अवधेश मिश्र की कलाकृति |
भटकन
मेरी भटकन,
क्या है, कैसी है , क्यों है
एक अंतहीन यात्रा
होश से मदहोशी टक
कभी बड़ी तो कभी घटी
कभी दबी तो कभी उभरी
प्रयत्न किये क़ि निकल पाऊँ
इसके गहरे च्रक्रव्यूह से
पर कभी बन्धनों में बांधा
तो कभी मुक्त हुआ
कभी पलके बिछायी
कभी दामन भिगोया
कभी हँसा तो कभी रोया
डूबा रहा अनगिनित सहारों में
फिर भी न ख़त्म हुई
य़े भटकन, य़े बेचैनी, य़े घुटन
कस्तूरी सी लुभाती रही
भगाती रही, अपने इर्द गिर्द
सभी साया बनी तो कबी
खो गयी तपती धूप में
क्या है, कैसे है, क्यों है
मेरी भटकन
एक अंतहीन यात्रा
ऐसे में कविता कैसे हो..
तुम अक्सर मुझसे य़े कहती हो
कभी शब्दों से, कभी वाणी से
कभी पलकों से, कभी नयनों से,
क्या हुआ तुम्हे है आजकल
जो कविता-मोह ही छोड़ दिया
तुम य़े भी तो कहती हो, क्या हुआ
तुम्हारी कोमल भावनायों को
क्यों ह्रदय पाषाण-सा हो गया
क्यों होता उसमे कुछ स्पंदन नहीं?
क्या दिखावा था वो कवि-ह्रदय
जिससे था मैंने प्यार किया?
क्या मुद्दे कम है लिखने को
या न लिखने की ठानी है ?
तो सुनो प्रिय, मैं आज तुम्हें बतलाता हूँ
न लिखने का कारण समझाता हूँ
न मैं बदला हूँ , न बदली है भावनाएं
बदला है तो बस य़े ज़ालिम ज़माना
जहाँ हर कस्बें हर सूबे, हर शहर में
कूड़े-करकट के ढेर हों
जहाँ जगह जगह इंसानी मूत्र के दुर्गन्ध हों
जहाँ कुतों और सुअरों का राज हों
जहाँ भूख से व्याकुल जानवर हों
जहाँ जानवरों से बदतर इंसान हों
जहाँ करोड़ों लोगों की आंखे सूनी हों
जहाँ हर शहर मिट्टी घट्टे में लिपटा हों
जहाँ पाप पुण्य की मर्यादें मिट जाए
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
जहाँ खाद्य पदार्थों में मिलावट हों
जहाँ प्राण-रक्षक दवाइयां भी नकली हों
जहाँ बेईमानी घूस-खोरी का आलम हों
जहाँ फर्जी डिग्रियां और मार्क्स शीट्स बिकती हों
जहाँ बैगों में लड़कियों के कटे अंग मिलते हों
जहाँ वहशीपन का उन्मांद हों
जहाँ लूट-खसोट और अंतहीन लालच हों
जहाँ जनता पर गरीबी-भुखमरी का शाप हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
जहाँ द्रौपदी के वस्त्र ले लम्बे टी वी सिरिअल्स हों
जहाँ चैनलों पर विज्ञापनों का जाल हों
जहाँ लाइव शोज्स में नग्नता फैशन हों
जहाँ महिलाये घरो को तोडती हों,
जहाँ मर्यादाएं पाँव तले रोंद्ती हों
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
जहाँ हर महिला बलात्कार के साये में जीती हों
जहाँ बच्चो से मादक पदार्थ वितरित करवाते हों
जहाँ सुरक्षा कर्मी ही जनता को नोचते हों
जहाँ धर्म-राजनीति-शिक्षा-चिकित्सा सब व्यापार हों
जहाँ धर्म गुरुयों पर भी संगीन अपराध हों
जहाँ कानून भी बस एक खिलवाड़ हों
जहाँ जिन्दगी के दोहरी मापदंड हों
जहाँ जीना भी एक दिखावा हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
जहाँ नेताओ पर गंभीर चार्ज हो
जहाँ सांसद जूते-चप्पलो से बात करे
जहाँ बात बात पे वाक-आउट हो
जहाँ अपराध ही समाचार बने
जहाँ हवा-पानी भी प्रदूषित हो
जहाँ धरती में कीट नाशक उर्वरक हो
जहाँ कन्या भूर्ण हत्या भी पाप न हो
जहाँ हिंसा और आगजनी का संगम हो
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
जहाँ मीडिया पूँजी-पतियों की कटपुतली हों
जहाँ भाई-भतीजावाद और बेईमान नेता हों
जहाँ मानव-मूल्यों का सम्पूर्ण हनन हों
जहाँ बेफजूल का शोर शराबा ही तहज़ीब हों
जहाँ दिखावा ही परम मन्त्र हों
जहाँ कत्लो-उपरांत भी कोई कातिल सिद्ध न हों
ऐसे में कविता कैसे हो, ऐसे में कविता कैसे हो
प्रिय-
वह काव्यमयी ज़माना लद गया
जब काव्य, काव्य होता था
जब उसमे छंदों और मात्रायों के सीमायें थी
उन सीमायों को न जानते हुए भी
कबीर और रहीम के दोहे, स्वयं
उनमे मोतियों स्वरूप पिरोये हुए होते थे
प्रिय-
उस समय हवाएं स्वच्छ थी,
पक्षी भी गाया करते थे
लोग साफ दिल और सीधे थे
टीवी और मनोरंजन की दुनिया से
कवि मन दूषित न था
तभी तो कालिदास कुमार संभव
और शकुंतला जैसी सर्जना कर पाया
प्रिय-
वक़्त तब भी अच्छा था, जब
दिनकर, प्रसाद, निराला, बच्चन
काव्य जगत पर छाये थे
उनकी काव्यात्मक रचनायों को सुनने
श्रोता -गन दूर दूर से आते थे
प्रिय-
जिसे तुम कविता समझती हो
वह कविता नहीं, शब्द जाल है
वह गाई नहीं जाती, सुनाई नहीं जाती
यह छपती कम, छपाई ज्यादा जाती है
यह सुर-हीन, संगीत-विहीन, जनता की
कविता कभी बनी नहीं, इसमें वेदना है
सम्वेदनाये है, दर्द है, एहसास है
पर इसके मूल में प्राण-मिठास नहीं
अब तुम्ही कहो ऐ प्राणप्रिये
ऐसे में कविता कैसे हो,
ऐसे में कविता कैसे हो
क्यों मैंने..?
