चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
सावन घिर आया..
पारे सा फिसल गया पावस जब दाँव में
चुपके से सावन घिर आया इस गाँव में
लहरों-सी लहर गयीं बादलों की टोलियाँ
बिजली की कड़कें हैं दाग रही गोलियाँ
तन मन सब भीग गया गीले अनुबंध पर
अँधियारे घिर आये खुशबू की बाँह में
अंतस का सूनापन सिहर गया द्वार पर
आशाएँ शाल ओढ़ बैठ गयीं पार पर
सूरज ने फेंक दिया मुट्ठी भर रोशनी
बिखर गयीं अनगिनती किरणें हर ठाँव में
रस भर कर बरस गये सावन के बादल
अँखियों में आँज दिया मेघों ने काजल
सुरमयी इशारों को पानी की ताल पर
देख लिया गोरी ने बरगद की छाँव में
टूट गयीं रेखाएँ सावन के रात की
चीख उठीं इच्छाएँ भीगी बरसात की
मटमैली चूनर ओढ़ अधरों की पोर पर
बाँध लिया गीतों ने घुँघरू जब पाँव में
सोने की मछरिया..
सोने की मछरिया है,
रेशम का जाल है
अंधों की नगरिया में,
रोशनी का ताल है
आदमी मछेरा बना पूछता सवाल है
चंद मुट्ठियों में ये बहारें कैद हैं
आँसूओं में डूबते नजारे कैद हैं
शांति के कपोत हैं पंख हैं कहाँ
चाँद कैद है यहाँ सितारे कैद हैं
किसने नेकी कर दिया दरिया में डाल है
आश्वासन के ताड़वृक्ष के भार से
टपकेंगे अक्षर भाषण के धार से
फसलें खनकेंगी मौसम लहरायेगा
प्रजातंत्र में दिन ऐसा कब आयेगा
सही दाम राशन क्या मिले मजाल है
जंगल में भटकेंगी जब सूरज की किरणें
चांदनी मुट्ठी भर भर बाँटी जायेगी
जुल्म करेंगे अक्षर जब अपने पृष्ठों पर
सच कहता हूँ मुझको नींद न आयेगी
यहाँ वायदों के बकरों का होता रोज हलाल है
आदमी मछेरा बना पूछता सवाल है
मीत नही बन पाया..
मेरे तृषित अधर अकुलाये
कोई गीत नही बन पाया
एक अकिंचन रूप न उभरा
कोई मीत नही बन पाया
छूकर छेड़ दिया है किसने
मन की इस पावन सरिता को
संबोधन सब टूट गये तो
कोई प्रीत नही बन पाया
एक चित्र अंकित करने का
आधार नही मिलता है
छंद अपरिचित रह जाते हैं
पर अधिकार नही मिलता है
किसने सींच दिया है फिर से
घर के इस सूने आँगन को
बहुत कथानक हार गये तो
कोई जीत नही बन पाया
साँझ अलसता की क्यारी में
सूरज को ढलते देखा है
अनजानी राहों पर किसने
दीपक को जलते देखा है
एक भ्रमर गुंजित कर जाता
है इस जीवन की बगिया को
सावन मुझसे रूठ गया तो
कोई रीत नही बन पाया
पुरवा पवन बही जब धीरे
महक उठी मन की अमराई
चातक स्वाति जल पाने की
रीत गयी सारी गहराई
किसने झकझोर दिया है
फिर से तन की व्याकुलता को
कारक कर्म सभी बन पाये
केवल मीत नही बन पाया
बादल जब-जब घिरने लगते हैं
स्मृति के नीले आँचल पर
दूर क्षितिज के पार कहीं
बादल जब जब घिरने लगते हैं
मन का मोर आस का लेकर समाधान
गलबहियाँ डाले नाच उठा करता है
पुखराजी आँचल के सपने
नयनों में तिरने लगते हैं
गुमनामी पत्रों-सी लगती शाम
कहीं मत हो मौसम बदनाम
अधर के कंपित कोलाहल
खींच दें कोई परिचित नाम
सूरज के सारे रेखांकन
कोहिनूरी किरणें बिखेरकर
बरगद की शाखाओं से
सहसा मुझको तकने लगते हैं
बादल जब-जब घिरने लगते हैं
एक मौन आख्यान उभर कर
चुपके-चुपके अंतस्थल पर
गुमसुम हो लहरा जाता है
तब निर्जन पर मर्म व्यथाएँ
गुँजित हो खिलने लगतीं हैं
मन के सारे अगणित चिंतन
आहट पाकर किसी सपन का
संबोधन देने लगते हैं
हिंदुस्तान है कविता
कविता है एक मंजिल
बढ़ते चले चलो
उस ठौर पर पहुँचो
तो गढ़ते चले चलो
कविता है आग,तोप और
आतंक है कविता
कविता है युद्ध ,शांति और
डंक है कविता
कविता दिलों को जोड़ती
और तोड़ती कविता
कविता कभी-कभी तो
मुख मोड़ती कविता
कविता है लाड़-प्यार और
दुलार है कविता
कविता समय है सत्य है
साकार है कविता
कविता हृदय का प्यार है
श्रृंगार है कविता
कविता है रागिनी कोई
उपहार है कविता
कविता कली है फूल है
बहार है कविता
कविता है हार,यारऔर
संचार है कविता
कविता है धूप-छाँव
एक गाँव है कविता
बहती हुई नदी है
एक नाव है कविता
कविता है गंध माटी की
श्रमदान है कविता
कविता किसान, खेत और
खलिहान है कविता
कविता है द्रास,कारगिल और
जवान है कविता
सचमुच हमारा देश
हिंदुस्तान है कविता
श्रीधर आचार्य "शील"
- पिता का नाम--स्व.श्री लोकनाथ आचार्य
- जन्मतिथि--3/8/1948 (बिलासपुर)
- योग्यता-- एम.ए.(हिंदी साहित्य)
- व्यवसाय--सेवानिवृत्त अध्यापक एवं स्वतंत्र लेखन
- प्रकाशित कृति-काव्य-संग्रह "गीत को स्वर कौन देगा?'
- सम्मान-राष्ट्रीय उद्योग और व्यापार मेला द्वारा "छत्तीसगढ़ रत्न", समन्वय साहित्य समिति द्वारा "समन्वय रत्न", "शब्दश्री सम्मान"
- सम्पर्क-रामा रेसीडेन्सी ( B6/GF), तोरवा /मेन रोड,विनीत पेट्रोल पंप के पास, देवरीखुर्द , बिलासपुर (छत्तीसगढ़)-495004
- मो.09977559161
- ई-मेल-sdacharya03@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें