|
सांसों को घेरता हुआ धुआं
सांसों को
घेरता हुआ धुआं
चेहरे लगने लगे
शहर से
परदों पर छींटों के
दाग हुए गहरे।
वर्जनाओं से भरे
इस जलते हुए
शहर का क्या करें।
माथे झरे,
पसीने से
संयम कितने दिन
और करें।
हंसते-हंसते
विष पीने का
अभिनय कितने
दिन और करें।
तक्षक हैं
शोर-शराबे के
विनिमय
कितने दिन और करें।
भीड़ भरे चौराहों को
जैसे सूंघ गए
हों सांप
पोर-पोर पिघले ऐसे
अकुलाए चुपचाप।
विष बुझी हवाओं
को पीकर
बंसी तक
भर गई जहर से।
सांसों को
घेरता हुआ धुआं
चेहरे लगने लगे
शहर से।
धूप मुंडेरों पर
याद आती है
वह धूप
जब मुंडेरों पर
आते ही बैठ जाती थी।
याद आती है
वह धूप
जब रोशनी उजाला बनकर
घंटों बतियाती थी।
याद आती है
वह धूप
जब घंटों देखती थी
रास्ता उनका
और लौट जाती थी।
नारी से शिला होना
मैं यशोधरा थी,
अहिल्या नहीं थी
लेकिन सिद्धार्थ की गौतमी कामना ने,
मुझे सचमुच में
अहिल्या बना दिया।
कभी,
इंद्र के राग से
जड़ हुई थी-
इस बार विराग ने पथरा दिया
दोनों की ही नियति थी
सोते हुए
छले जाना
और अनुत्तरित होकर रह जाना –
नारी से
शिला बनने की
प्रक्रिया का बार-बार दोहराया जाना।
पत्थर तन,
पत्थर मन,
लिए मैं
कभी अहिल्या बनती रही,
कभी यशोधरा कहलाती रही,
और हर बार पथराती रही।
सिद्धार्थ कैसे
पिता से गौतम,
गौतम से बुद्ध बने
राहुल को बताती रही।
क्यों लांघी थी लक्ष्मण-रेखा
मैंने क्यों लांघी थी
लक्ष्मण रेखा ?
यह प्रश्न
मुझसे लक्ष्मण ने तो क्या
कभी राम ने भी नहीं किया
उलटा मुझे ही,
प्रश्नों के कठघरे में
खड़ा कर दिया।
मैं खुद लांघी थी
या बांध ही नहीं पाई थी
मुझको लक्ष्मण-रेखा !
सीता, जो
कभी जनकदुलारी थी
फिर बना दी गई
रघुकुल की मर्यादा,
पर लक्ष्मण-रेखा तो शायद
उल्लंघन करने के लिए
ही बनी थी,
साक्षी थी वह
सीता के हरण की
मर्यादा-हरण के
दु:खद चरण की।
पति की
पुकार को सुनते ही
जबरन भेज दिया
देवर को
उनके स्व र के पीछे
लेकिन,
सीता की चीखों को
किसने, कब, कहां सुना--
पत्नी की मर्यादा से
ऊपर थी,
रघुकुल की मर्यादा,
भिक्षुक को
खाली हाथ लौटाने से
रघुकुल लांछित हो जाता,
इसलिए,
भिक्षा देने
मैं बाहर चली गई,
यानी मर्यादा निभाने में ही
सीता छली गई।
पीछे मेरी आत्म पुकारें,
चीत्कारें,
खाली चली गईं।
वैदेही तो,
कभी अयोध्या में
कही गई थी
लंका तो,
सचमुच मेरे लिए
विदेह थी।
कैसे
एक अशोक वृक्ष के नीचे
मैंने अपना
शोक काटा था
बहुमत में
रावण था,
मैं तिनके की ओट थी
नहीं खिंची थी
वहां पर
कोई भी लक्ष्मण-रेखा।
लौटने पर,
मैंने जब आंखें भरकर
उनको देखा
फिर भी कर दिया गया
मुझे अग्नि के हवाले
पर तपने के
बाद भी
पुरुषार्थ आश्वस्त नहीं हो पाया
और मात्र
उस धोबी के कहने पर
जिसने खुद
अपनी पत्नी को
शक में था पीटा
दण्डित करने के बजाय
मुझे ही रथ से उतारकर
वन में गया छुड़वाया
बिना कोई लक्ष्मण-रेखा खींचे ही,
उस हाल में,
जब मैं
रघुकुल के
‘वंश-गौरव’ का प्रतीक थी !
यह कैसा न्याय था
रघुकुल का
कैसा पुरुषार्थ था !
क्या लक्ष्मण-रेखा
सिर्फ मेरे लिए ही बनी थी
क्या कोई मर्यादा नहीं थी
रघुकुल-पुरुष की ?
धनुष-यज्ञ के बाद,
वे भी तो
कुछ वचनों से
बंधे थे और
उनके लिए भी
कहीं खिंची थी रेखाएं –
मैं तो केवल सीता थी,
मात्र एक प्रतीक थी
अहं की
गर्व की,
मर्यादा की
पुरुष समाज की।।
मैंने तो कभी
भूलकर भी नहीं पूछा
पथराई अहिल्या
कैसे, क्योंकर द्रवित हुई,
शबरी के जूठे बेर
कैसे प्रेम का प्रतीक बने
पर तब
सचमुच मेरा मन भर आया
जब धोबी के प्रश्न का
उत्तर देने के बजाय
मेरे राम ने
मुझे ही सवाल बनाया !
कैसा है यह समाज,
जो पत्नी को
निकालने के बाद
उसको सोने की
प्रतिमा में ढ़ालकर
यज्ञ पूरा कराता है
और तब कोई
लक्ष्मण-रेखा
उन्हें नहीं टोकती ।
यदि मैं खुद को
लक्ष्मण-रेखा में ही
बांधे रहती तो
रावण संस्कृति को
कैसे धिक्कारती !
अपने दो बेटों के साथ,
जंगल की चुनौतियां
कैसे स्वीकारती !
यह प्रश्न
सीता से
किसी ने भला
कभी क्यों नहीं किया –
क्यों लांघनी पड़ी थी,
उसे लक्ष्मण रेखा !
यह रेखा आखिर
किसी बलिहारी थी
क्या यह केवल
पुरुष समाज की
लाचारी थी –
आगे-पीछे क्या हुआ,
किसी ने नहीं देखा
फिर भी,
लकीर की फकीर
बनी हुई है
आज भी
त्रेता की वह लक्ष्मण-रेखा !
अंजू निगम
संयुक्त सचिव,
संचार मंत्रालय,
भारत सरकार, नयी दिल्ली|
अंजू निगम
- शिक्षा-एम.एस.सी. (भौतिक विज्ञान)
- लेखन क्षेत्र-गीत, नई कविता, व्यंग्य, रेखाचित्र आदि|
- प्रकाशन-रचनाएं देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित |
- दूरदर्शन-आकाशवाणी से भी प्रसारण|
- प्रकाशित कृतियां-'धूप मुंडेरों पर' कविता संग्रह|
- व्यवसाय-भारतीय डाक सेवा|
- संप्रति-संयुक्त सचिव, संचार मंत्रालय, भारत सरकार|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें