कमला कृति

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

मौन होते शब्द व अन्य कविताएं-मंजुल भटनागर




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



मौन होते शब्द


कविता बुनना ,एकांत है
मन खोजता है
मौन होते हुए अहसास को
विरक्ति को
रूह में छिपे दर्द को
अनंत तक नदी हो बह जाने तक .

तथागत का एकांत
तपस्या का बोधिसत्व होना
गांधी का करघा
कबीर का जुलहिन सा बुनकर
जितनी बुनी सूत कपास
प्रेम की चदरिया बन
मौन रंग हो अमर हो जाना .

प्रेम का एकांत
सूने जंगल पगडंडियां
दो एकांत मिल
एक सघन एकांत रचते हैं
खोते हैं नभ के बादलों में
फूलो के खिलने में
हवाओं से दिग्भर्मित होते हैं
मौन होते शब्द
कुछ नही बोलते हैं.

नदी का एकांत किनारा
सागर का जैसे धुर्व तारा
दिन की थकन को ,स्वप्न
प्रेम का चिर मौन
शब्द देते,रंग देते चोला
प्रेम की भाषा अनन्त
रह जाते पर्वत जंगल तारें
प्रभु ईश या मौला।



स्वप्न


स्वप्न मरकत से डिब्बे से
दिवस आगमन पर
खुल जाते हैं
जी उठते हैं कंटीली झाड़ियों में
पनप  जाते हैं सहरा के
रेतीलें जंगलों में
केक्टस के दरख्तों पर
ओस की बूंदों से
झिलमिलाते .

किसी आंधी तूफानों से
भिड़ जाते
झंझावतों से बिखरते नही
कुछ और निखर जाते
स्वप्न उस दूब के त्रिन पर
सांस लें जी जाते हैं .

स्वप्न बीजते नही
खामोश सोते हैं
किसी एकांत विजन में
प्रेम की बूंद सींच देती हैं
स्वाति नक्षत्र सी कोई इच्छा
ढुल जाती है दिवा स्वप्न बन

स्वप्न में खलल न पड़े
स्वप्न ले रहा अजन्मा शिशु
विहंस रहा माँ कि कोख में
नीदं में ही नही
जागते हुए भी देख रहा
सृष्टी के अद्भुत दिवा स्वप्न.


प्रश्न


चेहरे की हंसी से
किसी के दिल का हाल
मत पूछो
बादल क्यों बरसता रहा रात भर
बिजलियों से जा के पूछो

आसमा छू सको तो
शौक से
चले आओ उड़ने
पर मंजिल कहाँ मिलेगी
यह रास्तों से  पूछो

घर के जख्मो को
छिपा लेते हैं जग मगाते फानूस
इन दीवारों में क्या दफ़न है
घर के झरोखों से  पूछो

आँधियाँ कितनी बेरहम थी उन दिनों
यह बात पंछियों से मत पूंछो
कौन सा परिंदा बेघर हुआ
पेड़ की टूटी डालियों से पूछो

मटमैला सा आलम है
आसमानों में धुआं धुआं क्यों है
फूलों को खिला रहने दो बागवानों में
तितलियाँ कहाँ खो गयो
यह पिछली सदी से पूछो  .


सूना नीड़



चिड़ियों ने क्यों
शहर है छोड़ा
ढूँढ रहा अविलम्ब सवेरा.

पढ़ लो आकर नीड़ सुनहरा
घने कुहस में बादल पानी
चिकनी रेत गज दो थाती
तुम्हीं  बता दो देश की माटी
भेज सुना दो ,लिख दो पाती.

लिख दो जब भी
बरखा आती या लिख दो
जब हवा सरसराती
कम्पन सी जब सर्दी आती .

सरसों ने बिरवे महकाए
आकर मनुवा शोर मचाय
रंग हीन सब बिन तुम्हारें
सूना नीड़ तुम्हें बुलाय .


इदी का मौसम


मौसमों सा मन
महसूसता तन
कल बारिश थी सोंधी सी
आज पूरा बसंत
पेड़ो पर पत्तों का हुजूम
बादलो के घर से उतरती ख़ामोशी
मौसम सा मन .

वो स्याह घेरो से उतरती चांदनी
जैसे खिड़की से उचकता
सोया सा गुलाब
महकता भी है रोज
पर ये रिश्ते समान से क्यों हो जाते हैं
जितना भी संभालूं
बस खो जाते हैं क्यों ?

सुबह मिलने जाती हूँ
हँसते चेहरों से
बीन लाती हूँ
चंपा की पंखुडियां
पलाश के बन
वो नागार्जुन की मानसरोवर झील
ढूँढना चाहती हूँ इस शहर में
न जाने क्यों .

दिन निकल रहा है
अखबार की सुर्ख़ियों सा
स्कूल बसें हॉर्न दे रही हैं
दूर मस्जिद से नमाज़ की रिवायते
बुन रही है ,इदी का मौसम .

मंजुल भटनागर 

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022-42646045,022-26311877.


मंजुल भटनागर 


आर्मी परिवार से हूँ इसलिए सारथ जैसी आर्मी की पत्रिकाओं में समसामयिक
लेख व कविताएँ प्रकाशित होती रहीं हैं .
अभिव्यक्ति , अनुभूति , नव्या,प्रवक्ता ,उदन्ती,हाइकू कोष ,हिन्दी-पुष्प
,प्रयास ,आगमन ,सृजन ,कविमन,सहज साहित्य ,वृत्त मित्र
,लेखनियाँ,परिकल्पना ,साहित्य रागिनी  नाम की पत्रिकाओं में रचनाएँ व लेख
प्रकाशित  हुएं हैं .अपनी रचनाओं के लिए कुछ सम्मान पत्र भी हासिल किये हैं.
बच्चों  की कहानियां और कविताएँ लिखने में भी रूचि है ,कुछ कवितायेँ
बच्चों की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई  हैं.
मेरी कुछ  पुस्तकें जैसे - आधी आबादी का सच ,प्रेमाभिव्यक्ति काव्य
संग्रह और अंजुरी ,हिंदी साहित्य के आईने में स्त्री विमर्श {निबंध
संग्रह}  सांझा प्रयास में छप  चुकी हैं . कुछ पुस्तकें  प्रकाशित होने
वाली हैं .

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