विनोद शाही की कलाकृति |
तुम ही तुम
निःश्वसन
उच्छ्वसन
सब देह-कर्म, यह अवगुंठन
मोह-पाश के बंधन तुम
बस तुम! तुम ही तुम
व्यक्त हाव
अव्यक्त भाव
नेह-क्लेश, अभाव-विभाव
रूप-गंध के कारण तुम
बस तुम! तुम ही तुम
सम्मुख हो जब
विमुख हुए, तब
मनस-पटल की चेतनता सब
अनुभूति-रेख में केवल तुम
बस तुम! तुम ही तुम
कविता
कविता -
शरीर में चुभे हुए काँटे
जो शरीर को छलनी करते हैं;
वह टीस
जो दिल की धड़कन
साँसों को निस्तेज करती है
यह तुम्हें आनंद नहीं देगी
प्रेम का कोरा आलाप नहीं यह
वासना में लिपटे शब्दों का राग नहीं
छद्म चिंताओं का दस्तावेज़ नहीं
इसे सुनकर झूमोगे नहीं
यह तुम्हें गुदगुदाएगी नहीं
सीधे चोट करेगी दिमाग पर
तड़प उठोगे
यही उद्देश्य है कविता का
रात के स्याह-ताल पर
नृत्य करने वाले नर-पिशाचों के लिए
नहीं होती कविता
कविता पैदा करती है
जिंदा लोगों में झुरझुरी
एक सिहरन!
अँधेरे से लड़ने के लिए
अँधेरे से लड़ने के लिए
धूप जरूरी नहीं होती
जरूरी नहीं होते चाँद और सूरज
जरूरी नहीं दीपक
तेल से भीगी बाती
माचिस की तीली
जरूरी है आग
मन के किसी कोने में सुलगती आग
अँधेरे से लड़ने के लिए जरूरी है मन कोने में जलती आग… सुन्दर व् गहरी अभिव्यक्ति! साभार आदरणीय सुबोध जी!
जवाब देंहटाएंधरती की गोद
बहुत ही गहरी रचनाएं ! अंतिम वाली ने जान डाल दी है
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार!
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