कमला कृति

सोमवार, 18 अगस्त 2014

आशुतोष द्विवेदी की रचनाएँ


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

तुमसे मिलन की आस तो है..



बहुत गहरे में कहीं तुमसे मिलन की आस तो है |
अधर गर्वीले नकारें लाख फिर भी प्यास तो है ||

शून्यता तो है कहीं जो बिन तुम्हारे भर न पाती,
इक चुभन भी है कि जो पीछे पड़ी दिन-रात मेरे |
दो नयन जादू भरे इस भाँति भीतर बस गए हैं,
भूल पाना अब जिन्हें, बस की नहीं है बात मेरे |
सौ बहाने मैं बना लूँ, झूम लूँ या गुनगुना लूँ ;
चित्त को अपनी अधूरी नियति का आभास तो है |

भूल जाऊँ किस तरह बेबाक होठों की शरारत ?
सेब जैसे रंग वाले गाल कैसे भूल जाऊँ ?
तारकों की पंक्तियों को मात करती मुस्कुराहट,
और चंदा को लजाता भाल कैसे भूल जाऊँ ?
आवरण मैं लाख डालूँ, स्वयं को खुद से छिपा लूँ;
पर जहां 'मैं' तक नहीं वह भी तुम्हारा वास तो है |

महकता आँचल कि जिसमें खिल उठे थे स्वप्न मेरे,
बिखरती अलकें कि जिनमें खो गयी मेरी जवानी |
थिरकते सब अंग, पुलकित रोम, गदरायी उमर वो;
बहकती जिनमें दिवानी हो गयी मेरी जवानी |
यम-नियम के ढोंग सारे, हर जतन के बाद हारे;
और मेरी इस पराजय का तुम्हें अहसास तो है |

देह की मधु-गंध नंदन को अकिंचन सिद्ध करती,
स्नेह-भीना स्पर्श मेरे प्राण में पीयूष भरता |
वत्सला चितवन सिखाती अप्सराओं को समर्पण,
और आलिंगन तुम्हारा मृत्यु का उपहास करता |
वे मधुर सुधियाँ बुलातीं, विरह की दूरी घटातीं;
गहनतम अँधियार में यह झलकता विश्वास तो है |
                                                                       


प्रश्न



आज फिर कुछ तप्त-लोहित प्रश्न मेरे सामने हैं
और ये अंगार मुझको कर-तलों में थामने हैं

प्रश्न - मैं क्यों जी रहा हूँ ?                           क्या बचाना चाहता हूँ?
रक्त सा क्या पी रहा हूँ?                             क्या मिटाना चाहता हूँ ?
ज़िन्दगी सन्यास जैसी;                               क्या  छिपाना चाहता हूँ ?
कल्पना मधुमास जैसी ?                             क्या  दिखाना चाहता हूँ?
संस्कृति के गीत गाता;                               पल रहा प्रतिशोध कैसा?
कंठ में गाँठें लगाता ?                               एक सतत विरोध कैसा?
काइयाँपन खून में है?                                बेहया मुस्कान मुख पर !
सभ्यता पतलून में है ?                              शराफत की शान मुख पर !
फोन पर रिश्ते निभाता;                              क्रांति के उपदेश घर पर;  
प्यार पर कविता सुनाता ?                            और दफ़्तर - सिर्फ "यस सर" ?
भीड़ का हो चुका जीवन;                              नौकरी क्यों कर रहा हूँ ?
भीड़ से भयभीत है मन ?                            रोज़ घुट-घुट मर रहा हूँ ?
कुछ नहीं अपनी खबर है;                             मोह है परिवार से भी;
खो न जाँऊ, मगर, डर है ?                           ऊबता इस भार से भी?
भटकता भ्रम के धुएं में?                             मुक्ति की दरकार भी है;
या कि मेंढक सा कुएं में?                            बन्धनों से प्यार भी है ?
कवच में खुद को लपेटे?                             वृद्ध संयम जूझता, फिर उलझता
किसी कछुए सा समेटे ?                             है जटिलता में,
                                                                संशयों के सूत्र सारे पकड़ रखे
                                                                काम ने हैं..........
                                                                आज फिर……...
                                                                             


 हाँ! मैं जीवित हूँ


बालकनी पर शाम उतरती है तो मैं फिर जी उठता हूँ |
शाम पांच चालीस होते ही ऑफिस के उस मुर्दा घर से,
बीस-इकीस लाशों को लेकर,
एम्बुलेंस के जैसी छोटी बस (जिसको 'चार्टर्ड' कहते हैं)
आ जाती है छः चालीस तक,
और छोड़ जाती है सब लाशों को अपने-अपने घर तक |
घर, जिनमे 'घर' का प्रतिशत कितना है - यह मालूम नहीं है |
हाँ, दीवारें हैं, छत है और छोटी बालकनी भी |

मरे हुए इन लोगों में ही एक लाश मेरी भी है जो,
लिफ्ट पकड़कर चढ़ जाती है सबसे ऊपर की मंजिल पर |
चारदिवारी घिरी हुई है, छत भी है और बालकनी भी |
'घर' का प्रतिशत कितना है? शायद कुछ भी तो नहीं; और क्या?
दिन भर के उन कसे हुए कपड़ों के बंधन ढीले करके,
बालकनी पर आ जाता हूँ;
और बुझी आँखों से देखा करता हूँ ढलते सूरज को |

सिन्दूरी वह शाम अचानक जादू जैसे कर देती है;
भीतर बिखरे अंधियारे पर एक उजाला छा जाता है;
जाते-जाते सूरज कोई नयी प्रेरणा दे जाता है;
कुछ आशाएं भर जाता है, कुछ विश्वास बंधा जाता है;
इस उमंग में पागल होकर धड़कन थिरक-थिरक उठती है;
रोम-रोम अंतर-वीणा की झंकृति से पुलकित होता है;
और श्वास जो अब तक ठहरी थी, फिर से चलने लगती है;
कहीं दूर, गहरे भावों के स्वर गुंजित होने लगते हैं --
"हाँ! मैं जीवित हूँ, मैं मरा नहीं हूँ;  हाँ! हाँ! मैं जीवित हूँ |"


आशुतोष द्विवेदी

भारतीय राजदूतावास,
अद्दिस अबाबा,
इथियोपिया




आशुतोष द्विवेदी 


  • जन्म-तिथि : २ जून १९८२ 
  • जन्म-स्थान : कानपुर, उत्तर प्रदेश 
  • स्थानीय पता : भारतीय राजदूतावास (इंडियन एम्बेसी), अद्दिस अबाबा, इथियोपिया   
  • स्थाई पता : २/१६, कमला नगर, कानपुर, उत्तर प्रदेश 
  • शिक्षा : परास्नातक, गणित, इलाहाबाद विश्वविद्यालय  
  • व्यवसाय : भारतीय विदेश सेवा (ब), विदेश मंत्रालय, नई दिल्ली 
  • रचना-कर्म : १९९४ से काव्य-रचना - विभिन्न विधाओं में, जैसे- छंद (घनाक्षरी, सवैया, दोहा, संस्कृत-वर्णवृत्त), गीत, ग़ज़ल, मुक्तक |  कुछ मंचों पर एवं कई गोष्ठियों में काव्य-पाठ | विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में फुटकर प्रकाशन | इन्टरनेट पर kavyanchal.com आदि पर कुछ रचनाओं का संकलन | एक निजी ब्लॉगdwivediashutosh.blogspot.com पर भी कुछ रचनायें उपलब्ध |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें