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विनोद शाही की कलाकृति |
पलायन के बाद
दूर दूर तक राह
मंद पवन भी जो चले
कक्ष कराहें आह
घरौंदे हुए अकेले
सीलन नम हैं भित्तियाँ
चौबारे हैं मौन
गौरैया- किलकारियाँ
रूठे लगते छौन
यहाँ कोई नहिं खेले.
जालों के परदे लगे
द्वार उगी है घास
रंगों उभरी झुर्रियाँ
कहती हैं इतिहास
पले रिश्ते अलबेले.
स्मृति रंग भरी होली
दिवाली अनबोली
हँसी ख़ुशी त्योहार पर
आ अतीत टोली
गुम हुए अब खुद मेले.
बेटियाँ
मन घबराये
चैन न पाये
जियरा भारी
दुश्चिंताएँ....
घर अँगना में
या चौरस्ते
विद्यालय हो
ऑफिस भीतर
पीछा करती
बुरी निगाहें
कुत्सित कर्म
भर वासनाएँ..
माँ की गोदी
में भी खतरा
असहाय बनी
बचा न पाये
जीने का हक़
कौन छीन के
गर्त दबाएँ ...
लछमी कहते
मुँह माँगी जो

ला दहेज़ दे
सिर्फ पूत दे
बने कल्पतरु
सफल न हो तो
चिता चढ़ाएँ.
जीवन
न जाने कब
कागज़ की नाव
गीली हो डूब जाय
आती जाती सांसों का
सिलसिला टूट जाय
मुट्ठी भरी रेत
हाथों से फ़िसल जाय
घड़ी की टिक-टिक
अचानक रुक जाय ?
चलते-चलते
जो करना है बस
इसी पल किया जाय
प्यार की खुशबू
सबमें बाँटी जाय
न रहेंगे हम यहाँ
ऐसा काम किया जाय
यादों में जियें
जीवन सफल हो जाय .
सत्य सन्देश को उजागर करती रचनाये !
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है , अगर आपको मेरी पोस्ट पसंद आये तो कृपया फॉलो कर हमारा मार्गदर्शन करें