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चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
कमरों वाला मकान
इस मकान के
कमरों में
बिखरा अस्तित्व
घर नही कहूँगी
घर में कोई
अपना होता है
मगर मकान में
सिर्फ कमरे होते हैं
और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट -टूट कर
बिखरता वजूद
कभी किसी
कमरे की
शोभा बनती
दिखावटी मुस्कान
यूँ एक कमरा
जिंदा लाश का था
तो किसी कमरे में
बिस्तर बन जाती
और मन पर
पड़ी सिलवटें
गहरा जाती
यूँ एक कमरा
सिसकती सिलवटों का था
किसी कमरे में
ममता का
सागर लहराता
मगर दामन में
सिर्फ बिखराव आता
यूँ एक कमरा
आँचल में सिसकते
दूध का था
किसी कमरे में
आकांक्षाओं , उम्मीदों
आशाओं की
बलि चढ़ता वजूद
यूँ एक कमरा
फ़र्ज़ की कब्रगाह का था
कभी रोटियों में ढलता
कभी बर्तनों में मंजता
कभी कपड़ों में सिमटता
तो कभी झाड़ू में बिखरता
कभी नेह के दिखावटी
मेह में भीगता
कभी अपशब्दों की
मार सहता
हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो सिर्फ कमरों में ही सिमटा करते हैं.
वहाँ दहशत के आसमानों में..
अपने समय की विडंबनाओं को लिखते हुए
कवि खुद से हुआ निर्वासित
आखिर कैसे करे व्यक्त
दिल दहलाते खौफनाक मंजरों को
बच्चों की चीखों को
अबलाओं की करुण पुकारों को
अधजली लाशों की शिनाख्त करते
बच्चों बड़ों के दहशतजर्द
पीले पड़े पत्तों से चेहरों को
रक्तपात और तबाही की दस्तानों को
किस शब्दकोष से ढूँढे
शब्दों की शहतीरों को
जो कर दे व्यक्त
अपने समय की नोक पर रखी
मानसिकता को
एक भयावह समय में जीते
खुद से ही डरते मानव के भयों को
आखिर कैसे किया जा सकता है व्यक्त
जहाँ सत्ता और शासन का बोलबाला हो
मानवता और इंसानियत से
न कोई सरोकार हो
मानवता और इंसानियत के
जिस्मों को तार तार कर
स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा रही हों
वहाँ खोज और खनन को
न बचते हथियार हैं
फिर कैसे संभव है
कर दे कोई व्यक्त अपने समय को
मुल्ला की बांग सा आह्वान है
जलती चिताओं से उठाते
जो मांस का टुकड़ा
गिद्धों के छद्मवेश में
करते व्यापार हों
कहो उनके लिए कैसे संभव है
हाथ में माला पकड़ राम राम जपना
स्वार्थ की वेदी पर
मचा हर ओर हाहाकार है
बच्चों का बचपन से विस्थापन
बड़ों का शहर नगर देश से विस्थापन
बुजुर्गों का हर शोर की आहट से विस्थापन
मगर फिर भी चल रहा है समय
फिर भी चल रहा है संसार
फिर भी चल रही है धड़कन
जाने बिना ये सत्य
वो जो ज़िंदा दिखती इमारतें हैं
वहां शमशानी ख़ामोशी हुंकार भरा करती है
मरघट के प्रेतों का वास हुआ हो जहाँ
सुकूँ ,अपनेपन , प्यार मोहब्बत की
जड़ों में नफरत के मट्ठे ठूंस दिए गए हो जहाँ
कहो कैसे व्यक्त कर सकता है
कोई कवि अपने समय की वीभत्सता को महज शब्दों के मकड़जाल में
कैसे संभव है मासूमों के दिल पर पड़ी
दहशत की छाप को अक्षरक्षः लिखना
