कमला कृति

बुधवार, 15 अगस्त 2018

पुस्तक-समीक्षा:अंक में आकाश : मिसरी और कुनैन-सी ग़ज़लें-डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय




           कविता, कहानी, निबन्ध, व्यंग्य आदिक विधाओं के बहुविश्रुत रचनाधर्मी श्री राजेन्द्र वर्मा की सद्यः प्रकाशित कृति, ‘अंक में आकाश’ मेरे सम्मुख है, जिसमें उनकी सौ ग़ज़लें हैं। ‘निवेदन’ शीर्षकीय चौबीस पृष्ठीय पुरोवाक् ग़ज़ल विधा के सर्वांगीण परिचय को समर्पित है, जिसमें उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल का उद्भव एवं विकास, ग़ज़ल का शिल्प प्रभृति उपशीर्षकों के अंतर्गत कृतिकार ने भाषा के आधार पर ग़ज़लों के विभाजन को उचित नहीं माना है। उसके अनुसार, उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल विषयवस्तु, भाषा-शैली व बिम्ब-प्रतीकादि की दृष्टि से ही भिन्न होती हैं, जिसके मूल में रचनाकार का सांस्कृतिक धरातल रहा है या, फिर रचना की तत्सम शब्दावली। राजेंद्र वर्मा जी ने कृति में अन्तर्निहित प्रत्येक रचना के छन्द का प्रकार, उसकी समाप्ति पर अंकित किया है। मुख्यतः ये हैं— विधाता छन्द, गीतिका, मनोरम, पीयूषवर्ष, सुमेरु, भुजंगप्रयात, राधा, भुजंगी, स्रग्विणी, कुंडल, अप्सरीविलसिता, मानव, मिलिन्द, दोहा, ताटंक, वासन्ती, हरगीतिका, खफ़ीफ, मुजारे-अखरब आदि। 

क्रमांक– दो पर माँ पर आधारित ग़ज़ल से पाठक बहुत-बहुत मुतास्सिर होंगे। माँ के लिए यह कतई ज़रूरी नहीं कि नाक-नक्श और रंग से उसका पुत्र लुभावना हो। अति-सामान्य और कभी-कभी विद्रूप मुखादि का पुत्र भी उसके लिए सर्वस्व होता है..

भले ही खूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ 
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है। (पृ. 30)
    xx xx
ये माँ ही है, जो रह जाती है बस दो टूक रोटी पर,
             मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है।      (पृ. वही)

         बावज़ूद इसके, वक़्त की बदनीयती जीवन के उत्तरार्द्ध में अक्सर अपना खेल खेल जाती है— जिसके प्रति वह ममता लुटाती रही, अपने सुखों की तिलांजलि दे कर्तव्यपरायण रही, वही बेगाना हो गया..

रहे जब से नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी, 
             सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है।  (पृ. वही)

यह असंभव नहीं कि उपर्युक्त पंक्तियों के अवगाहन के उपरान्त कोई भी जन्मदात्री स्वयं से प्रश्न कर बैठे.. ‘मातृधर्म का निष्पादन क्या उसकी भूल थी? यह प्रश्न भले ही अनुत्तरित रहे, लेकिन पुत्र और उसके आत्मजों के सम्बन्ध शायद बद से बदतर होते जायेंगे। इस दुरवस्था का पूर्वाभास प्रखर चिन्तक, राजेन्द्र वर्मा ने किया है..

अब समय आया है ऐसा राम ही रक्षा करें,
वृद्ध माता औ’ पिता से पुत्र वन्दित हो गये। (पृ. 31)

          अनेकानेक अनेपक्षित स्थितियाँ तो अति-विशिष्ट वर्ग की ही देन हैं। पृष्ठ 39 पर गीतिका छन्द की रचना ऐसे ही वर्ग को संबोधित है जो दिमाग़दारी के बल पर सुख-सुविधाओं को क़ब्ज़ाये बैठा है, जबकि उन्हें समाजोपयोगी बनाना अहंपूरित समाज ही का दायित्व है। राजेंद्र जी कहते हैं..

