चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
कैलेंडर पर आया फागुन..
कैलेंडर पर आया फागुन
पर मन में
पतझर छहरा है।
खाली-खाली गली नेह की
ठूँठ पड़े संवेदन
गुमे सड़ाधों के दफ्तर में
खुशबू के आवेदन
तिथियों में मुखरित बसंत
सन्नाटा
उपवन में गहरा है।
कैलेंडर पर आया फागुन
पर मन में
पतझर छहरा है
चौपालें चुप-चुप सी
बरगद से रूठा अपनापा
स्वारथ की लू में झुलसा
भाईचारा, बहनापा
दिन
उमंग-मस्ती वाले पर
बस्ती पर
भय का पहरा है।
कैलेंडर पर आया फागुन
पर मन में
पतझर छहरा है।
हाथ खेतिहर गये
जुटाने रोटी-दाल भिवंडी
हँसी गाँव की भर गठरी में
शहर चली पगडंडी
कागज पर रंगो का पल
अंतस में
कोरापन ठहरा है।
कैलेंडर पर आया फागुन
पर मन में
पतझर छहरा है।
कंक्रीटों की बाड़ उगी
खो गई कहीं अमराई
सहमी– सहमी फिरे
कूक कोयल ने भी बिसराई
हो ली नारों में होली
अहसास
मुआ, गूँगा, बहरा है।
कैलेंडर पर आया फागुन
पर मन में
पतझर छहरा है।
बीज बोकर स्नेह के..
बीज बोकर स्नेह के
सदभाव के विरवे उगा दो
आज होली के दिवस पर
स्वार्थ के बगुले भगा दो
छद्म–छल के दस्युओं से
लुट रहा है आदमी
द्वेष दंभ और वंचना में
घुट रहा है आदमी
दृष्टि की संकीर्णता ही
धर्म का मतलब हुई
ईर्ष्या की पूतना
पाले हुये हर आदमी
इसी
मन की पूतना को
होलिका में अब जला दो।
शुचिता नहीं तो क्या
कहो प्रह्लाद कोई और था
हिरण्य के अन्याय का साम्राज्य
कोई और था
ताण्डव असुरत्व का
जो आज चहुँ दिश चल रहा
इन क्षणों से परे
वह अध्याय कोई और था
उठो
इस असुरत्व के अध्याय को
फिर से मिटा दो
पार्थ को जो जुये से छलते रहे
वो आज भी हैं
सिया को छल–वेश में हरते रहे जो
आज भी हैं
प्रेमपथ ही धर्मपथ
जो चिरन्तन कहती रही
उसी मीरा को गरल देते रहे जो
आज भी हैं
उनको
फिर से विष सुधासम
आज पीकर के दिखा दो
पीत सरसो के सुमन की मुस्कराहट
सार्थक हो
तितलियों का
बालियों पर गुनगुनाना सार्थक हो
सद् के चंदन से
महक जाये जगत की वात अबके
पाप जल जायें
तो होली का जलाना सार्थक हो
हर्ष का
प्रांगण सुहाना
प्रेममय जग को बना दो।
सदभाव के विरवे उगा दो
आज होली के दिवस पर
स्वार्थ के बगुले भगा दो
छद्म–छल के दस्युओं से
लुट रहा है आदमी
द्वेष दंभ और वंचना में
घुट रहा है आदमी
दृष्टि की संकीर्णता ही
धर्म का मतलब हुई
ईर्ष्या की पूतना
पाले हुये हर आदमी
इसी
मन की पूतना को
होलिका में अब जला दो।
शुचिता नहीं तो क्या
कहो प्रह्लाद कोई और था
हिरण्य के अन्याय का साम्राज्य
कोई और था
ताण्डव असुरत्व का
जो आज चहुँ दिश चल रहा
इन क्षणों से परे
वह अध्याय कोई और था
उठो
इस असुरत्व के अध्याय को
फिर से मिटा दो
पार्थ को जो जुये से छलते रहे
वो आज भी हैं
सिया को छल–वेश में हरते रहे जो
आज भी हैं
प्रेमपथ ही धर्मपथ
जो चिरन्तन कहती रही
उसी मीरा को गरल देते रहे जो
आज भी हैं
उनको
फिर से विष सुधासम
आज पीकर के दिखा दो
पीत सरसो के सुमन की मुस्कराहट
सार्थक हो
तितलियों का
बालियों पर गुनगुनाना सार्थक हो
सद् के चंदन से
महक जाये जगत की वात अबके
पाप जल जायें
तो होली का जलाना सार्थक हो
हर्ष का
प्रांगण सुहाना
प्रेममय जग को बना दो।
कृष्ण नन्दन मौर्य
154, मौर्य नगर, पल्टन बाजार
प्रतापगढ़,उत्तर प्रदेश–230001
ईमेल:krishna.n.maurya@gmail.com
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