विनोद शाही की कलाकृति |
बेटियों नाव बचानी है..
खुद थामो पतवार,
बेटियों, नाव बचानी है।
मझधारे से तार,
तीर तक लेकर जानी है।
क्यों निर्भर हो तुम समाज पर।
जिसकी नज़रें सिर्फ राज पर।
तमगा उससे छीन बेटियों,
करो दस्तखत स्वयं आज पर।
पत्थर की इस बार
मिटे, जो रेख पुरानी है।
यह समाज बैठा है तत्पर।
गहराई तक घात लगाकर।
तुम्हें घेरकर चट कर लेगा,
मगरमच्छ ये पूर्ण निगलकर।
हो जाए लाचार,
इस तरह, जुगत भिड़ानी है।
हों वज़ीर के ध्वस्त इरादे।
कुटिल चाल चल सकें न प्यादे।
इस बिसात का हर चौख़ाना,
एक सुरक्षित कोट बना दे।
निकट न फटके हार,
हरिक यूँ गोट जमानी है।
खुशबू के पल भीने से..
खुशबू के पल भीने से
रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
मात मिली भारी वस्त्रों को,
गात सज रहे झीने से।
गोद प्रकृति की हर मन भाई।
दुपहर एसी कूलर लाई।
बतियाती है रात देर तक,
सुबह गीत गाती पुरवाई।
बाँट रहे गुल बाग-बाग में,
खुशबू के पल भीने से।
गीत कोकिला गाती रहना..
बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।
मंथर होती गति जीवन की,
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।
देखो जोग न ले अमराई,
उससे प्रीत जताती
रहना।
बोल तुम्हारे सखी घोलते,
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती,
समय ठहर जाता बंजारा।
झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,
तुम प्रकाश बन आती
रहना।
जब फागुन के रंग उतरकर,
होली जन-जन संग मनाएँ।
मिलकर सारे सुमन प्राणियों
के मन स्नेहिल भाव जगाएँ।
तब तुम अपनी कूक-कूक से
जय उद्घोष गुँजाती
रहना।
गुलमोहर की छाँव..
गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।
ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।
जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।
फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।
भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की।
बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।
खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।
फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती।
कल्प-वृक्ष है यहीं उसे,
पहचानें और न कहना बाकी।
पंछी उदास हैं..
गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े हैं।
फीकी हुई सुरमई शाम।
घूम-घूम कर ऋतु बसंत की,
हो निराश जाती निज धाम।
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी।
मेरी रचनाओं को ब्लॉग पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार सुबोध जी
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