विनोद शाही की कलाकृति |
स्त्री
किसी कवि की कल्पनाओं सी
उन्मुक्त...
उड़ने की आकांक्षा लिए हुए
जहाँ तक हो बहाव
बिखेरती अपने विचार
जमाती आकाश तक अपने
अधिकार..
लेकिन मन का पक्षी जब करता
विचरण...
रच देती है कुछ विलक्षण उद्गार
वो खुद नहीं समझ पाती अपने
आंतरिक रहस्य..
रहती है खामोश सदा सबकुछ खोकर
उतर जाती जब जिद पर
सब हो जाते हैं निरुतर..
शब्दों के बाण भी भरसक झेलती
नजरों की तीर भी है झेलती
गुजरती है अनंत आतंक और भय
की रातों से होकर..
बावजूद सब के ऊपर उठती है स्त्री
शालीनता से अपनी विलक्षणता लिए हुए....!
अकेले
कभी जब होती हूँ बहुत
अकेले
सोचती हूँ हर संबंधों को
बहुत बारीकी से
और इस निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि
हर रिश्ते मांगते हैं समर्पण
हम, जिसे शायद मालूम ही नहीं
प्रेम समर्पण..
अकेलेपन के कवच से बाहर भी है
एक अनूठी दुनियां
जहाँ है प्रेम उपस्थित..
भविष्य के सुख की सुखद स्मृतियाँ
साथ ही , दुःख के प्राचीन इतिहास
खिलते हैं प्रेम के फूल जहाँ
पर यह सब होता है तब ,जब मैं होती हूँ
बहुत अकेले..!
तुम यूँ ही..
तुम यूँ ही रूठ जाते हो
हरदम...
जरा सोचो ,कितना मुश्किल है
संभालना खुद के जज्बातों को
जैसे एक उम्र बीत जाती है
अंधेरों से होकर
मेरी जिन्दगी में रौशनी से तुम
पर अदृश्य
अंतिम और एकमात्र जिसके बाद शायद
कुछ भी नहीं है
न कोई स्मृति है न ही कोई स्वप्न
तुम ही तुम हो ....
फिर क्यूँ बढ़ाते हो दरम्यानी फासला
इन बढ़ते फासलों से फैलने लगता है
मन के भीतर
अँधेरे का महासमुद्र
मैं खोजती हूँ इधर-उधर
बिखरे शब्दों की स्मृतियों को
जो पढ़ तो सकती हूँ पर
दिखला नहीं सकती..!
सर्द रात
पूस की सर्द रातों में
जब लोग
दुबके होंगे रजाइयों में
तुम भी अपनी उँगलियों से
साकार कर रहे होगे
एक ठिठुरती सर्द शाम
की अनोखी दास्तान..
जिसमें कुछ अनमोल यादों की
सरगोसियाँ होंगी और होंगी
सर्द रातों की तन्हा टीस..
कोई तुम्हें देखता होगा जी भरकर
पर अफ़सोस, ये कब जान पाओगे तुम
पूस की सर्द रातों की बेचैनी..
ऐसे ही जब तुम पढ़ रहे होगे
कुछ धुंधली पर रोचक तथ्य
दूर खड़ी तुम्हारे मासूम चेहरे को
निहारती हैं अपलक
पूस की सर्द रातों में ,
मैं और मेरी परछाई..!
मेरी कविता
जब भी
लिखती हूँ कोई कविता
सचित्र अवतरण होने लगता है फ़िजा में
जिसमें डूबती हूँ उतरती हूँ
कभी आर कभी पार
और दर्शील हो उठती हैं
अनमोल झलकियाँ जीवन की
महक उठता है रोम-रोम...
मेरी कविता
जब लिखती है कोई प्रेम गीत
शांत समंदर में हो जाती है हलचल
और दुगुने उत्साह से निकल पड़ती हैं लहरें
अपने प्रेम की ओढ़नी फहराती
लहराती चंचल..
जब कभी लिखती हूँ सोंदर्य
धरती का
अनगिनत पक्षियों का कलरव
गूंज उठता है वातावरण में
और झूम उठती हैं आकाश में घटाएँ
श्यामवर्णी होकर...!!
संगीता सिंह ''भावना''
sh 5 /20 AL लक्ष्मनपुर लेन-2लक्ष्मनपुर, शिवपुर, वाराणसी
पिन कोड-221002
ईमेल: singhsangeeta558@gmail.com
bhavpurn,sunder aur sarthak rachnayen
जवाब देंहटाएंbhavpurn rachnayen
जवाब देंहटाएंsabhi sundar ..... bdhai
जवाब देंहटाएं