निज करती हो क्यों?
धारिणी, जागो! समझ लो भेड़ियों की चाल माँ!

सिर उठाएँ जो असुर, उनको सिखाना वो सबक,
भूल जाएँ कंस कातिल, आसुरी सुर ताल माँ!

तुम सबल हो, आज यह साबित करो नव-शक्ति बन,
कर न पाएँ कापुरुष, ज्यों मेरा बाँका बाल माँ!

ठान लेना जीतनी है, जंग ये हर हाल में,            
खंग बनकर काट देना, हार का हर जाल माँ!

तान चलना माथ, नन्हाँ हाथ मेरा थामकर,
दर्प से दमका करे ज्यों, भारती का भाल माँ!

‘कल्पना’ अंजाम सोचो, बेटियाँ होंगी न जब,
रूप कितना सृष्टि का, हो जाएगा विकराल माँ!



कल्पना रामानी 



  • जन्म तिथि-6 जून 1951 (उज्जैन-मध्य प्रदेश) 
  • शिक्षा-हाईस्कूल तक 
  • रुचि- गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि।  
  • वर्तमान में वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की सह संपादक। 
  • प्रकाशित कृतियाँ-नवगीत संग्रह-‘हौसलों के पंख’ 
  • निवास-मुंबई महाराष्ट्र  
  • ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

बुधवार, 10 जून 2015

राजेंद्र वर्मा की रचनाएं


अजामिल की कलाकृति


नेताओं का खेल (दोहे) 


                                   
नेता-अपराधी करें, नन्दनवन की सैर।
सांप-नेवले का मिटा, जनम-जनम का बैर।।

फ़सल जाति की बो गये, अपने नेता-लोग।
काटे से बढ़ती गयी, है ऐसा संयोग।।

सत्ता की ख़ातिर गया, मतभेदों को भूल।
कल तक जो प्रतिकूल था, आज हुआ अनुकूल।।

जनहित वार्तालाप है, नेताओं का खेल।
लेकिन क्या निकला कभी, बालू से भी तेल।।

नेता बेहतर जानता, कहां करे क्या बात!
अपना हित कैसे करे, देकर सबको मात।।

हमको तो मालूम था, क्या है बन्दरबांट।
किन्तु सुलझवाते रहे, हम नेता से गांठ।।

नेता करता रोड शो, जनता चलती साथ।
नेता पाता थैलियाँ, जनता मलती हाथ।।

नेताओं की बात पर, रहा नहीं विश्वास।
गर्जन करते मेघ से, ज्यों न बूँद की आस।।
             
जनता का सब धन गया, स्विस बैंक के पास।
लोग लगाये हैं अभी, नेताओं से आस।।

नेता का साहित्य पर, है अतिशय उपकार।
कभी हास्य-बौछार है, कभी व्यंग्य की मार।।

नेता पनपे इस तरह, हुई कोढ़ में खाज।।
बीमारी बढ़ती गयी, ज्यों-ज्यों हुआ इलाज।।

भारत को फिर चाहिए, गांधी और सुभाष।
ताकि लोग फिर कर सकें, नेता पर विश्वास।।



पांच कुण्डलियाँ 


(एक)

कविता करना कब कठिन, किन्तु कठिन कवि-कर्म।
कविता क्रन्दन क्रौंच का, करुणा कवि का धर्म।।
करुणा कवि का धर्म, भावना यदि कल्याणी।
हर संचारी भाव, प्राप्त कर लेता वाणी।।
सुष्ठु छन्द हैं कूल, नवों रस-प्लावित सरिता।
लहर-लहर श्रृंगार, नीति, दर्शन है कविता।।


(दो)

कविता के प्याऊ लगे, प्यासे पहुंचे पास।
काव्य-सरसता के बिना, रही अनबुझी प्यास।।
रही अनबुझी प्यास, मंच पर बैठे जोकर।
पुलकित मंचाध्यक्ष, देख कवयित्री सुन्दर।।
छाये हो जब मेघ, नहीं दिखता है सविता।
हास्य-लास्य के मध्य, खो़ गयी हिन्दी कविता।।


(तीन)

कविता के इस दौर में, छन्द हुआ मतिमन्द।
पड़े हुए हैं पार्श्व में,  सुष्ठु सामयिक छन्द।।
सुष्ठु सामयिक छन्द,  हुए कविता से बाहर।
कविता है वह आज, चढ़े जो नहीं ज़ुबां पर।।
धीरे-धीरे सूख, गयी गीतों की सरिता।
लय-यति-गति, सब त्याग, हो गयी कैसी कविता?


