कमला कृति

बुधवार, 15 जुलाई 2015

दो ग़ज़लें-अवनीश त्रिपाठी


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


धुंध कुहरा ओस की..


धुंध कुहरा ओस की आदत बदलनी चाहिए
धूप की चादर हवा के साथ चलनी चाहिए।

शब्द अर्थों की हुई आहट नई पहचान कर
इस हृदय में कल्पना कोरी मचलनी चाहिए।

दूब की पतली कलाई थामकर आई हवा
साँझ की मेंहदी लगाकर धूप ढलनी चाहिए।

फूल खिलते जा रहे हैं गुलमोहर के आजकल
बादलों की बूँद उन पर भी उछलनी चाहिए।

सृष्टि के उद्भास की उत्कृष्ट हो परिकल्पना 
सब घरों के दीवटों पर ज्योति जलनी चाहिए।

घोर सम्वेदन, घने संत्रास से आँखें थकीं
रात लोरी गुनगुनाए, नींद पलनी चाहिए।

नेह के अक्षत धरे हैं प्रीति के हर द्वार पर
छलछलाती लाज अधरों पर मचलनी चाहिए।



छीनकर मेरा तबस्सुम..


छीनकर मेरा तबस्सुम,मुस्कुराई आज फिर,
ज़िन्दगी से मौत की है आशनाई आज फिर।

हो गई ख़ामोश मेरे इश्क़ की दुनिया मगर,
मुस्कुराकर आग उसने क्यों लगाई आज फिर।


तिश्नगी बढ़ती गई जब ख्वाहिशों की चार सू,
अब दिलों में देखता हूँ ख़ुदनुमाई आज फिर।

ख़ुशबुओं के दर्द को पहचानता ही कौन अब,
ये हवा भी बेरुख़ी से तिलमिलाई आज फिर।

हो गईं बर्बाद फसलें,बारिशें थीं साल भर,
जून कैसा,क्या मई,कैसी जुलाई आज फिर।

इक नदी के दो किनारे हो न जाएँ हम कहीं
हाथ से छूटी हुई तेरी कलाई आज फिर।

प्यास बाक़ी है अभी तक इस पतंगे में बहुत,
महफ़िलों से जोर की आवाज़ आई आज फिर।।


अवनीश त्रिपाठी


ग्राम/पोस्ट-गरएं,भरखरे
सुलतानपुर (उ.प्र.)-227304

6 टिप्‍पणियां: