चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
बारिश का ढंग (गीत)
बारिश का भी अजब ढंग है ।
मरुथल बूँद-बूँद को तरसे,
बादल सागर में ही बरसे,
धरा गगन को है निहारती,
जीवन का उड़ रहा रंग है ।
कहीं जलद ही नहीं दिखा है,
कहीं बाढ़ की विभीषिका है,
जाने कैसे दिन आये हैं,
दिनचर्या भी हुई तंग है ।
कोई समझाओ ‘इन्दर’ को,
सूरज, पवन और सागर को,
क्या थोड़ा-सा सुख न मिलेगा,
क्या दुख ही का साथ-संग है !
आसार नहीं..
धरती! धीरज धार, अभी तो
बारिस के आसार नहीं हैं ।
अभी-अभी आषाढ़ लगा है,
और तुझे परिवाद हो रहा;
पावस का आगमन कहाँ हो,
इस पर वाद-विवाद हो रहा,
दान-दक्षिणा पाने वाले
पानी के हक़दार नहीं हैं ।
बादल तो बादल, उनका क्या!
वे तो बस हाँके जाते हैं;
कहाँ-कहाँ बारिस होनी है,
पवन देवता बतलाते हैं;
देवलोक के सभी निवासी
करुणा के आगार नहीं हैं ।
क्षीरसिन्धु के रहने वाले
प्यास भला कैसे पहचानें ?
राजस धर्म निभाने वाले
सात्विक धर्म भला क्या जानें ?
धरती! तू कर्त्तव्य निभा, बस,
तेरे कुछ अधिकार नहीं हैं ।।
मुँह फेरे बैठे..
मुँह फेरे बैठे हैं देखो,
कब से हवा और ये बादल !
धूल-धूसरित वसुंधरा है,
कंठ-कंठ में शूल भरा है,
पानी के बिन जीवन सूना,
यौवन में आ गया जरा है,
कुंए-ताल सब रिक्त-रिक्त हैं,
अब तो बस, नयनों में है जल!
छाँव नीम की मरी-मरी है
नागफनी ही एक हरी है
आकुल-व्याकुल बेड़ धान की
ज़हरीली हो गयी चरी है
माड़ा-चढ़ी आँख को लगता-
छाये बदरा, बरसेगा कल!
आये देव मनाने, आये
भू पर लोट लगाने आये
‘पानी दे, गुड़धानी दे” कह
सोया इन्द्र जगाने आये,
किन्तु धरा प्यासी-की-प्यासी
अड़े हुए हैं मेघों के दल!
आये बादल..
तप्त धरा की
खोज-खबर लेने
आये बादल ।
बाग़-बगीचे
हरे-भरे जंगल
मुरझाये हैं,
ताल-तलैया
नद-नाले-पोखर
पपड़ाये हैं,
कर्मयोग को
व्याख्यायित करने
छाये बादल ।
श्री-वर्षण को
सजी हुई नभ में
वृष्टि-पालकी,
आस लगाये
जड़-चेतन, दोनों-
सुधा-पान की,
बूँद-बूँद में
अष्ट सिद्धि, नौ निधि
लाये बादल ।
रचा प्रकृति ने रास (दोहे)
राधा दामिनि, श्याम घन, वृन्दावन आकाश ।
श्री की वर्षा के लिए, रचा प्रकृति ने रास ।।
टप-टप-टप बूँदें पड़ीं, गर्मी पर प्रतिबन्ध ।
धरती से आने लगी, सोंधेपन की गन्ध ।।
पानी पीकर पेट-भर, धरती हुई निहाल ।
धीरे-धीरे छक गये, सारे पोखर-ताल ।।
रिमझिम-रिमझिम कर रही, पानी की बौछार ।
जैसे किसी अदृश्य का, बजने लगा सितार ।।
हरियाली से हो गया, मौसम का अनुबन्ध ।
दादुर बैठे बाँचते, अपने काव्य-प्रबन्ध ।।
पावस आता है तभी, बढ़ जाता जब ताप ।
मानो कहती हो प्रकृति, फल देता तप आप ।।
जब-जब रसवर्षण करें, पृथ्वी पर सारंग ।
मन पुष्पित-पुष्पित लगे, पुलकित-पुलकित अंग ।।
मेघदूत आये मगर, बनकर पीर फ़कीर ।
लायी पुरवाई मुई, पोर-पोर में पीर ।।
मेघों का पा आवरण, सूरज हुआ प्रसन्न ।
देख सकेगा चन्द्र-मुख, रहते हुए प्रछन्न ।।
बूँद टँगी आकाश में, लिये इन्द्रधनु-रूप ।
कमलपत्र पर जब गिरी, मोती बनी अनूप ।।
बूँदा-बाँदी हो कभी, कभी मूसलाधार ।
कभी-कभी बौछार ही, देते लम्बरदार ।।
दोनों ही दुखदायिनी, अनावृष्टि-अतिवृष्टि ।
जीवन के हित चाहिए, एक संतुलित दृष्टि ।।
राजेन्द्र वर्मा
- जन्म-8-11-1957 (बाराबंकी, उ.प्र.)
- प्रकाशन-प्रसारण-गीत, ग़ज़ल, दोहा, हाइकु, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, निबन्ध आदि
- विधाओं में बीस पुस्तकें प्रकाशित । महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित ।
- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ एवं समीक्षाएँ प्रकाशित ।
- लखनऊ दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित ।
- पुरस्कार-सम्मान-उ.प्र.हिन्दी संस्थान के व्यंग्य व निबन्ध-नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।
- अन्य-लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार पर एम्.फिल । अनेक शोधग्रन्थों में संदर्भित । कुछ लघुकथाओं और ग़ज़लों का पंजाबी में अनुवाद । चुनी हुई कविताओं का अँगरेज़ी में अनुवाद ।
- सम्प्रति-भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन।
- सम्पर्क-3/29 विकास नगर, लखनऊ (उ.प्र.)-226022
- मो. 80096 60096
- ई-मेल: rajendrapverma@gmail.com
हार्दिक आभार मयंक जी..
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