कुछ और जीना चाहता हूँ..
‘चाँद, मेरे प्यार!’ नाम से महेंद्रभटनागर के मात्र प्रेम-गीतों का एक विशिष्ट संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें संकलित 109 गीतों का चयन उनके पूर्व-प्रकाशित कविता-संग्रहों में से किया गया है। चयन स्वयं कवि ने किया है। ये प्रेम-गीत चाँद के माध्यम से व्यक्त हुए हैं। महेंद्रभटनागर जी के अन्य विषयों से सम्बद्ध और भी संचयन प्रकाशित हैं; पर मैं प्रेम-गीतों पर ही लिख पा रहा हूँ। इस लेख से हिंदी-कविता के पाठक उनकी कविता की ओर प्रेरित हुए तो मुझे प्रसन्नता होगी और मैं अपना श्रम सार्थक समझूंगा। मैं समझता हूँ कि कवि-कर्म कोई निष्काम कर्म नहीं होता। लेकिन लिखने मात्र से यश नहीं मिलता। उसके पीछे आजकल तो आलोचकों से पहले प्रकाशकों की भूमिका होती है।
मैं 1957-59 में ‘पटना विश्वविद्यालय’ में एम. ए. (हिंदी) का छात्र था, तभी महेंद्रभटनागर जी की कविताएँ पढ़ता था। तभी से नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और मुक्तिबोध आदि प्रगतिशील कविता के प्रतिनिधि माने जाते रहे हैं। प्रगतिशील कविता ही नहीं छायावादोत्तर हिंदी-कविता का इतिहास इन्हीं कवियों से बनता है। ‘चाँद, मेरे प्यार!’ के गीत रूमानी भावधारा की याद दिलाते हैं। लेकिन गीतों के इतिहास में ये उल्लेखनीय हैं। मुझे नागार्जुन की एक बात याद आती है, वह यह कि अगर कोई पाठक कुछ गुनगुनाना चाहे, तो उसे पीछे की कविताओं को ही मुड़ कर देखना होगा। इस दृष्टि से महेंद्रभटनागर जी के ये गीत ध्यान देने योग्य हैं।
पहली रचना है ‘राग-संवेदन’, जिसमें कवि एक सामान्य सत्य की तरह जीवन का यह सत्य व्यक्त करता है —
सब भूल जाते हैं
केवल / याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के !
कवि राग यानी अनुराग यानी प्रेम को याद रखने की बात कहते हैं। ‘राग’ को छंद और ध्वन्यात्मक लय से भी जोड़ा जा सकता है। राग जीवन में दुर्लभ होता है, खास कर के समकालीन जीवन में, इसीलिए तो कवि उसे याद रखने का विषय समझता है। इस कलन में अनेक ऐसे गीत हैं, जिनके आधार पर महेंद्रभटनागर जी को याद रखा जा सकता है। उनमें सफल अभिव्यक्ति है। एक गीत है ‘जिजीविषा’। कवि कहता है —
अचानक
आज जब देखा तुम्हें
कुछ और जीना चाहता हूँ!
पारस्परिक आकर्षण और प्रेम से जीने की इच्छा बढ़ती है और शायद जीने की शक्ति भी। जब आदमी अपने प्रिय पात्र को देखता है, तो जि़न्दगी के दाह के बावजूद कवि कहता है —
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
जब अकेलापन दूर हो जाता है, तो जिजीविषा मज़बूत होती है। यह एक श्रेष्ठ भावना है, जो कविता को श्रेष्ठ बनाती है।
इस संकलन की कविताएँ विविध प्रसंगों के साथ विविध प्रकार से विविध अदाओं में प्यार की भूमिका, प्यार की महत्ता, और प्यार की शक्ति महसूस कराती हैं। एक जगह कवि कहता है —
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
इसके जरिये कवि जीवन के अनेक प्रसंग कवि को याद आते हैं। प्यार की अभिव्यक्ति स्मृति के रूप में आती है। जाहिर है कि वर्तमान जीवन में प्यार का अभाव है। कवि कहता है कि प्यार की स्मृति आगे जीने का सहारा बनता है। प्यार की स्मृति में भी जीवनी शक्ति है —
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद काफ़ी है!
यह है प्यार की स्मृति की शक्ति। कवि के लिए प्यार बहुत व्यापक है। मनुष्येतर प्राणी भी प्यार का साधन है —
गौरैया हो
मेरे आँगन की
उड़ जाओगी!
यद्यपि गौरैया यहाँ रूपक है, फिर भी वह प्रेम का आलम्बन भी है। कवि को इस बात का अनुभव है कि जीवन आमतौर से दुःखद है और आदमी सुख पाने के लिए तरसता रहता है। ज़रूरी नहीं कि वह सुख भौतिक साधनों से ही मिले। वह किसी का प्यार पाने से भी मिलता है —
क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के लिए!