जाने कल उसमे क्या तब्दीली ले आये
काली छाया से वो मुक्त हो भी न पाये
जाने किसका जन्म हो जाए
एक और आतंक के पर्याय का
या दफ़न हो जाए एक पूरी सभ्यता डर के वजूद में
फिर कैसे संभव है
कवि कर सके व्यक्त
अपने समय के चीरहरण को
जहाँ निर्वसना धरा व्याकुल है
रक्त की कीच में सनी उसकी देह है
ओह ! मत माँगो कवि से प्रमाण
मत करो कवि का आह्वान
नहीं नहीं नहीं
नहीं कर सकता वो शिनाख्त
वक्त की जुम्बिश पर
थरथरायी आहों की
जहाँ स्त्रियों की अस्मत महज खिलवाड़ बन रह गयी हो
नहीं मिला सकता निगाह खुद से भी
फिर भला कैसे कर सकता है
व्यक्त अपने समय की कलुषता को
खिलखिलाती किलकारियों का स्वप्न
धराशायी हुआ हो जहाँ
सिर्फ मौत का तांडव
अबलाओं बच्चों का रुदन
छलनी हृदय और शमशानी खामोशी
अट्टहास करती हो जहाँ
वहां कैसे संभव है
व्यक्त कर सके कवि
अपने समय को कलम की नोक पर
रुक जाती है कवि की कलम
समय की नोक पर
जहाँ रक्त की नदियाँ
तोड़कर सारे बाँध बहा ले जा रही हैं
एक पूरी सभ्यता को
जहाँ नही दिख रहा मार्ग
सिर्फ क्षत विक्षत लाशों के अम्बार से पटी
सड़कों के कराहने का स्वर भी
डूब चुका है स्वार्थपरता की दुन्दुभियों में
स्त्री पुरुष बाल बच्चे बुजुर्ग
नहीं होती गिनती जिनकी इंसान होने में
मवेशियों से दड़बों में कैद हों जैसे
वहाँ कैसे संभव है
बन्दूक की नोक पर संवेदना का जन्म
जहाँ सिर्फ लोहा ही लोहा पिघले सीसे सा सीने में दफ़न हो
फिर बोको हरम हो , ईराक हो , फिलिस्तीन , गाज़ा या नाइजीरिया
दहशत के आसमानों में सुराख नहीं हुआ करते
फिर कैसे संभव है
व्यक्त कर सके कवि अपने समय को अक्षरक्षः
वीभत्स सत्यों को
उजागर करने का हुनर
अभी सीख नहीं पायी है कवि की कलम
आखिर कैसे
इंसानियत के लहू में डूबकर कलम
लिखे दहशतगर्दी की काली दास्ताँ
एक ऐसे समय में जीते तुम
नहीं हो सकते मनचाहे मुखरित .... ओ कवि !!!
और 12 घंटे के बाद
12 घंटे का युद्धविराम
और 12 घंटे के बाद
एक बार फिर
मौत अपने तमाम हथियारों के साथ
तांडव करती खौफ़ का साम्राज्य स्थापित करती
ज़िन्दगी पर अट्टहास करती मिलेगी
ज़िन्दगी से हाथ मिलाती मिलेगी
जहाँ ज़िन्दगी खुद के होने पर शर्मसार होगी
और मौत एक अटल सत्य बन
फिर से लील लेगी एक सभ्यता ……जाने अमानुषों से परहेज क्यों है मौत को ?
काश 12 घंटे की ज़िन्दगी में जी पाते एक तमाम उम्र
जाने कितनी बार तलाक लिया
जाने कितनी बार तलाक लिया
और फिर
जाने कितनी बार समझौते की बैसाखी पकड़ी
अपने अहम को खाद पानी न देकर
बस निर्झर नीर सी बही
युद्ध के सिपाही सी
मुस्तैद हो बस
खुद से ही एक युद्ध करती रही
ये जानते हुए
हारे हुए युद्ध की धराशायी योद्धा है वो
आखिर किसलिए ?
किसलिए हर बार
हर दांव को
आखिरी दांव कह खुद को ठगती रही
कौन जानना चाहता है
किसे फुर्सत है
बस एक बंधी बंधाई दिनचर्या
और बिस्तर एक नित्यकर्म की सलीब
इससे इतर कौन करे आकलन ?
