प्रेम कविता
मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो
1.
दरअसल कविता शब्द दर शब्द अनुभूति का प्रवाह है
जिसे मैं कागज पर लिखता हूँ बस
कविता बनाना वैसा ही है जैसे मन को बनाना
बिना मन को तैयार किए कविता चल नहीं सकती
कलम कोरे कागज पर फिसल नहीं सकती
बेमन लिखी हुई कविता लंगड़ी –लूली अपंग हो
रचना मेरी बिना रूप रंग हो
यह तुम सह नहीं पाती हो
अर्धांगनी होने का रिश्ता निभाती हो
तुम ही तो मेरा मन बनाती हो
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।
2.
उम्र की आधी सदी के पार
लफ्जों से नहीं बल्कि इशारों में उमड़ता है प्यार
किचन के लिए मेरी पसंद - जरूरतों की फेहरिस्त बनाते हुए
मेरा सुझाव और सहयोग न पाकर
पावर के चश्मे से मुझे देखते हुए
जब तुम मुझ पर तनिक झुंझलाती हो
कागजों के छोटे टुकड़ों की छांट बीन में मुझको डूबा देख
होले से मुस्कराती हो और मेरा तनाव हल्का करने
आधा कप चाय का , मेरी टेबल पर रख जाती हो
तब तुम मेरे लिए बिना शब्दों की
गाढ़े प्यार की कविता बनाती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।
3.
दफ्तर जाते समय , जल्दी की हड़बड़ी में
मेरी कमीज की टूटी बटन टाँकने में
बेशक अब तुम्हारी अनुभवी उँगलियों को सुई न चुभती हो
लेकिन मेरे सीने को स्पर्श करती
तुम्हारी उँगलियाँ मीठा दर्द जगाती हैं
सुई तो पहले चुभ जाया करती थी
अब तो तुम्हारी उँगलियाँ ही चुभ जाती हैं
तुम बटन टाँकने में प्यार का पुराना एहसास जगाती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।
4.
उम्र के तीसरे पड़ाव पर
कदाचित शरीर में पहले जैसा कसाव न हो
बिंदास प्रेम का वह पहले वाला दिखाव न हो
फिर भी कश्मकश से दूर , चश्मेबद्दूर लगाव तो है
हमारे बीच ढीला न होने वाला
सदाबहार निभाने की प्रतिज्ञा के
आलिंगन से जकड़ा गंभीर कसाव तो है
रातों की शीतल चाँदनी ,
सुबह की सुनहली धूप
फूलों की महकती क्यारी, लान की नरम हरी भरी दूब
हमको आज भी लगती है सुहावनी – अनूप
प्रकृति से निरंतरता की अपनी आवाजाही
सभी को देती है
हमारे बीच पल रहे प्यार की गवाही
उनकी माने तो प्यार की मालिका सी
अब भी नजर आती हो ।
तभी मैं कहता हूँ, मैं कविता लिखता हूँ
तुम कविता बनाती हो।
- अवधेश सिंह
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