इस सम्पूर्ण संकलन की कविताएँ तरल और सुखद प्रेम की भावुकता से लबालब भरी हुई हैं। एक गीत है ‘रात बीती’, उसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं —
याद रह-रह आ रही है
रात बीती जा रही है!
याद आती है रात में, अँधेरे में, शायद प्रेम और स्मृति के लिए अँधेरे का एकांत अधिक उपयुक्त होता है, लेकिन रात बीतती भी है यानी प्यार की स्मृति का समय स्थायी नहीं होता। ‘रह-रह याद ’ आने में एक प्रकार की असंगति है। पाठक यह सोच सकता है कि रात बीत जाने के बाद यादों का क्या हो जाता है? इस प्रसंग में यही सोचना चाहिए कि प्रेम लपेटे अटपटे बैन हैं ये। कविता का झुकाव गुज़रे दिनों की ओर है। उपर्युक्त गीत में ही वे लिखते हैं —
झूमते हैं चित्र नयनों में कई
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुखी भी भा रही है!
यह प्रेम पात्र की विशेषता है कि उसके प्रभाव से विगत बात भी नयी लगती है और गुज़रे दिनों की बेरुखी भी भा रही है। समय की गतिशीलता पर कवि की नज़र है। प्रेम-पात्र के अभाव में ‘मुरझाया-सा जीवन-शतदल’ लगता है। इस अभिव्यक्ति से प्रेम की महत्ता प्रकट होती है।
रात प्रेम की अभिव्यक्ति का उपयुक्त समय है, इसकी परम्परा भी है। प्रेम केवल भावना नहीं है। वह भौतिक सुख का माध्यम भी है। प्रेमी को लगता है शशि दूर गगन से देख रहा है, जैसे कि रात भी एकांत नहीं रहती। प्रेम का भंडार अथाह है, अक्षय है। रात बीत जाती है, लेकिन प्रेम-वार्ता ख़त्म नहीं होती। इसके बावज़ूद कवि कहता है —
सारे नभ में बिखरी पड़ती है मुसकान
पर कितना लाचार अधूरा है अरमान!
प्रेम की मुसकान का सारे नभ में बिखरा होना — तारों के प्रसंग में अच्छी अभिव्यक्ति है, रोचक कल्पना है। कवि के अरमान इतने ज़्यादा हैं कि अनन्त आकाश में मुसकान बन कर बिखर जाने के बावजूद अरमान अधूरे रह जाते हैं।
चाँद में कवि के लिए आकर्षण है, लेकिन चाँद तो आकाश में है। कवि कहता है —
मुझे मालूम है यह चाँद
मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूल कर स्वर्गिक
महल से हिल नहीं सकता।
कवि कहना चाहता है कि प्यार तर्क का विषय नहीं है। वह भावना का विषय है, भावुकता में बुद्धि-विवेक स्थगित हो जाते हैं। यही कारण है कि प्रेमिका उजड़ी फुलवारी को भी बडे़ जतन से सजाती है। असल में कवि प्रेम को सदाबहार मधुमास और बरसात समझता है। प्रेम भावना के साथ विश्वास का भी विषय है, इसीलिए विश्वास भी तर्क का विषय नहीं है। तर्क विश्वास को खंडित कर सकता है, अतः वहाँ तर्क की ज़रूरत नहीं होती। प्रेम कविता का शाश्वत विषय है। इसीलिए इस बात की गुंजाइश वहाँ कम ही होती है कि नये प्रसंग, नये संदर्भ और अभिव्यक्ति की नयी भंगिमा आये। यह बात महेंद्रभटनागर के गीतों पर भी लागू है।
हिंदी-गीत ने विकास के क्रम में परिवर्तन के अनेक दौर देखे हैं, जैसे नवगीत, जनगीत आदि। महेंद्रभटनागर जी परिवर्तन की इस प्रक्रिया से अप्रभावित अपनी गति से चलते रहे हैं। इनकी भाषा-भंगिमा भी रूमानी गीतों वाली है। यही कारण है कि ये गीत आलोक, चाँद, घन, दीपक, स्वप्न, आदि प्रतीक बन कर बार-बार आते हैं। यह प्रवृत्ति विगतकाल होने के कारण गतिशील इतिहास द्वारा ही उपेक्षित हो जाती है। समकालीनता जिनमें नहीं है, शाश्वतता है, जब कि काव्य-धारा में शाश्वत कुछ भी नहीं होता। आलोचक आम तौर से समकालीन और आधुनिक को पहचानने की कोशिश करता है। वह रचना के यथार्थ के चरित्र को पहचानने की कोशिश करता है। इसीलिए गतानुगतिक प्रवृत्तियाँ उपेक्षित रह जाती हैं, और ऐसा होना स्वाभाविक है।
डॉ.महेंद्रभटनागर
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