कमला कृति

सोमवार, 15 जून 2015

कल्पना रामानी की पांच ग़ज़लें


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


(एक) 


फूलों से खुशबू लेकर खिलने का वादा।
खुद से कर लो जीवन भर हँसने का वादा।

बन आँसू बोझिल हों पलकें अगर तुम्हारी
बुझे पलों से करो पुलक बनने का वादा।

करना होगा अगम जलधि की जलधारा से
मझधारा में कभी नहीं फँसने का वादा।

चलते-चलते पाँव फिसलने लगते हों यदि
करो उस जगह कभी न पग धरने का वादा।

आँख दिखाती जीवन-पथ की चट्टानों को
चूर-चूर कर हो आगे बढ़ने का वादा।

टूटे यह अनुबंध तुम्हारा कभी न खुद से
वादों पर हो सदा अडिग चलने का वादा।

फिर-फिर मिलता नहीं “कल्पना” मानव-जीवन
मन से हो इंसान बने रहने का वादा।



(दो) 


जिसके कर कमलों से यह घर, स्वर्ग सा बना।
उस माँ की हम, निस दिन मन से, करें वंदना।

जिसके दम से, हैं जीवन में, सदा उजाले,
उसके जीवन, में उजास की, रहे कामना।

जिसने ममता, के आगे निज, किया निछावर,
उस ममत्व को, करें नमन, रख शुद्ध भावना।

आजीवन जो, रही दायिनी, संतति के हित,
उसके हित के, लिए करे संतान प्रार्थना।

धूप वरण कर, जिसने हमको सदा छाँव दी,
हम उपाय वे करें न माँ को, छुए वेदना।

सारे संचित पुण्य सौंपती, जो संतति को,
फर्ज़ यही, संतान उसे सौंपे न यातना।

जिस देवी ने संस्कारों से सींचा हमको,
उसके चूमें कदम, सफल तभी साध्य-साधना।

शीश झुकाते सुर त्रिलोक के जिसके द्वारे,
वंचित हो उस मातृ-प्रेम से कोई द्वार ना।

जिसने पाया मूर्त मातृ-सुख इस जीवन में,
भव में वो इंसान सुखी है सदा ‘कल्पना’



(तीन) 


मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।

जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।

तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।

चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।

भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।

सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।

घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में खुदा!
व्योम में उड़ता तराना चाहिए।

थम न जाए अब कलम यह ‘कल्पना’
गीत गज़लों का खज़ाना चाहिए।



(चार)


छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।

माँ तो होती है सभी की, जो जगत के जीव हैं,
मातृ सुख किसको मिलेगा, ये मगर लिखता नसीब।

कर दे राजा को भिखारी और राजा रंक को,
अर्श से भी फर्श पर, लाकर बिठा देता नसीब।

बिन बहाए स्वेद पा लेता है कोई चंद्रमा,
तो कभी मेहनत को भी होता नहीं दाना नसीब।

दोष हो जाते बरी, निर्दोष बन जाते सज़ा,
छटपटाते मीन बन, जिनका हुआ काला नसीब।

दीप जल सबके लिए, पाता है केवल कालिमा,
पर जलाते जो उसे, पाते उजालों का नसीब।

‘कल्पना’ फिर द्वेष कैसा, दूसरों के भाग्य से,
क्यों न शुभ कर्मों से लिक्खें, हम स्वयं अपना नसीब।



(पांच) 


गर्भ में ही काटकर, अपनी सुता की नाल माँ!
दुग्ध-भीगा शुभ्र आँचल, मत करो यूँ लाल माँ!

तुम दया, ममता की देवी, तुम दुआ संतान की,
जन्म दो जननी! न बनना, ढोंगियों की ढाल माँ!

मैं तो हूँ बुलबुल तुम्हारे, प्रेम के ही बाग की,
चाहती हूँ एक छोटी सी सुरक्षित डाल माँ!

पुत्र की चाहत में तुम अपमान निज करती हो क्यों?
धारिणी, जागो! समझ लो भेड़ियों की चाल माँ!

सिर उठाएँ जो असुर, उनको सिखाना वो सबक,
भूल जाएँ कंस कातिल, आसुरी सुर ताल माँ!

तुम सबल हो, आज यह साबित करो नव-शक्ति बन,
कर न पाएँ कापुरुष, ज्यों मेरा बाँका बाल माँ!

ठान लेना जीतनी है, जंग ये हर हाल में,            
खंग बनकर काट देना, हार का हर जाल माँ!

तान चलना माथ, नन्हाँ हाथ मेरा थामकर,
दर्प से दमका करे ज्यों, भारती का भाल माँ!

‘कल्पना’ अंजाम सोचो, बेटियाँ होंगी न जब,
रूप कितना सृष्टि का, हो जाएगा विकराल माँ!



कल्पना रामानी 



  • जन्म तिथि-6 जून 1951 (उज्जैन-मध्य प्रदेश) 
  • शिक्षा-हाईस्कूल तक 
  • रुचि- गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि।  
  • वर्तमान में वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की सह संपादक। 
  • प्रकाशित कृतियाँ-नवगीत संग्रह-‘हौसलों के पंख’ 
  • निवास-मुंबई महाराष्ट्र  
  • ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

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