चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
सुनता रहा आकाश मौन..
निर्जन सा मन
नीला अम्बर पहन
मिलता है प्रेम बांचती धरा से
ओस पड़ी थी रात बहुत,
हवाएं आती जाती हैं
पक्षियों के परों पर बैठ
पारिजात महकता रहा
नदी को कुछ कहना था
नाव सी मुस्कराहटें लिए
नदी मझधारे बहती रही
डूबने का खौफ लिए
लहरों के साथ घुमड़ती रही
सुनता रहा आकाश मौन.
चिनार के पत्ते उड़ने लगे थे
बिखरे पलों से
रोज शाम समेटती हूँ मैं
जानते हुए,
कल फिर बिखर जाना है उन्हें
शर्म से लाल सूरज उग रहा था
सब कुछ बहुत साफ़ था
भीगी सी पगडण्डी
अलसाई घास
रास्तों के पत्थर
चल रहे थे साथ साथ
दूर अमराई पर
कोयलिया गा रही थी
स्वप्न गीत
मौन आकाश सब कुछ गुन रहा था .
जो कुछ सामने है वो..
जो कुछ सामने है वो कडवा बहुत है
असलियत जान लूँ वो कहता बहुत है.
माँ के आशीष में कितना है कमाल
दुश्मन भी हो तो उसे भाता बहुत है.
बोल दे लव्ज कोई प्यार के इस बस्ती में
यह हुनर किसी को कहाँ आता बहुत है.
सजाये जो सपने दिल में कभी मैंने
उनको रात दिन वो टटोलता बहुत है.
छू कर चला आया धरती के क़दमों को वो
अब यही शौक उस निष्ठुर को भाता बहुत है।
धरा के जंगले हरे रहें..
छाँव भी झुक गयी
पेड़ पीछे छिप गई
धरा पर शीत रहे
ग्रीष्म रहे
छाँव के सिलसिले रहें
और जंगल भी हरे रहें
शखाएं उन्माद भरी
बाहं डाले झूम रही
फूल हूँ पराग हो,पत्तियों पर रंग चढे हों
धरा के जंगले हरे रहें
घर आंगन में चहक हो
प्यार की खुशबुओं लिए
बड़ों की आसीस हो
मिलनेे के सिलसिलें रहें
धरा के जंगल हरे रहें
उदास न कोई रात हो
मेहँदी भरे हाथ हों
इशारों से बात हो
जिसे नज़र खोजती
दिल मनचले रहें
और धरा के जंगल भी हरे रहें।
मंजुल भटनागर
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