(चार)

मानवता को बेचकर,  मनुज बना धनवान।
क्रय करना अब चाहता,  प्रेम और सम्मान।।
प्रेम और सम्मान,  नहीं विपणन की चीज़ें।
बुद्धिमानजन किन्तु, नहीं दौलत पर रीझें।।
धन-दौलत का स्थान,  प्रेम के नीचे रहता।
संचित करिए प्रेम, कि हो पोषित मानवता।।


(पांच) 

सदियों से रचता रहा,  मानव निज इतिहास।
पर मानवता का अभी,  हुआ नहीं विन्यास।।
हुआ नहीं विन्यास,  स्वार्थ से मानव हारा।
तृष्णाओं की भेंट, चढ़ा जाता बेचारा।।
मानव यदि संपृक्त, न होगा सन्मतियों से।
मानवता अभिशप्त, रहेगी ज्यों सदियों से ।।



राजेंद्र वर्मा 


  • जन्म-मार्च 1955
  • प्रकाशन- गीत, ग़ज़ल, दोहा, हाइकु, लघुकथा, व्यंग्य व निबंध विधाओं में एक दर्ज़न पुस्तकें प्रकाशित। महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित।
  • पुरस्कार/सम्मान-उ.प्र.हिंदी संस्थान के व्यंग्य एवं निबंध नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
  • मूल्यांकन-लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार की साहित्यिक साधना पर एम्.फिल. संपन्न।
  • कई शोधग्रंथों में संदर्भित। कुछ लघुकथाओं और गजलों का पंजाबी में अनुवाद।
  • संपर्क-3/29 विकास नगर, लखनऊ- 226 022
  • मो. 80096 60096  
  • blog-rajendravermalucknow.blogspot.in
  • ईमेल- rajendrapverma@gmail.com

शुक्रवार, 5 जून 2015

राघवचेतन राय की कविताएं



विनोद शाही की कलाकृति



एक दिन



होने का केवल एक ही दिन है
जीने से मरने तक
नौकर की तरह पतला
या मालिक की तरह मोटा
प्रतीक्षा की तरह लम्बा
या मिलन की तरह छोटा
फिक्र किसका किया है
घड़ी ने
कैलेण्डर ने?
दिन-रात, सुबह-शाम, वर्ष-महीना
कोई तिलस्म है
माया की छाया बन जीते चले जाना
जिक्र कब हुआ है
अनचाहे आशिक का
प्रिया से
जमाने से
चाहत में पीड़ा है
राहत में क्रीड़ा
धूप-छाँव
सर्द-गरम
मौत की पहरेदारी में
आदमी की चेतना का बार-बार
खिलना-मुरझाना
पराग की चिरयात्रा का अफ़साना है।



भले लोग



जवान होना
शाबाशी पाना
और भलेमानुस कहलाना
सब की इच्छा होती है।
वास्तव में होना चाहिए
कुछ विपरीत
क्योंकि दाता
प्रायः भुला ही दिए जाते हैं
जल्द
चर्चा कभी नहीं होती होगी
उनके बाद।
बाँहें मरोड़ने, दुलत्ती और
लँगड़ी लगाने वाले
देर तक आते हैं याद;
बैठकी गप्प लतीफों में
यों अपरोक्ष में
बदमाशों की उम्र बढ़ती रहती है
भलेमानुष का अंत में
सब छिन जाता है
दोस्ती और अनुराग
जैसे निकाले हुए पालतू का घर



