आज की कविता में आक्रांत जन -मानस का यथार्थ चित्रण करती काव्योक्तियां
माँ को समर्पित 'पीढ़ी का दर्द' सुबोध श्रीवास्तव का पहला काव्य-संग्रह है जिसकी ५४ कविताओं में देश और समाज के ऐसे सरोकारों की भाव-भंगिमाएं अंकित की गई हैं जिनसे आम आदमी आक्रांत दिखाई पड़ता है, तो सचेतन बुद्धिजीवी उसकी इस दयनीय स्थिति पर स्वयं को बेबस पाकर किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो जाता है। इस पीड़ा की छटपटाहट उसके काव्य का प्रेरणा-बिंदु जान पड़ती है। 'पीढ़ी के दर्द की पीड़ा' में 'लालकिला', 'बापू' जैसे ऐतिहासिक उपादान से लेकर 'सूरज', 'हवा', 'मौसम', 'पहाड़', 'भूकंप' जैसे प्रकृतिगत उपादान भी सशक्त सम्प्रेषण में अभिव्यक्त हुए हैं। सुबकता लालकिला, गड्ढ़ों के बीच झांकती आँखें, माँ को सोया समझकर … तोतली ज़बान से आक्रोश जगाता, बच्चों की पनीली आँखें, सुबकता अस्पताल, अंतड़ियों की ख़ुराक और सूखी हड्डियों के लिए आड़ की जद्दो-जहद में पिसता जन, आदर्शों के कवच फेंकने की मजबूरी कहीं न कहीं उस युग-त्रासदी को झेलने की विवशता को दर्शाती है, जिसे 'पीढ़ी का दर्द' के रचनाकार ने पग-पग पर अपने मन-मानस में झेला और फिर अभिव्यक्त किया। कहीं रोज़मर्रा होते हादसों में मनुष्य की बेबस स्थिति व्यवस्था की पोल खोलती नज़र आती है तो कहीं प्रकृति-प्रदत्त 'भूकम्प', आपदाओं की विवशता।
छंदमुक्त इन कविताओं में बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों की सुन्दर छटाएं काव्य-सौंदर्य को बढ़ाती हैं। 'लाल किला', 'अस्पताल', 'पहाड़', 'सूरज का सशक्त मानवीकरण, 'सूरज' का प्रतीक व बिम्ब रूप में मज़दूर के दर्द में व्यक्त हुआ है। 'सूरज का दर्द' और 'मज़दूर का सूरज' में बेबस मज़दूर है, ' संवेदनाओं के अबोध शिशु' अछूता प्रतीक है। अपनी इन कविताओं में सुबोध जहां एक पल भी आम आदमी के दर्द को नहीं भूलता, वहीं रचनाकार की अपनी पीड़ा 'खबरची' में न कह पाने की छटपटाहट को भी झेलता है और जो कहीं न कहीं 'खण्डर-सा मैं' में अभिव्यक्त होता है। यथास्थिति का यथार्थ चित्रण करती परिस्थितियों में चीखना, बोलना या आवाज़ उठाना पूरी तरह वर्जित-सा माना गया है। कहीं न कहीं इन कविताओं में एक पत्रकार की सजग दृष्टि में समाज-व्याप्त घटनाओं व तथ्यों की तह तक जाकर उन्हें उघाड़ने की पहल भी दिखाई पड़ती है। इन कविताओं में व्यक्त सोच के नयेपन को पद्मश्री गोपालदास 'नीरज' ने भी सराहा है।
पूरे काव्य-संग्रह की अंतिम ११ कविताएं 'तुम्हारे नाम' सन्दर्भ में ली गई हैं जिनमें कुछ तो रुमानियत से सिक्त हैं तो अन्य में लक्ष्य-संधान के दृढ़ निश्चय की ओर एक संकेत करती हैं| साथ ही 'तुम/उदास मरुथल में/जल में मोती-सी चमकती' या 'मेरे सिराहने/ बिना अलसाये / देर तक जागती रही/ याद तुम्हारी!' में मिलन की चाहत की पराकाष्ठा दर्शाती है, तो 'तुम्हारे नाम' कविता में लक्ष्य सुंदरी का संधान आशावादिता जगाता है। निःसंदेह कविताओं की भावभूमि उन सामाजिक सरोकारों को उठा कर पाठक को इस यथास्थिति के विषय में सोचने को मजबूर करती है। पुस्तक का आवरण व साज-सज्जा सराहनीय है। सार रूप में सुबोध श्रीवास्तव का यह पहला काव्य-संग्रह निःसंदेह पठनीय व संग्रहणीय है।
- पीढ़ी का दर्द -सुबोध श्रीवास्तव
- काव्य-संग्रह
- अंजली प्रकाशन,
- आज़ाद नगर, कानपुर,1994।
बहुत सुंदर समीक्षा हुई है ,बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया kalpna mishra bajpei जी..
हटाएंबहुत सुंदर
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