अजामिल की कलाकृति
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नेताओं का खेल (दोहे)
नेता-अपराधी करें, नन्दनवन की सैर।
सांप-नेवले का मिटा, जनम-जनम का बैर।।
फ़सल जाति की बो गये, अपने नेता-लोग।
काटे से बढ़ती गयी, है ऐसा संयोग।।
सत्ता की ख़ातिर गया, मतभेदों को भूल।
कल तक जो प्रतिकूल था, आज हुआ अनुकूल।।
जनहित वार्तालाप है, नेताओं का खेल।
लेकिन क्या निकला कभी, बालू से भी तेल।।
नेता बेहतर जानता, कहां करे क्या बात!
अपना हित कैसे करे, देकर सबको मात।।
हमको तो मालूम था, क्या है बन्दरबांट।
किन्तु सुलझवाते रहे, हम नेता से गांठ।।
नेता करता रोड शो, जनता चलती साथ।
नेता पाता थैलियाँ, जनता मलती हाथ।।
नेताओं की बात पर, रहा नहीं विश्वास।
गर्जन करते मेघ से, ज्यों न बूँद की आस।।
जनता का सब धन गया, स्विस बैंक के पास।
लोग लगाये हैं अभी, नेताओं से आस।।
नेता का साहित्य पर, है अतिशय उपकार।
कभी हास्य-बौछार है, कभी व्यंग्य की मार।।
नेता पनपे इस तरह, हुई कोढ़ में खाज।।
बीमारी बढ़ती गयी, ज्यों-ज्यों हुआ इलाज।।
भारत को फिर चाहिए, गांधी और सुभाष।
ताकि लोग फिर कर सकें, नेता पर विश्वास।।
पांच कुण्डलियाँ
(एक)
कविता करना कब कठिन, किन्तु कठिन कवि-कर्म।कविता क्रन्दन क्रौंच का, करुणा कवि का धर्म।।
करुणा कवि का धर्म, भावना यदि कल्याणी।
हर संचारी भाव, प्राप्त कर लेता वाणी।।
सुष्ठु छन्द हैं कूल, नवों रस-प्लावित सरिता।
लहर-लहर श्रृंगार, नीति, दर्शन है कविता।।
(दो)
कविता के प्याऊ लगे, प्यासे पहुंचे पास।काव्य-सरसता के बिना, रही अनबुझी प्यास।।
रही अनबुझी प्यास, मंच पर बैठे जोकर।
पुलकित मंचाध्यक्ष, देख कवयित्री सुन्दर।।
छाये हो जब मेघ, नहीं दिखता है सविता।
हास्य-लास्य के मध्य, खो़ गयी हिन्दी कविता।।
(तीन)
कविता के इस दौर में, छन्द हुआ मतिमन्द।पड़े हुए हैं पार्श्व में, सुष्ठु सामयिक छन्द।।
सुष्ठु सामयिक छन्द, हुए कविता से बाहर।
कविता है वह आज, चढ़े जो नहीं ज़ुबां पर।।
धीरे-धीरे सूख, गयी गीतों की सरिता।
लय-यति-गति, सब त्याग, हो गयी कैसी कविता?
(चार)
मानवता को बेचकर, मनुज बना धनवान।क्रय करना अब चाहता, प्रेम और सम्मान।।
प्रेम और सम्मान, नहीं विपणन की चीज़ें।
बुद्धिमानजन किन्तु, नहीं दौलत पर रीझें।।
धन-दौलत का स्थान, प्रेम के नीचे रहता।
संचित करिए प्रेम, कि हो पोषित मानवता।।
(पांच)
सदियों से रचता रहा, मानव निज इतिहास।पर मानवता का अभी, हुआ नहीं विन्यास।।
हुआ नहीं विन्यास, स्वार्थ से मानव हारा।
तृष्णाओं की भेंट, चढ़ा जाता बेचारा।।
मानव यदि संपृक्त, न होगा सन्मतियों से।
मानवता अभिशप्त, रहेगी ज्यों सदियों से ।।
राजेंद्र वर्मा
- जन्म-मार्च 1955
- प्रकाशन- गीत, ग़ज़ल, दोहा, हाइकु, लघुकथा, व्यंग्य व निबंध विधाओं में एक दर्ज़न पुस्तकें प्रकाशित। महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित।
- पुरस्कार/सम्मान-उ.प्र.हिंदी संस्थान के व्यंग्य एवं निबंध नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
- मूल्यांकन-लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार की साहित्यिक साधना पर एम्.फिल. संपन्न।
- कई शोधग्रंथों में संदर्भित। कुछ लघुकथाओं और गजलों का पंजाबी में अनुवाद।
- संपर्क-3/29 विकास नगर, लखनऊ- 226 022
- मो. 80096 60096
- blog-rajendravermalucknow.blogspot.in
- ईमेल- rajendrapverma@gmail.com
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