धन हमारा है मगर क़ब्ज़ा किये बैठे हैं आप, 
फिर हमीं को दान दे बनते हैं दानी किसलिए? (पृ. 39)

       विसंगति के अनेक व्यंग्य चित्र खींचते हुए राजेंद्र जी आम आदमी को आचार संहिता सुलभ कराते हुए कहते है..

सच है नौकरियाँ नहीं हैं, पर पढ़ाई तो करें,
कुछ-न-कुछ होगा ही हासिल, आप मानें तो सही। (पृ. 41)
इसी ग़ज़ल में वे सांग रूपक के माध्यम से स्वार्थी वर्ग के चरित्र पर चुटकी लेते हैं..
वर्करों से मुँह छुपाते फिर रहे हैं लीडरान,
लीडरी ही खा गयी मिल, आप मानें तो सही। (पृ. वही)
xx xx
साल ही बीता अभी है नौकरी पाये हुए,
ऋण के सब खाते हुए निल, आप मानें, तो सही। (पृ. वही)

        कन्या भ्रूण-हत्या के विरुद्ध उनकी गहन संवेदनायुक्त अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है..

जब से आयी रिपोर्ट, है बेटी,
अपनी माँ से वो डरी-डरी क्यों है? (पृ.62)

       उनकी रचनाशीलता के प्रमाणस्वरूप कुछ शे’र यहाँ दिया जाना आवश्यक प्रतीत होता है..

बहुत हो चुका अब हम अपनी करेंगे,
लड़ेंगे-भिड़ेंगे, मगर इक रहेंगे।

कभी फूल बनकर चमन में खिलेंगे,
कभी हम गगन के सितारे बनेंगे।
xx xx
कटोरा लिए क्यों फिरें आप दर-दर,
हमें काम दें, नवप्रगति हम करेंगे। (पृ.63)

         राजेन्द्र जी ने अपने अंतर्मन की मंजूषा के बिखरे स्नेहिल प्रकरणों को भी नितांत साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है..

तुमने क्या दर्पण से वार्तालाप किया? / बात-बात में जो इतना शर्माती हो! 
रहने को रह लो तुम सबकी वांछा में / लेकिन तुम मेरे जीवन की थाती हो। 
मेरा मन-सिंहासन तुमसे सज्जित है / क्या तुम भी मुझको अन्तस् में पाती हो? (पृ. 112) 

        इसी क्रम में एक और ग़ज़ल के कुछ अशआर भी मौजूं हैं..

तुझको देखा तो ऐसा लगा / मिल गया कोई मुझको सगा।
तेरे सौन्दर्य की क्या कहूँ / रह गया मैं ठगा-का-ठगा! 
साँझ लायी तेरी ख़ुशबुएँ / ख़ुशबुएँ दे गयीं रतजगा।। (पृ.110)

‘अंक में आकाश’ शतशः दृश्यमान् ग़ज़ल की कृतियों में न केवल प्रथम पांक्तेय है, मेरे मत से यह उसमें भी प्रथम क्रम की है। समाज को दृष्टि देने के साथ-साथ गज़लगोई की कला में नवप्रवेशी तो इससे ग़ज़लों में छन्द (बहर), तुकान्त (क़ाफ़िया) और समान्त (रदीफ़) आदि के अतिरिक्त कथ्य को जीवंत रूप में कैसे साधते हैं, सीख सकते हैं। बहुविधा रचनाकार राजेन्द्र वर्मा कलाजीवी है। ऐसे व्यक्तित्व कालजयी कीर्ति के अधिकारी होते हैं।

  • समीक्षित कृति-पुस्तक-अंक में आकाश (ग़ज़ल-संग्रह)/ ग़ज़लकार- राजेन्द्र वर्मा/ प्रकाशक-अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली/ संस्करण- प्रथम-2016/ पृष्ठ-128/ मूल्य– रु.250/- (सजिल्द)

समीक्षक-डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय 


130, मारुतिपुरम्, 
लखनऊ- 226 016
मो.9236227999

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