विनोद शाही की कलाकृति |
दौड़
वे पहुँच गए वहाँ
जहां उन्हें पहुंचना था
अब वे उससे आगे
पहुँचने की तैयारी में हैं ।
मेरे लिए वहाँ तक
पहुंचना
नामुमकिन तो रहा ही
उस रास्ते का पता भी लापता रहा
मैं देखता रहा सबको
आगे –
और आगे जाते हुये
मैं कर भी क्या सकता था
इसके सिवा ?
मित्र
वे देते रहते थे मुझे
जीने की दुआएं
और कब्रिस्तान के किसी कोने में बैठे
काले कपड़े वाले बाबा से
करवाया करते थे काला जादू
मेरे सर्वनाश के लिए ।
उनकी इस दोगली चाल का
क्या करें ?
भिजवाते थे प्रसाद
वैष्णो देवी का
और मेरे सत्यानाश को
किया करते थे
बगुलामुखी का जाप !
क्या करते होंगे ?
क्या करते होंगे रुपयों का
कुबेर के नाती ?
गद्दों में भरवाते होंगे?
सजाते होंगे चिता
मृतकों को जलाते होंगे
इस्तेमाल करते होंगे
टॉइलेट पेपर की तरह ?
नाक का नेटा पोंछ फेंक देते होंगे ?
सेनेटेरी नैप्किन खरीदने की जहमत से
बच जाती होंगी उनकी स्त्रियाँ ?
फेंक देती होंगी डस्ट्बिन में
खून सनी गड्डियाँ ?
रगड़ती होगी आया
दस की गड्डी से
उनके घरों में बर्तन
और सहलाती होंगी
अपने कुत्ता –मूते नसीब को
मन-ही –मन ?
कितने खुश होते होंगे
कुबेर के वंशज
बाथरूम से निकलकर
रुपयों के पायदान पर
गीली स्लीपर रखकर
खड़े होते वक्त !
ज़िंदगी
आकाश में
घर बनाने की कोशिश
ही तो है यह ज़िंदगी
मुर्दा सम्बन्धों की ईटों को ढोकर
वहाँ तक पहुंचाना
आसान भी तो नहीं ?
संजीव ठाकुर
- जन्म-1967 (मुंगेर, बिहार)
- शिक्षा- पीएचडी (दिल्ली विश्वविद्यालय)
- प्रकाशन-नौटंकी जा रही है फ्रीलान्स ज़िंदगी, अब आप आली अनवर से, प्रेम सम्बन्धों की कहानियाँ (कहानी –संग्रह), झौवा-बैहार (लघु –उपन्यास), इस साज़ पर गाया नहीं जाता (कविता-संग्रह), बच्चों के लिए पंद्रह किताबें ।
- संप्रति-स्वतंत्र लेखन
- निवास-सिद्ध विनायक अपार्टमेंट, अभय खंड, इंदरापुरम, गाजियाबाद
- संपर्क-0120 4116718
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