चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
उम्मीदें थीं..
उम्मीदें थीं
आजादी खुशहाली लायेगी।
रखा सूद पर
जुआ और हल तक बैलों का
बस खुदकुशियाँ ही हल हैं
ठण्डे चूल्हों का
तय तो था
खलिहानों की बदहाली जायेगी।
नींव टिकी सरकारों की
दंगों, बलवों पर
लोकतंत्र है
पूँजीपतियों के तलवों पर
सोंचा तो था
सोंच गुलामों वाली जायेगी।
स्वार्थ–बुझे पासे
फिंकते कब से चौसर पर
नग्न–क्षुधित जनतंत्र
हारता हर अवसर पर
राजभवन से
कब यह नीति–कुचाली जायेगी।
हल्की ममता हुई
सियासत के हलके में
सरहद से माँ को मिलते हैं धड़
तोहफे में
इल्म न था
इस तरह लहू की लाली जायेगी।
इक लहर बारिश की..
इक लहर बारिश की क्या आई
धँस गया चकरोड
पुलिया ढह गई।
घर बने तालाब
गलियारे नहर
बूँद भर में, डूब–उतराया शहर
इक लहर बारिश की क्या आई
रोड पर जैसे
नदी ही बह गई।
भीड़ फर्राटा
घिसटती जाम में
खास भी कुछ, आ फँसे हैं आम में
इक लहर बारिश की क्या आई
पालिका की पोल
सारी कह गई।
हुईं टापू
रेहड़ियाँ, पैदल–पथों की
आज आमद नहीं ठेलों–खोमचों की
इक लहर बारिश की क्या आई
कीच ही केवल
असर में रह गई।
क्या उड़ने की आशा पंक्षी..
क्या
उड़ने की आशा
पंक्षी
नयन–निलय में
नील गगन है
तरु की फुनगी पर
यह मन है
किन्तु कटे पर
तो फिर कैसी
उपवन की प्रत्याशा
पंक्षी
तोड़
क्षितिज की परिभाषाएँ
पा लूँ इस नभ की
सीमाएँ
किन्तु बँधे पग
तो फिर कैसी
बढ़ चलने की आशा
पंक्षी
स्वर्ण–दीप्ति के छल
के पीछे
भाग रहा
तू आँखें मींचे
स्वर्ण–कटोरों में
चुग्गा चुगकर भी
कैसे प्यासा
पंक्षी
बँधे हुये
निश्वास तुम्हारे
मन पर
छल का पाश घना रे
गिरवी आत्मा ही जब
तो फिर
क्या स्व– की परिभाषा
पंक्षी
कृष्ण नन्दन मौर्य
प्रतापगढ़ (उ.प्र.) – 230001.
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