विनोद शाही की कलाकृति |
दर्द
गहराई से
उठती टीस का
दर्द बयान
कर नहीं सकते
लोक लाज का
उलाहना
मुझे ही डसते
जब अपनों का
बेरूखापन
रिश्तों को तार तार करते
दौलत का
अंधापन
दूरियां बड़ाते
दर्द सहकर
होकर मौन
नज़ारे देखते
क्यों कि मेरे
स्वाभिमान
इस से नहीं दबते
और तभी मेरा वजूद
उनकी नज़र में
खूब उलझते
क्यों की उम्र की
दहलीज़ पर
हम जैसों के हाल
प्रायः यह ही होते
यौवन ज्वाला
लहर अंग-अंग मे
नव यौवन की
अठखेली करती लता-सी
निज तन,निज मन भ्रमाय
खिले-खिले फूल से
वसन्त की हरियाली-सी
हर अदा मे बवार देती फैलाय
विभोर रास-रंग मे
भ्रमित चित्त- प्रणय ज्वाला की
भिन्न भिन्न उमंग से
विचरे अभिलाषित पंख फैलाय
मुखर या फिर मौन सी
आनन्द विभोर मन ही मन मे
पुलकीत हो बार-बार
कम्पित अधर मुस्कान मे
निश्चल नयन मे सपने सजाय
रूप के मोहिनी जादु से
प्रणय-गान गुंजन से
लावण्य, कोमलता से इतराय
श्रृंगार की मूक दृष्टि मे
देखे नयन सचल
अपल हो दृष्टिमे स्तब्ध सी
दिगभ्रमित आपने ही हो जाये!
छबि प्रियतम की
ह्रदय मे बाँधकर
तनकी-लता सन्देशीका सी
प्रथम प्रणय के भाव मे
कैसे सहज,लज्जित चुपचाप
विमुख अपने से
निमेषहीन नयनों से तकाय!
सर्बसुख प्रियतम मे
प्यार ही सर्वस्व प्रतीत पाय
बहका-बहका विवेक
अधीर और भी अस्थिर
कुल मान-संस्कार निष्फल,निश्प्राय
देह-मे रति झुलसे
पंकिल हो चाहे सलिल-
या लघु लगे प्यार मे
भावों की हर सीमा लाँघ जाय
सुखद या मनोहर सी
व्यर्थ अभिमान से
विचार-बुद्धी से सोच न पाय
शत बार गर्वित प्यार मे
नभ से बरसती धारा सी
धरती मे समाने को मचल जाय !
मन की भूख
कवि,तुम जो लिखते हो
सोच के सागर मे
कई-कई बार
पहले डुबकी लगाकर!
भावनाओं के मोती
या गहराई से
जलज़-सिक्त
धुली हुई मिट्टी
उठाकर या बटोरकर
रूप देते !
मासूम चुलबुला शैशव
पल्लवित किशोर अवस्था
उतेज़ित यौवन
झुरियों भरी अधेड़ उम्र
और थका-हारा वार्धक्य
हर तरह का वर्णन!
प्रेम-वियोग,सुख-दु:ख
बन्ध आँखों से
उखड्ती साँस,असहाय दर्द
लहु को करे सर्द या ज़ोशीला
दिल दहलानेवाली बात
लिखते तुम,लिख सकते
परन्तु! लिखते ही क्यों ?
मैं सोचता-भूख के कारण
रोटी,कपड़ा,मकान
यश,प्रतिष्ठा,मान-सन्मान
व्यवस्था,अव्यवस्था के दंशन
नीति-अनीति के कथन
कहे-अनकहे वचन
जो शब्द नहीं:-
सिर्फ़"भूख"के प्रतिफलन
हम सब भूखें,भूख मिटाने
कविता लिखते हैं
पर यह पेट नहीं भरता
सिर्फ भरे दिमाग और मन
एक दहकता सवाल ...
यह मेरी माँग में
सिंदूर भर के
पहनाया मंगलसूत्र
सात फेरों में बंध
कसम खाई
यह कहते हुए
कि मेरे दुःख-सुख में
जीते जी
साथ निभाओगे
कुछ बरस बाद
आज यह ज़ख्म
कर रहा सवाल
चीख़-चीख़ के
कि क्या तुम उत्तरदायी नहीं
या सिर्फ़ मैं ही ?
अकेले
प्रजनन कर पाती
वंश बेल
यह कैसे तय हो पाया
स्त्री होने के नाते
सारा कसूर मेरा
या आज तुम्हारा पुरुषत्व
अपना
दर्शा रहा है
सदियों से
चला आ रहा
नपुंसक दोगलापन
दायित्व
समाज ने फैलाई
यह सामाजिक बुराई
दहेज लेना
नारी को
अपनी संतुष्टि का
साधन समझ
बड़ते रहना
जैसे खरीद बिक्री का
हो कोई सामान
मगर आज
परिणाम प्रश्न जगाये
कन्याओं की कमी
समाज की उलझन
बड़ते अपराधीकरण
निश्चित जताती
आदिम लालसा
शारीरिक आकांक्षा
विसर्जित करता
समस्त मर्यादा
यह सामाजिकता
हमारी देन
हमने फैलाई
असमानता
आखिरकार इसका अंत
हमें ही करना
सजन कुमार मुरारका
Nutanganj
P.O.+ Dist.Bankura - 722,101
(पश्चिम बंगाल)
मोबाइल No.09434743802
ईमेल: sajanmurarka@gmail.com
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