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कोलाहल हो या सन्नाटा
कोलाहल हो
या सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है,
जब भी आंसू
हुआ पराजित, कविता सदा जंग लड़ती है ।
जब भी कर्ता हुआ अकर्ता
कविता ने जीना सिखलाया,
यात्रायें जब मौन हो गयीं
कविता ने चलना सिखलाया ।
जब भी तम का
जुल्म बढ़ा है,कविता नया सूर्य गढ़ती है ।
गीतों की जब पफसलें लुटतीं,
शीलहरण होता कलियों का,
शब्दहीन जब हुर्इ चेतना -
तब-तब चैन लुटा गलियों का ।
जब कुर्सी का
कन्श गरजता,कविता स्वयं कृष्ण बनती है ।
अपने भी हो गये पराये,
यूं झूठे अनुबन्ध हो गये,
घर में ही वनवास हो रहा,
यूं गूंगे सम्बन्ध हो गये ।
जब रिश्तों
पतझड़ हंसता, कविता मेघदूत रचती है,
कोलाहल हो या
सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है ।
बैठकर नेपथ्य में
बैठकर
नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
जो नहीं
हमदर्द हैं वे शब्द क्यों गढ़ते ?
कभी पर्दे को उठा
आकाश आने दो ।
मौलश्री की गंध को
भी गुनगुनाने दो ।
कभी पंछी की
चहक से, क्यों नहीं मिलते ?
क्यों नयन की झील में है
एक सन्नाटा ?
हर कुहासे को सुबह की
हंसी ने छांटा ।
क्यों सुनहले
दिवस की मुस्कान से डरते ?
प्यार के किरदार को
मिलती सभी खुशियां,
सृजन के ही मंच पर,
मिलती सुखद छवियां ।
क्यों न बादल
बन किसी की तपन को हरते ?
जो कला से दूर हैं
वह जिन्दगी से दूर,
पंखुड़ी के पास जो हैं
गंध से भरपूर ।
क्यों न अर्पण
गंध बन हर हृदय में बसते ?
बैठकर
नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
अभी परिन्दों में धड्कन है
अभी परिन्दों में
धड़कन है, पेड़ हरे हैं जिन्दा धरती,
मत उदास हो
छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?
चांद भले ही बहुत दूर हो
पथ में नित चांदनी बिछाता,
हर गतिमान चरण की खातिर
बादल खुद छाया बन जाता ।
चाहे थके
पर्वतारोही, दिन की धूप नहीं है ती ।
फिर-फिर समय का पीपल कहता
बढ़ो हवा की लेकर हिम्मत,
बरगद का आशीष सिखाता
खोना नहीं प्यार की दौलत ।
पथ में रात
भले घिर आये, दिन की यात्रा कभी न रुकती ।
कितने ही पंछी बेघर हैं
नीड़ों में बच्चे बेहाल,
तम से लड़ने कौन चलेगा
रोज दिये का यही सवाल ?
पग-पग है
आंधी की साजि़ाश,पर मशाल की जंग न थमती,
मत उदास हो
छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?
शब्दों के कंधों पर
शब्दों के
कंधों पर, बर्फ का जमाव,
कैसे चल
पायेगी, कागज की नाव ?
केसर की क्यारी में
बारूदी शोर,
काना फूसी करते,
बादल मुंहजोर ।
कुहरे की
साजि़ाश से उजड़ रहे गांव ।
मौसम है आवारा
हवा भी खिलाफ,
किरने भी सोयी हैं
ओढ़कर लिहाफ ।
सठियाये
सूरज के ठंढे प्रस्ताव ।
बस्ती को धमकाती
आतंकी धूप,
यौवन को बहकाता
सिक्कों का रूप ।
ठिठुरी
चौपालों में उंफघते अलाव ।
झुग्गी के हिस्से की
धूप का सवाल,
कौन हल करेगा बन
सत्य की मशाल ?
संशय के
शिविरों में, धुन्ध का पड़ाव,
कैसे चल पायेगी, कागज की नाव ?
मोरपंख सपनों का आहत
जब-जब क्रौच
हुआ है घायल, गीत बहुत रोया,
हर बहेलिए
की साजि़श में, नीड़ों ने खोया ।
जब महन्त आकाश ही करे
बारूदी बौछार,
पंछी कहां उड़ें फिर जाकर
अपने पंख पसार ?
हरियाली लुट गयी प्यार की
टहनी सूख गयी,
गूंगी हुर्इ गांव की कोयल
खुशियां रूठ गयीं ।
मोरपंख सपनों का
आहत, डर किसने बोया ?
चौपालों की चर्चा में
नपफरत की जंग छिड़ी
खेतों में हथियार उग रहे
लुटती फसल खड़ी ।
दाना कौन चुगायेगा
गौरैया सोच रही ?
बस कौवे का शोर, कबूतर
कब से उड़ा नहीं ।
भूला राम-राम
भी सुगना, लगता है सोया ।
पग-पग जहां शिकारी घायल
किससे बात करे ?
महानगर में हमदर्दी का
मरहम कौन धरे ?
बाजों की बस्ती में सच की
मैना हार गयी,
अब बेकार हुयी ।
शुतुरमुर्ग ने शीश झुकाकर, जुल्मों को ढोया,
जब-जब क्रौच हुआ है घायल, गीत बहुत रोया ।
राधेश्याम बन्धु
बी-3/163, यमुना विहार, दिल्ली-53राधेश्याम बंधु
- जन्म : 10 जुलाई 1940 को पडरौना उत्तर प्रदेश भारत में
- लेखन : नवगीत, कविता, कहानी, उपन्यास, पटकथा, समीक्षा, निबंध
- प्रकाशित कृतियाँ-
- काव्य संग्रह : बरसो रे घन, प्यास के हिरन
- खंडकाव्य : एक और तथागत
- कथा संग्रह : शीतघर
- संपादित :जनपथ, नवगीत, कानपुर की काव्ययात्रा, समकालीन कविता, समकालीन कहानियाँ, नवगीत और उसका युगबोध। इसके साथ ही आपकी रचनाएँ भारत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रकाशित प्रसारित हो चुकी हैं। वे 'समग्र चेतना' नामक पत्रिका के संपादक भी है।
- पुरस्कार : भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 'एक और तथागत' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 'जयशंकर प्रसाद पुरस्कार' तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित।
- टेली फ़िल्में : बन्धुजी अपनी कथा/पटकथा पर आधारित ३ टेली-फ़िल्में- 'रिश्ते', 'संकल्प' और 'कश्मीर एक शबक' तथा 'कश्मीर की बेटी' धारावाहिक बना चुके हैं।
- सम्प्रति : सहायक महाप्रबन्धक दूरसंचार किदवई भवन नई दिल्ली के पद से 2000 में सेवानिवृत्त।
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