कमला कृति

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

बृजेश नीरज की दो कविताएं



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


तीन शब्द


जरूरत है
कुछ नए शब्दों की

ढूँढ़ रहा हूँ
लेकिन बाज़ार बंद हैं
कुछ अधखुले पल्लों से/ झाँकती
आँखें घूरती हैं
दुकानों की मरम्मत चल रही है

लिजलिजाती देह की गंध
फिर-फिरकर मुझ तक आती है
नथुने भर गए हैं

आँखें दूर तक टटोलती हैं
आसमान चुप है
हवा खामोश
हर तरफ सन्नाटा
सूरज की तपती किरणों में
पिघलती सड़क
कुछ दूर जाती है
फिर लौट आती है
मुझ तक

मैं निरीह देख रहा हूँ
इन अट्टालिकाओं को मुस्कुराते

मैंने नदी से माँगे नए शब्द
पर नदी तो बेबस थी
बाँध से टकराकर लहरें टूट गईं
मैंने पेड़ से चाहा
पर वह तो बसंत के पहले से
ठूँठ होता खड़ा है
खेत से माँगी
सावन के बाद नई फसल
लेकिन बादल घुमड़कर लौट गए

घूम-फिरकर वही-वही शब्द

आँखें बंद कर लूँ तो
प्रतिध्वनियाँ गूँजती हैं
निरुपाय सा उन्हीं शब्दों को
उनकी ध्वनियों, प्रतिध्वनियों को
काँधे पर लादे बढ़ रहा हूँ
क्षितिज की ओर
लेकिन वह भी
इन शब्दों की गंध से
बचने की कोशिश में
खिसकता जाता है
दूर और दूर

वो तीन शब्द
आदमी, पेट, भूख
जाने कब तक लदे रहेंगे
मेरे कंधे पर


गंध


दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का भी योगदान है

गंध भी होती है पसीने में

हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर

धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी



बृजेश नीरज


पिता- स्व0 जगदीश नारायण सिंह गौतम
माता- स्व0 अवध राजी
जन्मतिथि- 19-08-1966
जन्म स्थान- लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
भाषा ज्ञान- हिंदी, अंग्रेजी
शिक्षा- एम0एड0, एलएल0बी0
लेखन विधाएँ- छंद, छंदमुक्त, गीत, सॉनेट, ग़ज़ल आदि
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
निवास- 65/44, शंकर पुरी, छितवापुर रोड,
              लखनऊ-226001
सम्प्रति- उ0प्र0 सरकार के कर्मचारी।
कविता संग्रह- ‘कोहरा सूरज धूप’
साझा संकलन- ‘त्रिसुगंधि’, ‘परों को खोलते हुए-1’
सम्मान- विमला देवी स्मृति सम्मान २०१३
विशेष- संपादक- ‘शब्द व्यंजना’ मासिक ई-पत्रिका

14 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार!

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  2. सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर हैं नीरज जी..! बधाई....

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  3. तीन शब्दों का बोझ और उनकी खोज की स्वाभाविक खीज, भटकाव तथा दुःख की शब्दमयी जीवंत प्रस्तुति है. साधुवाद

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  4. ​दोनों कविताएं अलग अलग विषय और अलग अलग परिवेश की हैं ! आदमी , पेट , भूख ये तीन शब्द ! कितना गहरा और विस्तृत समझा है आपने इन्हें ! गंध - क्या बात लिखी है आपने इस दुनिया के पानी में आदमी के पसीने की भी मात्रा है लेकिन ये पसीना और पानी काम हो रहा है ! पानी और भी कहीं कम हो रहा है मित्रवर कविवर नीरज जी , आँखों का पानी भी कम हो रहा है ! बेहतरीन काव्य

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  5. नीरज जी की दोनों कविताएँ शानदार है।

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  6. शब्द तो मात्र माध्यम है, भावना को व्यक्त करने का.
    आपकी दोनो रचनाये भावना प्रधान होने के कारण बहुत सुन्दर लगी.
    स्वेद एयरकंडीशन में कम हो जाएगा लेकिन आम आदमी के जीवन में तो वही आधार है.
    जितना बहेगा उतना उपार्जन होगा और जीवन चलेगा.
    "स्वेदगन्ध " का सर्वहाराओं को बोध नहीं होता वह तो आभिजात्य से जुड़ा होता है.
    सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई.वैसे अभी पसीना और पानी सूखने जैसा समय नहीं आया है.

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