विनोद शाही की कलाकृति |
एक दिन
होने का केवल एक ही दिन है
जीने से मरने तक
नौकर की तरह पतला
या मालिक की तरह मोटा
प्रतीक्षा की तरह लम्बा
या मिलन की तरह छोटा
फिक्र किसका किया है
घड़ी ने
कैलेण्डर ने?
दिन-रात, सुबह-शाम, वर्ष-महीना
कोई तिलस्म है
माया की छाया बन जीते चले जाना
जिक्र कब हुआ है
अनचाहे आशिक का
प्रिया से
जमाने से
चाहत में पीड़ा है
राहत में क्रीड़ा
धूप-छाँव
सर्द-गरम
मौत की पहरेदारी में
आदमी की चेतना का बार-बार
खिलना-मुरझाना
पराग की चिरयात्रा का अफ़साना है।
भले लोग
जवान होना
शाबाशी पाना
और भलेमानुस कहलाना
सब की इच्छा होती है।
वास्तव में होना चाहिए
कुछ विपरीत
क्योंकि दाता
प्रायः भुला ही दिए जाते हैं
जल्द
चर्चा कभी नहीं होती होगी
उनके बाद।
बाँहें मरोड़ने, दुलत्ती और
लँगड़ी लगाने वाले
देर तक आते हैं याद;
बैठकी गप्प लतीफों में
यों अपरोक्ष में
बदमाशों की उम्र बढ़ती रहती है
भलेमानुष का अंत में
सब छिन जाता है
दोस्ती और अनुराग
जैसे निकाले हुए पालतू का घर
मसूरी
हमने बेचा है
बहुत कुछ
लेकिन
अभी बाकी है बेचना
सबसे खूबसूरत
हिल स्टेशन को
कांक्रीट से।
पहाड़ को
मिट्टी बनने में
देर ही कितनी
लगती होगी
काठ को गिराना
और
वहाँ पर
लोहा ईंट और सीमेंट रखना।
हम हरियली और बर्फ
बेचेंगे
रोटरी और लायंस के
जलसों पर
कहेंगे कुछ
वास्तव में करेंगे कुछ और
हिल स्टेशन जैसी प्रापर्टी
हथियाने के लिए।
मैं मसूरी बेचूँगा
तुम नैनीताल
वह शिमला बेचेगा
और वे साउथ में
ऊटी बेच रहे हैं
ते फिर अच्छे मौसम की याद
अब न रखना अपने पास।
वह गिरी बेचने वाला लड़का
मैंने गिरी बेचते हुए
साँवले छोकरे को ठुमक कर
चलते और हँसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
ठेले वाले, केले वाले,सब्जी वाले
खुमचे वाले, पान वाले,
शरबत वाले और किरानी
अक्सर स्लिम बहुधा ट्रिम
प्रायः वाचाल लगभग तृप्त सैलानी
बहती हुई बेहूदा भीड़ और शोर के किनारे
कुछ-कुछ मरचैन्ट आफ वेनिस की परम्परा में
बतिया कर, फुसलाकर और
कभी चिल्ला-चिल्लाकर
कभी बैठकर, कभी खड़े होकर,
कभी चल-चलकर
चाल में आत्मनिर्भरता की ठसक
बोली में आदत का सान्निध्य
कैसे कमा लेते हैं?
मुझे दफ्तर जाते हुए शिकायती डरे हुए
गुमसुम बाबुआना या अफसराना लोग
हैमलेट के मृत पिता के
तुनक-मिजा़ज भूत की तरह लगते हैं
कैसी शान जो ज्येष्ठ के तेवर बदलते ही
घिघिया जाती है
कैसा काम
जिससे कोई-न-कोई बहाना बनाकर
फूट लेने की सद्इच्छा रहती है
नौकरी जिससे कुछ ही दिनों में
भंगुआए निर्भर द्वंद रहित माहौल में
खाते-खाते, पीते-पीते,
सेते-सोते जवानी पक जाती है
और गोश्त थुलथुलाकर लटक जाता है
बोलना कानाफूसी में,
घर बनाना लुक-छिपकर
राग-रंग, विषय-भोग
गुमनामी के अँधेरे में
जहाँ हँसना, रोना,
गाना, चिल्लना
आचार-संहिता के हिसाब से सब बंद है
उसी के लिए लोग
वर्षों तक लाइन लगाते हैं
भँडुआ बनने के लिए
खुद गले में चमोटी लगा लेते हैं।
मैंने गिरी बेचते हुए
साँवले छोकरे को ठुमक कर
चलते और हँसते हुए देखा है
वह मुझे अच्छा लगता है
अगर मेरी बेटी उसे चाहने लगे
तो मैं उसकी शादी उससे कर दूँगा
और अर्जी से मर्जी देने वाले
पड़ोसी के उस अपाहिज प्रेमी से कहूँगा
ईस्ट इंडिया कं. चली गई
तुम भी दफा हो जाओ।
राघवचेतन राय
राघवचेतन राय (13 दिसंबर,1944–25 जनवरी,2013) की कवितायें केवल भावात्मक स्तर पर नहीं बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी सक्रिय होती हैं। इनके तीन कविता संग्रह , ‘वह गिरी बेचने वाला लड़का’, ‘वंचितों का निर्वाचन क्षेत्र,’ और ‘बहने अब घर में नहीं हैं’ प्रकाशित और चर्चित हुए। इन्होंने अरबी कवि निसार कब्बानी, अंग्रेजी कवि सी.एच. सिसन और विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध साम्यवादी कवियों की कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया जो सराहे गए। इनका मूल नाम आर.के.सिंह था जो भारतीय राजस्व सेवा में 1968 में चयनित हुए थे और मुख्य आयकर आयुक्त एवं आयकर समझौता आयोग से सेवानिवृत हुए। राघवचेतन राय ने पाँच वर्षों तक साहित्यिक पत्रिका ‘परिंदे’ का संपादन किया।
सुंदर और भावपूर्ण कविताएँ
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