आखिर क्या अलग करती हो तुम
वो भी तो जाने
कितनी परेशानियों से लड़ता झगड़ता है
आखिर किसलिए
कभी सोचना इस पर भी
वो भी तो एक सपना संजोता है
अपने सुखमय घर का
आखिर किसलिए
सबके लिए
फिर एकतरफा युद्ध क्यों ?
क्या वो किसी योद्धा से कम होता है
जो सारी गोलियां दाग दी जाती हैं उसके सीने में
आम ज़िन्दगी का आम आदमी तो कभी
जान ही नहीं पाता
रोटी पानी की चिंता से इतर भी होती है कोई ज़िन्दगी
जैसे तुम एक दिन में लेती हो ३६ बार तलाक
और डाल देती हो सारे हथियार समर्पण के
सिर्फ परिवार के लिए
तो बताओ भला
दोनों में से कौन है जो
ज़िंदगी की जदोजहद से हो परे
मन के तलाक रेत के महल से जाने कब धराशायी हो जाते हैं
जब भी दोनों अपने अहम के कोटरों से बाहर निकलते हैं
आम आदमी हैं , आम ज़िन्दगी है , आम ही रिश्तों की धनक है
यहाँ टूटता कुछ नहीं है ज़िन्दगी के टूटने तक
बस बाहरी आवरण कुछ पलों को
ढांप लेते हैं हकीकतों के लिबास
तलाक लेने की परम्परा नहीं होती अपने यहाँ
ये तो वक्ती फितूर कहो या उबलता लावा या निकलती भड़ास
तारी कर देती है मदिरा का नशा
दिल दिमाग और आँखों से बहते अश्कों पर
वरना
न तुम न वो कभी छाँट पाओगे एक - दूजे में से खुद को
अहसासों के चश्मों में बहुत पानी बचा होता है
फिर चाहे कितना ही सूरज का ताप बढ़ता रहे
शुष्क करने की कूवत उसमे भी कहाँ होती है रिसते नेह के पानी को
इक अरसे बाद
बिना पटकथा के संवाद कर गया कोई
दिल धड़कन रूह तक उत्तर गया कोई
अब धमकती है मिटटी मेरे आँगन की
जब से नज़रों से जिरह कर गया कोई
मैं ही लक्ष्य
मैं ही अर्जुन
कहो
कौन किस पर निशाना साधे अब ?
उल्लास के पंखों पर सवार हुआ करती थी
वो जो चिडिया मेरे आँगन में उतरा करती थी
इस दिल की राज़दार हुआ करती थी
नरगिसी अंदाज़ में जब आवाज़ दिया करती थी
मुझसे मैं खो गयी
क्या से क्या हो गयी
ज़िंदा थी जो कल तलक
आज जाने कहाँ खो गयी
दर्द जब भी पास आया
दिल ने इक गीत गाया
नैनो ने अश्रु जब भी ढलकाया
रात ने इक जश्न मनाया
जाने कहाँ खो गयी इक दुनिया
अब खुद को ढूँढ रही हूँ मैं
न शब्द बचे न अर्थ
वाक्यों में खो गयी हूँ मैं
चुप्पी का कैनवस जब गहराता है
अक्स अपना ही कोई उभर आता है
खुद के पहलू से जब भी दूर जा बैठे
कोई मुझे ही मुझसे मिला जाता है
बूँद बूँद रिसती ज़िन्दगी
फिर किस पर करूँ गुमान
बस इंसाँ में इंसानियत बाकी रहे
लम्हा एक ही काफ़ी है जीने के लिए
कोशिशों के पुल तुम चढते रहो
बचने की तजवीजें मैं करती रहूँ
इसी बेख्याली में गुजरती रहेगी ज़िन्दगी
जाने कौन से कैल ,चीड, देवदार हैं
चीरे जाती हूँ मगर कटते ही नहीं
मौन के सुलगते अस्थिपंजरों के
अवशेष तक अब मिलते ही नहीं
जरूरी नहीं
धधकते लावे ही कारण बनें
शून्य से नीचे जाते
तापमाप पर भी
पड जाते हैं फ़फ़ोले .........
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