चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
धुँआ
(मीर के नाम)मैं घिरा हूँ धुँए के घेरे में
और धुँआ है कि बढ़ता जाता है
मेरे सीने पे लोटता है कभी
मेरे सिर चढ़ के बोलता है कभी
मेरी आँखों से निकलता है कभी
मेरे होठों से फिसलता है कभी
मेरे कानों में कभी घुसता है
हाथ-पावों में कभी चुभता है
मेरी रगों में कभी जम जाता
मेरी साँसों में कभी थम जाता
मेरे गालों को चूमता है कभी
छेड़कर मुझको झूमता है कभी
कोई चिढ़ है जो तड़पती है कहीं
कोई मजबूरी झिड़कती है कहीं
एक टूटन सी है बिखरी रहती
एक तन्हाई सी पसरी रहती
एक ऊबन सी ऊँघती रहती
एक उलझन सी सिसकती रहती
क्या करूँ? कुछ न समझ पाता हूँ
धुँए में और घिरता जाता हूँ
न कोई शै दिखाई देती है
सिर्फ आहट सुनाई देती है
ऐसा लगता है कोई और भी है
धुँए की पर्त के उस पार कहीं
कोई तो है कि जिसके होने का
मुझको अहसास हुआ करता है
और ऐसा भी लगा करता है
जैसे मैं बोलूँ तो वो सुन लेगा
मैं पुकारूँगा तो उत्तर देगा
इसी अहसास को भीतर जकड़े
इसी भरोसे की डोरी पकड़े
अपनी हिम्मत समेटता हूँ मैं
फैली ताक़त लपेटता हूँ मैं
अपने जज़्बात तो लफ्जों में ढाल
चीख कर पूछता हूँ एक सवाल –
“देख तो, दिल के जाँ से उठता है
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है?”
दिल
(ग़ालिब के नाम)दिल मेरा कुछ दिनों से रूठा है
मुझसे ऐसे कि बोलता ही नहीं
मेरे कुछ राज़ छिपाए बैठा
जिनकी पर्तों को खोलता ही नहीं
मेरी यादों के बंद डिब्बे में,
मेरे बचपन के चन्द कैसेट हैं
एक सीडी भी है जवानी की
लेकिन, इनको मैं चलाऊँ कैसे
वीसीपी, टीवी औ’ सीडी प्लेयर
सब मशीनें हैं दिल के कमरे में
औ’ वो कमरा है बंद मेरे लिए
कुछ दिनों पहले नहीं था ऐसा
वो दिल का कमरा जैसे मेरा था
बैठकर जिसमें काफ़ी देर तलक
हाथ में वक़्त का रिमोट लिए
वीडिओ में पुरानी यादों के
ढूँढता खोये हुए ख़ुद को मैं
सिलसिला टूट गया है तब से
दिल मेरा रूठ गया है जब से
क्यों हुआ, कैसे हुआ, क्या मालूम ?
सोचता हूँ तो सिर्फ उलझन ही
हाथ आती है और कुछ भी नहीं
बुझा-बुझा सा है हर एक ख़याल
उठता रह-रह के यही एक सवाल –
“दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?”
आशुतोष द्विवेदी जी का अंदाज़ेबयाँ बहुत शानदार लगा ...वाह ....
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