मसूरी



हमने बेचा है
बहुत कुछ
लेकिन
अभी बाकी है बेचना
सबसे खूबसूरत
हिल स्टेशन को
कांक्रीट से।
पहाड़ को
मिट्टी बनने में
देर ही कितनी
लगती होगी
काठ को गिराना
और
वहाँ पर
लोहा ईंट और सीमेंट रखना।
हम हरियली और बर्फ
बेचेंगे
रोटरी और लायंस के
जलसों पर
कहेंगे कुछ
वास्तव में करेंगे कुछ और
हिल स्टेशन जैसी प्रापर्टी
हथियाने के लिए।
मैं मसूरी बेचूँगा
तुम नैनीताल
वह शिमला बेचेगा
और वे साउथ में
ऊटी बेच रहे हैं
ते फिर अच्छे मौसम की याद
अब न रखना अपने पास।



वह गिरी बेचने वाला लड़का



मैंने गिरी बेचते हुए
साँवले छोकरे को ठुमक कर
चलते और हँसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
ठेले वाले, केले वाले,सब्जी वाले
खुमचे वाले, पान वाले,
शरबत वाले और किरानी
अक्सर स्लिम बहुधा ट्रिम
प्रायः वाचाल लगभग तृप्त सैलानी
बहती हुई बेहूदा भीड़ और शोर के किनारे
कुछ-कुछ मरचैन्ट आफ वेनिस की परम्परा में
बतिया कर, फुसलाकर और
कभी चिल्ला-चिल्लाकर
कभी बैठकर, कभी खड़े होकर,
कभी चल-चलकर
चाल में आत्मनिर्भरता की ठसक
बोली में आदत का सान्निध्य
कैसे कमा लेते हैं?
मुझे दफ्तर जाते हुए शिकायती डरे हुए
गुमसुम बाबुआना या अफसराना लोग
हैमलेट के मृत पिता के
तुनक-मिजा़ज भूत की तरह लगते हैं
कैसी शान जो ज्येष्ठ के तेवर बदलते ही
घिघिया जाती है
कैसा काम
जिससे कोई-न-कोई बहाना बनाकर
फूट लेने की सद्इच्छा रहती है
नौकरी जिससे कुछ ही दिनों में
भंगुआए निर्भर द्वंद रहित माहौल में
खाते-खाते, पीते-पीते,
सेते-सोते जवानी पक जाती है
और गोश्त थुलथुलाकर लटक जाता है
बोलना कानाफूसी में,
घर बनाना लुक-छिपकर
राग-रंग, विषय-भोग
गुमनामी के अँधेरे में
जहाँ हँसना, रोना,
गाना, चिल्लना
आचार-संहिता के हिसाब से सब बंद है
उसी के लिए लोग
वर्षों तक लाइन लगाते हैं
भँडुआ बनने के लिए
खुद गले में चमोटी लगा लेते हैं।
मैंने गिरी बेचते हुए
साँवले छोकरे को ठुमक कर
चलते और हँसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
अगर मेरी बेटी उसे चाहने लगे
तो मैं उसकी शादी उससे कर दूँगा
और अर्जी से मर्जी देने वाले
पड़ोसी के उस अपाहिज प्रेमी से कहूँगा
ईस्ट इंडिया कं. चली गई
तुम भी दफा हो जाओ।



राघवचेतन राय 



राघवचेतन राय (13 दिसंबर,1944–25 जनवरी,2013) की कवितायें केवल भावात्मक स्तर पर नहीं बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी सक्रिय होती हैं। इनके तीन कविता संग्रह , ‘वह गिरी बेचने वाला लड़का’, ‘वंचितों का निर्वाचन क्षेत्र,’ और ‘बहने अब घर में नहीं हैं’ प्रकाशित और चर्चित हुए। इन्होंने अरबी कवि निसार कब्बानी, अंग्रेजी कवि सी.एच. सिसन और विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध साम्यवादी कवियों की कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया जो सराहे गए। इनका मूल नाम आर.के.सिंह था जो भारतीय राजस्व सेवा में 1968 में चयनित हुए थे और मुख्य आयकर आयुक्त एवं आयकर समझौता आयोग से सेवानिवृत हुए। राघवचेतन राय ने पाँच वर्षों तक साहित्यिक पत्रिका ‘परिंदे’ का संपादन किया।