सुबोध श्रीवास्तव (1966) कविता, गीत, गज़ल, दोहे, मुक्तक, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य जैसी विविध साहित्यिक विधाओं में दखल रखने वाले बहुआयामी प्रतिभा के धनी कलमकार है। पत्रकारीय लेखन के अतिरिक्त वे अपने काव्य संग्रह ‘पीढ़ी का दर्द’, लघुकथा संग्रह ‘ईर्ष्या’, बालकथा संग्रह ‘शेरनी माँ’ और ई-पत्रिका ‘सुबोध सृजन’ के लिए पर्याप्त चर्चित हैं।‘सरहदें’ (2016) उनका दूसरा कविता संग्रह है।
सुबोध बच्चों को मनुष्य में विद्यमान सहजता और दिव्यता के अंश के रूप में देखते हैं और वह उनके लिए भविष्य का भी प्रतीक है। स्वार्थ, हिंसा और आतंक से भरी दुनिया में जहरीले कीड़े को बचाता नन्हा बच्चा अपनी निस्संगता में मानवता का संरक्षक बन जाता है. बच्चे और भी हैं। वर्षा के जल में खेलते अधनंगे बच्चे कवि को अतीत में ले जाते हैं – घर और बचपन की स्मृतियों में। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि असमय इन दोनों से बिछुड़ गया है। घर, शायद इसीलिए इन कविताओं में पीड़ा और वेदना का स्रोत बनकर उभरा है। कवि की यह शुभेच्छा अनेक रूपों में व्यक्त हुई है कि एक दिन ‘टूटकर रहेंगी सरहदें’ और सरहद के इस पार के बच्चे जब उल्ल्हड़ मचाते सरहद के करीब से गुजरेंगे तो उस पार के बच्चे भी साथ खेलने को मचल उठेंगे – “फिर सब बच्चे/ हाथ थाम कर/ एक दूसरे का/ दूने उत्साह से/ निकल जाएँगे दूर/ खेलेंगे संग-संग/ गाएँगे गीत/ प्रेम के, बंधुत्व के/ तब/ न रहेंगी सरहदें/ न रहेंगी लकीरें.” ‘सरहदें’ का विखंडन करने पर यही तथ्य सामने आता है कि कवि बात तो सरहदों की कर रहा है लेकिन सरहदों के ‘न होने’ का प्रबल हामी है। यह तथ्य कवि की मुक्ति चेतना का द्योतक है। यह मुक्ति चेतना हर सरहद को नकारती है, बावजूद इसके कि बार-बार सरहदों की स्वीकृति आ उपस्थित होती है। कवि जब आह्वान करता है – ‘निकलो/ देहरी के उस पार/ वंदन अभिनंदन में/ श्वेत अश्वों के रथ पर सवार/ नवजात सूर्य के’ ××× ‘उठो निकलो/ देहरी के उस पार/ इंतजार में है वक्त’ तो वह ऐसी बेहतर दुनिया का स्वप्न देख रहा होता है जहाँ सरहदें न हों। इसीलिए आतंक की खेती करने वालों को उनकी कविता सीधे संबोधित करते हुए कहती है – ‘तुम्हें/ भले ही भाती हो/ अपने खेतों में खड़ी/ बंदूकों की फसल/ लेकिन -/ मुझे आनंदित करती है/ पीली-पीली सरसों/ और/ दूर तक लहलहाती/ गेहूं की बालियों से उपजता/ संगीत./ तुम्हारे बच्चों को/ शायद/ लोरियों सा सुख भी देती होगी/ गोलियों की तड़तड़ाहट/ लेकिन/ सुनो..../ कभी खाली पेट नहीं भरा करतीं/ बंदूकें,/ सिर्फ कोख उजाड़ती हैं’।
मैं घुलना चाहता हूँ
खेतों की सोंधी माटी में,
गतिशील रहना चाहता हूँ
किसान के हल में,
खिलखिलाना चाहता हूँ
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ,
हाँ, मैं चहचहाना चाहता हूँ
सांझ ढले/ घर लौटते
पंछियों के संग-संग,
चाहत है मेरी
कि बस जाऊं/ वहाँ-वहाँ
जहाँ –
सांस लेती है जिंदगी
और/ यह तभी संभव है
जबकि
मेरे भीतर जिंदा रहे
एक आम आदमी!
- पुस्तक-सरहदें/ कविता संग्रह
- कवि-सुबोध श्रीवास्तव
- पृष्ठ-96
- मूल्य-120 रुपये
- बाईंडिंग-पेपरबैक
- प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन,
- 942 मुट्ठीगंज, इलाहाबाद,
- उत्तर प्रदेश (भारत)
- मोबाइल: +91-9453004398
- ISBN12: 9789383969722
- ISBN10: 9383969722
- http://www.anjumanpublication.com
प्रो. ऋषभदेव शर्मा
(पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद)
208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर– 500013
मोबाइल - 08121435033
ईमेल – rishabhadeosharma@yahoo.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2016) को "मुँह के अंदर कुछ और" (चर्चा अंक-2311) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार मयंक जी..
हटाएंबधाई।
जवाब देंहटाएंस्नेह के लिए आपका हार्दिक आभार..
हटाएं