चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
सोच का नन्हा बादल
समय के रथ पर
आतीं हैं रंगों से भरी कई बोतलें
रोज सब के आँगन में
और चुपके से
रनरेज़ की तूलिका भी उकेरती
है जीवन के कई अनदेखे चित्र
जिनसे रु-ब-रु होना ही
शायद हमारी है नियति
इसी सबके बीच
गुन-गुनाती सी ज़िंदगानी
तुम्हारी सोच की श्रंखलाओं पर
ऐसे ठुमकती
जैसे नाच रहा हो मतवाला मोर
बादलों की देख कर
श्यामली सी सघनता
क्यों मचलते हो ?
कभी-कभी छोड़ कर देखो
धुंधलाती आशाओं को
नीलाभ गगन में
शायद वो अपने साथ ले आयें
उम्मीद का एक नन्हा बादल
जो बरस जाए तुम्हारे
सूखे ठूँठ से जीवन पर
और तुम पुनः उगने पर
मजबूर हो जाओ
और उगते रहना ही तो जीवन है।
सुघर शाम...
शाम की ढलन में
प्यारी-प्यारी अंछुई सी
रुमानियत है
चाँद को सब के घर आने की
सहूलियत है
समय के रथ के पीछे उड़ते
पीले गुबार में
थोड़ी मासूमियत है
आओ बैठें सांझ की अलिक्षित
विश्रांति में
मन की गहराई में उतर जाने की
हैसियत है।
शगुन की मेंहदी
मेरी प्यारी सखियो
जरा ठीक से लगाना मेंहदी
दुलारी के हाथों में
बन्नों की
माँ का विश्वास कहीं
फ़ैल न जाए
पापा की उम्मीद की लकीर
कहीं मोटी न हो जाए
बड़े जतन से घोल पाई है शगुन की
मेंहदी दोनों ने मिलकर
तुमको पता है सखी ?
इस मेंहदी में क्या क्या मिला है?
पापा की ठोकरों का पानी
माँ के संघर्षों का कत्था
मेरे सपनों का नीलगिरि
तब जाकर तुझे मिली है
मेरी विश्वास भरी हथेली पर
अपनी प्रिय मनुहार
लगाने को
और हाँ..
ये सब माँ से मत कहना
वो आज बहुत खुश है।
अँधेरी कारा
नीरव नारी की अँधेरी कारा में
रूढ़ियों की अल्पनाओं में
उबारने की जिद्दोजहद में
चाँद आज खुद आया है
उजाला भरने
अँधेरे में लिप्त अस्तित्व हीना
चौधिया गई
पाकर खुद को उजाले में
अधेरी कोठरी में जन्मी स्त्री
पूछ बैठी अबोले होंठों से ,
क्या ये भी ?
मेरे जीवन का हिस्सा है
पुरुषों की जमात से कुछ लम्हे
चुरा कर लाने वाला चाँद मुसकाया
खुशी की चमकती कोर देख
स्त्री रूपी वस्तु ,खिल उठी
पीतल की थाली जैसी
सिर्फ वस्तु समझी जाने वाली स्त्री
तरस गई थी
अपने ही अस्तित्व से रु-ब-रु
होने को,
जिसने जो बनाया बनती चली गई
मूक बधिरों की तरह ....
चलो थोड़ी ही सही
स्त्री की "अँधेरी कारा" रौशन तो हुई।
कल्पना मिश्रा बाजपेई
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ई-मेल:kalpna2510@gmail.com
अपनी पत्रिका में मेरी कविताओं को स्थान देने के लिए शुक्रिया आदरणीय सुबोध सर !!
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं का सदा स्वागत है..
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