मैं राजघाट से गाँधी नहीं,
उसकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी की मैंने ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है कई विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है
क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
भारतीय मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी
मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब हूँ उन करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो, क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया है,
जिनके लिए लिए मैंने अपना
पूरा जीवन जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन समझने की कोशिश तो करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे दर्शन में ही
छिपा है भारत की समस्याओ का हल
यहाँ सत्यागढ़ के ढकोसले मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने
मेरी समाधी कोई पर्यटन स्थल नहीं
यहाँ आकर फूल मत अर्पण करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........
तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब तो मेरी तस्वीर भारतीय मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने की गलती की
कब तक..?
कब तक हम विदेशो में छुपे
आतंकवादियो पर दोष मड़ेगे
कब तक हम इन हमलो में
छिपी अपनी कायरता से मुहँ मोड़ेगे
कब तक हम
इंटेलिजेंस फैलुर का राग अलापेगे
कब तक हम राजनेतिक दलों पर
दोषारोपण करेगे
कभी तो भीतर झांक के देखो,
कभी तो ज़िम्मेदारी मान के देखो
कभी तो कुत्सित राजनीति से
बाहर निकल कर देखो
क्यों सोचते हो की डोसिएर
भेज देने मात्र से पाकिस्तान
आतंकी सोंप देगा, और
अपनी ज़ग हँसी कराएगा
क्यों सोचते हो की कोई और
देश तुम्हारी लड़ाई में साथ देगा
क्या तुमने कभी किसी और की
लड़ाई में हाथ बटाया है?
कुछ चीज़े कभी मांग कर
नहीं मिलती, उन्हें पाने के लिए
संघर्ष करना पड़ता है,
अपनी अस्मिता-रक्षा के लिए लड़ाई
अहिंसा से ज्यादा अच्छी है.
विदेशी जमीन पर बेटे आतंकी
तुम्हारी पहुँच से बाहर है
पर जो आतंक फेलाते है
वो तो तुम्हारे अपने ही लोग है
अपने ही देश में है,
क्यों नहीं उनसे निपटते पहले.
जिस सरकार को देशद्रोही को
फाँसी देने के लिए जलाद न मिले
जिस सरकार को देशद्रोहियों और
आतंकियों को बचाने के लिए
करोड़े रुपये खर्च करने पड़े,
और जो सरकार जनता को छोड़ दे मरने को
ऐसे सरकार का बदल जाना ही बेहतर है,
बदल जाना ही बेहतर है
नोट का टुकड़ा
नोट का टुकड़ा क्या बना,
पूरे विश्व को, सारे मानव मूल्यों को
अपने चंगुल में जकड गया
सब सुख चैन छीन लिया और
सुख चैन से भी खुद जुड़ गया
नोट के इस टुकड़े ने
ऐसा बांधा हर मानुस को
भावनाए भी तुलने लगी
स्वम इसके तराजू में
इन्सान कोरे होने लगे
इसके मोह जाल में
नोट का यह टुकड़ा
कारण है बहुत समस्याओ का
और निवारण भी है बहुत उलझनों का
पर इस घमंडी ने कभी मुहँ नहीं
देखा कहीं किसी कूड़ेदान का
बस एक जेब से निकल दूसरी में जाता है
पलक झपकते ही ओझिल हो जाता है
नोट का यह टुकड़ा
नचाता है सबको अपने इर्द गिर्द
हँसाता है कभी, तो कभी रुलाता है
और कभी हँसता है हम पर,
हमारी विवशता पर, हमारी मूर्खता पर
कभी सांत्वना देता है अपनी गर्मी से
कभी आँखों से नींद चुरा लेता है
कभी खुली आँखों को सपने दिखा देता है
तो कभी ज्यादा पाने की चाह में
हवालात के भी दर्शन करवा देता है
नोट का यह एक टुकड़ा
यह न कभी किसी का था, न होगा
इसकी फितरत में ही बेवफाई है
विनोद पासी 'हंसकमल'
Attache (चीन)
पूर्व एशिया प्रभाग,
कमरा नं 255 ए,
साउथ ब्लॉक, नई दिल्ली
फ़ोन-011-23014900
ईमेल-vinodpassy@gmail.com
Very interesting poems Passy Sahab. You remind me of Sahir Ludhianvi. Best wishes for more lively poetry from you and with warm regards
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